अयोध्या में जो राम मंदिर बन रहा है उसका इतिहास राजनीति के पन्नों से भरा हुआ है। ऐसा ही एक पन्ना पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी से भी जुड़ा है। राजीव गांधी के प्रधानमंत्री रहते ही ‘बाबरी मस्जिद’ का ताला खोले जाने का आदेश हुआ था।
पत्रकार विजय त्रिवेदी की किताब ‘संघम् शरणम् गच्छामि’ (प्रकाशक: वेस्टलैंड बुक्स) में इस प्रसंग का जिक्र है। इसमें आरिफ मोहम्मद खान के हवाले से लिखा गया है, ‘राजीव गांधी ने मुझे (खान को) बताया कि ताला खोलने से पहले उन्हें (मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के अली मियां और कुछ चुनिंंदा मुस्लिम नेताओं को) बता दिया गया था। यानी डील हुई थी कि इन्हें शाहबानो दे दो और उनके लिए ताला खोल दो। ताला खोलने का क्या मतलब है? 1947 में पंडित नेहरू का खत गया था कि मूर्तियां हटवाइए। तब फैजाबाद के जिलाधीश ने कहा कि मूर्तियांं हटवाएंगे तो खून-खराबा हो जाएगा तो फिर समझिए कि ताला खोलने के बाद क्या स्टेटस बदल जाएगा?
अली मियां और आरिफ मोहम्मद खान कौन?
अली मियां मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड में थे और आरिफ मोहम्मद खान राजीव गांधी सरकार में मंत्री थे। खान बतौर वकील राम मंदिर के मसले पर सुप्रीम कोर्ट में हाजिर भी हुए थे। आजकल मोदी सरकार ने उन्हें केरल का राज्यपाल बनाया हुआ है।
डील के तहत ताला खुलवाने पर अलग दावा
राजीव गांधी के प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) में संयुक्त सचिव रहे वजाहत हबीबुल्लाह ने इस दावे को गलत बताया है। उन्होंने मीडिया से कहा है कि एक फरवरी, 1986 को अयोध्या में ताला खोले जाने की घटना की जानकारी भी राजीव गांधी को नहीं थी। उन्होंने बीबीसी से इंटरव्यू में कहा था: जल्द ही गुजरात दौरे पर जाते हुए मैंने प्रधानमंत्री से बाबरी मस्जिद का ताला खोले जाने की बात उठाई, जिस पर उन्होंने कहा कि उन्हें मामले की जानकारी तो अदालत का आदेश आ जाने के बाद हुई और अरुण नेहरू ने उनसे किसी तरह का कोई सलाह-मशविरा नहीं किया था। अरुण नेहरू गृह राज्य मंत्री थे, जिन्हें राजीव गांधी ने हटा दिया था। वजाहत हबीबुल्लाह के मुताबिक अरुण नेहरू को ताला खोले जाने के संबंध में प्रधानमंत्री से कोई राय-विचार नहीं करने के चलते ही हटाया गया था। उस समय उत्तर प्रदेश में भी कांग्रेस की ही सरकार थी और 1 फरवरी, 1986 को अरुण नेहरू लखनऊ में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह के साथ ही थे।
जिस हिंंदू सम्मेलन में पारित हुआ पहला प्रस्ताव उसमें कांग्रेसी भी थे शामिल
संघ के करीबी माने जाने वाले महाराज विजय कौशल और कुछ लोगों ने हिंंदू जागरण मंच के बैनर तले 6 मार्च, 1983 को उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में विराट हिंंदू सम्मेलन का आयोजन किया, जिसमें पूर्व उप प्रधानमंत्री गुलजारी लाल नंदा, कांग्रेस के बड़े नेता और सरकार में मंत्री रहे दाऊ दयाल खन्ना भी शामिल हुए थे। इसी सम्मेलन में पहली बार राम जन्मभूमि मुक्ति का प्रस्ताव पारित हुआ था।
राजीव गांधी ने 1986 में बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाया था। ‘संघम् शरणम् गच्छामि’ में विजय त्रिवेदी लिखते हैं: राम मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त करने वाला पहला बड़ा प्रयास प्रधानमंत्री राजीव गांधी की वह शातिर चाल थी, जिसके तहत उन्होंने शाहबानो मसले पर अपनी मुस्लिमपरस्त छवि तोड़ने के लिए 1986 में बाबरी मस्जिद के ताले खुलवा कर हिंंदू कार्ड खेला था।
क्या है शाहबानो केस?
शाहबानो केस को मुस्लिम महिलाओं को जरूरी हक दिए जाने के मामले में मील का पत्थर माना जाता है। मोहम्मद अहमद खान बनाम शाह बानो बेगम व अन्य का यह मामला Shah Bano maintenance case के नाम से मशहूर हुआ। अप्रैल, 1978 में 62 साल की तलाकशुदा शाह बानो ने अपने पूर्व पति मोहम्मद अहमद खान से गुजारा भत्ता पाने की मांग करते हुए कोर्ट में अर्जी दाखिल की थी। खान इंदौर के नामी वकील थे। वह काफी समय तक शाह बानो और अपनी दूसरी पत्नी के साथ एक ही घर में रह रहे थे। लेकिन, तीन साल पहले उन्होंने शाह बानो को दूसरे घर में जाने के लिए कह दिया था। उनकी शादी 1932 में हुई थी और उनके तीन बेटे व दो बेटियां थीं।
शाह बानो कोर्ट गईं और खुद व पांच बच्चों के लिए गुजारा भत्ते की मांग की। खान ने मुस्लिम पर्सनल लॉ का हवाला देकर इससे इनकार किया, लेकिन लंबी बहस के बाद 1985 में सुप्रीम कोर्ट से अंतिम फैसला आया जिसमें गुजारा भत्ता देने का हाईकोर्ट का फैसला बहाल रखा गया और कह गया कि आपराधिक संहिता (CrPC), 1973 हर धर्म के लोगों पर लागू होता है।
1986 में राजीव सरकार ने पलटा सुप्रीम कोर्ट का फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में गुजारा भत्ते की रकम भी बढ़ा दी। हालांकि, बाद में शाह बानो ने गुजारा भत्ता मांगने का अपना दावा वापस ले लिया था। उधर, 1986 में राजीव गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने संसद में कानून लाकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दिया।
मंदिर बनाने के लिए पहली याचिका 1885 में
अयोध्या रिविजिटेड किताब के लेखक कुणाल किशोर बताते हैं कि एक दिसंबर, 1858 को अवध के थानेदार शीतल दुबे ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि परिसर में चबूतरा बना है। यह पहला कानूनी दस्तावेज है, जिसमें परिसर के अंदर राम के प्रतीक होने के प्रमाण हैं। इस घटना के 27 साल बाद मामला अदालत पहुंच गया। उस वक्त महंत रघुबर दास ने फैजाबाद डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में रामजनमभूमि पर मंदिर बनाने के लिए याचिका लगाई। कोर्ट ने उनकी याचिका रद कर दी। 1886 में फैसले के खिलाफ अपील हुई, लेकिन याचिका फिर रद हो गई।
1949 में लगा था ताला
1949 में 22-23 दिसंबर की दरम्यानी रात विवादित स्थल पर रामलला की मूर्ति रखी गई। इस मामले में 23 दिसंबर को एफआईआर हुई। परिसर के गेट पर ताला लगा दिया गया। 1950 में मामला एक बार फिर अदालत पहुंचा और 2019 में नौ नवंबर को यह कानूनी लड़ाई अंजाम तक पहुंची।