भारतीय राजनीति में कभी-कभी एक साथ कई मोर्चों पर हलचलें दिखाई देती हैं — कोई नई जिम्मेदारी संभालता है, कोई सत्ता के लिए संघर्ष करता है, तो कोई अपने खोए जनाधार की तलाश में जुटा है। न्यायमूर्ति रंजना प्रकाश देसाई से लेकर सिद्धारमैया, राहुल गांधी और कर्पूरी ठाकुर तक, यह संकलन बताता है कि भारतीय राजनीति कितनी विविध और अप्रत्याशित है।
किस्मत की धनी
न्यायमूर्ति रंजना प्रकाश देसाई किस्मत की धनी हैं। केंद्र सरकार ने तीन दिन पहले ही उन्हें आठवें केंद्रीय वेतन आयोग का अध्यक्ष बनाया है। मराठी परिवार में जन्मी रंजना के पति गुजराती हैं। रंजना देसाई पहले बंबई हाई कोर्ट में वकालत करती थीं। वे 1996 में जज बनी और 2011 तक यानी 15 साल जज रहीं। फिर 2011 में वे सुप्रीम कोर्ट की जज बन गईं। तीन साल तक सुप्रीम कोर्ट की जज रहीं। सेवानिवृत्त होते ही केंद्र सरकार ने दिसंबर 2014 में उन्हें बिजली अपीलीय पंचाट का अध्यक्ष बना दिया। साथ ही 2018 में आयकर की ‘एडवांस रूलिंग अथारिटी’ का अध्यक्ष भी बना दिया। लोकपाल की नियुक्ति के लिए बनाई गई ‘सर्च कमिटी’ का मुखिया भी केंद्र सरकार ने सितंबर 2018 में उन्हें ही बनाया। डेढ़ साल यह दायित्व संभाला। परिसीमन आयोग के अध्यक्ष के नाते जम्मू कश्मीर में विधानसभा की सभी सीटों का परिसीमन उन्होंने ही किया। उत्तराखंड सरकार ने समान नागरिक संहिता भी उन्हीं की समिति से बनवा कर लागू की है। जून 2022 से रंजना देसाई भारतीय प्रेस परिषद की अध्यक्ष भी हैं। देश में इस समय सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त जजों और सेवानिवृत्त प्रधान न्यायाधीशों की कमी नहीं है। पर सेवानिवृत्त होने के बाद कुछ तो पद लेना नहीं चाहते, और कुछ पर सरकार अपनी नजर-ए-इनायत नहीं करती। रंजना देसाई के लिए परिस्थितयां अनुकूल रहीं।
सिद्धा-खरगे गठजोड़
सिद्धारमैया के बेटे यतींद्र ने अपने पिता के उत्तराधिकारी के रूप में सतीश जरकीहोली का नाम अनायास ही आगे नहीं बढ़ाया। आरोप है कि वे डीके शिवकुमार को मुख्यमंत्री नहीं देखना चाहते। सिद्धारमैया कुर्सी छोड़ने को तैयार नहीं, इसलिए डीके शिवकुमार ने कहना शुरू कर दिया है कि अभी उनके मुख्यमंत्री बनने का समय नहीं आया है। वे 2018 के चुनाव के बाद कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री बनेंगे। पिछले चुनाव में वोक्कालिगा वर्ग के वोट कांग्रेस को इसी उम्मीद में मिले थे कि मुख्यमंत्री शिवकुमार बनेंगे। अन्यथा वोक्कालिगा तो देवेगौड़ा का वोट बैंक रहे हैं। अगले चुनाव में भी वोक्कालिगा कांग्रेस को ही वोट देंगे, कौन गारंटी से कह सकता है। सिद्धारमैया और खरगे दोनों ही शिवकुमार को मुख्यमंत्री बनाए जाने के खिलाफ हैं। ये कर्नाटक में अहिंदा राजनीति चाहते हैं। यानी पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक तबके की राजनीति।
कमी रह जाने की कसक
बिहार विधानसभा चुनाव की घोषणा से पहले और बाद में कांग्रेस की सक्रियता का असर बिहार में साफ नजर आया। पार्टी के अंदर टिकटों को लेकर नाराजगी बरकरार है, लेकिन राहुल गांधी की यात्रा खत्म होने के बाद का असर भी चुनाव मैदान में दिखा। बिहार चुनाव से पहले कांग्रेस का दम दिखाने के लिए राहुल गांधी ने यह यात्रा निकाली थी और चारों ओर इस यात्रा का जोरदार स्वागत भी हुआ था। जमीनी स्तर पर पार्टी के नेता खुद मानते हैं कि इससे कांग्रेस की स्थिति मजबूत हुई। टिकट बंटवारे के बवाल में कांग्रेस की स्थिति कमजोर दिखी है। अब कांग्रेस के नेता खुद इस बात को मानते नजर आ रहे हैं कि बिहार में आधार पाने के लिए कांग्रेस को एक बार फिर से रंग जमाने की जरूरत है।
लक्ष्य अधूरा
जम्मू कश्मीर में राज्यसभा की चारों सीटें जीतने का नैशनल कांफ्रेंस का लक्ष्य इस बार अधूरा ही रह गया। नैशनल कांफ्रेंस से एक सीट भाजपा ने झटक ली। हालांकि, पीडीपी ने अपने तीन विधायकों का समर्थन उमर अब्दुल्ला की पार्टी को देने का एलान कर दिया था। चर्चा तो यही है कि सत्तारूढ़ नेशनल कांफ्रेंस के कुछ विधायकों ने ‘क्रास’ मतदान कर भाजपा का साथ दिया। जम्मू कश्मीर से अब तक राज्यसभा में कुल 41 सदस्य पहुंचे हैं। कितनी हैरानी की बात है कि अभी तक एक भी महिला इस राज्य से संसद के ऊपरी सदन में नहीं गई। राज्यसभा का यह चुनाव जम्मू कश्मीर में तीन साल के विलंब से हुआ। यहां कांग्रेस और नैकां का चुनाव पूर्व गठबंधन था। फिर भी कांग्रेस ने सरकार में शिरकत नहीं की। कांग्रेस बेशक उमर सरकार का समर्थन कर रही है। कांग्रेस चाहती थी कि राज्यसभा की एक सीट मिल जाए, पर नैकां ने नहीं दी। रही पीडीपी की बात, तो उसने नैकां का समर्थन इस उम्मीद में किया था कि विधानसभा में नैकां उसके जमीन पर लाए अध्यादेश का समर्थन करेगी। नैकां ने ऐसा नहीं किया। नतीजतन पीडीपी का अध्यादेश खारिज हो गया। पीडीपी के लिए तो यह खुदा ही मिला न विसाले सनम वाली बात हो गई। जम्मू-कश्मीर की राजनीति अभी इतनी उलझी हुई है कि यहां पक्ष और विपक्ष के बीच की रेखा भी उलझ जाती है, फिर समर्थन करने वाले कब पलट जाते हैं पता नहीं चलता है।
कर्पूरी ठाकुर 2.0 होगा कोई ?
देश में उपप्रधानमंत्रियों और उपमुख्यमंत्रियों के प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री बनने के मामले ज्यादा नहीं हैं। बिहार में इस समय मुख्यमंत्री पद की दौड़ में एक उपमुख्यमंत्री और एक पूर्व उपमुख्यमंत्री हैं। भाजपा के सम्राट चौधरी इस समय उपमुख्यमंत्री हैं तो राजद के तेजस्वी यादव पूर्व उपमुख्यमंत्री हैं। दोनों को ही मुख्यमंत्री पद की आस है। अतीत पर गौर करें तो बिहार में उपमुख्यमंत्री तो कई बने पर उपमुख्यमंत्री के बाद मुख्यमंत्री अकेले कपूर्री ठाकुर ही बन पाए। ठाकुर 1967 में महामाया प्रसाद की सरकार में उपमुख्यमंत्री थे। बाद में वे मुख्यमंत्री बन गए। रही उपप्रधानमंत्रियों की बात तो देश में अभी तक सात उपप्रधानमंत्री रहे। पहले सरदार पटेल थे और आखिरी लालकृष्ण आडवाणी। पर दोनों ही प्रधानमंत्री नहीं बन पाए। केवल दो, मोरारजी देसाई और चरण सिंह को ही यह मौका मिल पाया। यशवंतराव चव्हाण, जगजीवन राम और देवीलाल उपप्रधानमंत्री तो बने पर प्रधानमंत्री बनने की उनकी हसरत अधूरी ही रह गई। बिहार में कर्पूरी ठाकुर का इतिहास इस बार उसी सूरत में दोहराया जा सकेगा जब नीतीश मुख्यमंत्री न बन पाएं।
