कॉलेजियम सिस्टम से पहले न्यायिक नियुक्तियों में सरकार का प्रत्यक्ष हस्तक्षेप हुआ करता था। कई बार यह हस्तक्षेप इतना बढ़ जाता था कि सरकार जजों की पसंद/नापसंद तक को नियंत्रित करना चाहती थी। इंदिरा गांधी द्वारा लगाए आपातकाल के बाद बनी देश की पहली गैर-कांग्रेसी सरकार का नेतृत्व कर रहे प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने तो जजों से एक विवादित अंडरटेकिंग पर हस्ताक्षर कराने का मन बना लिया था।

शराब न पीने का शपथ पत्र

अपने कार्यकाल के दौरान प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने न्यायाधीशों पर दबाव बनाया था कि सभी एक शपथ पत्र पर हस्ताक्षर करें, जिसके मुताबिक जज रहते कोई शराब का सेवन नहीं करेंगा। हालांकि जज इसके लिए राजी नहीं हुए।

प्रधानमंत्री देसाई ने अपने कार्यकाल में इस तरह के कई फैसले लिए। उन्होंने देश में कोका-कोला पर प्रतिबंध लगा दिया था। उन्हें अपने विशिष्ट राजनीतिक करियर के अलावा, बड़े फैसलों और व्यक्तिगत आदतों के लिए भी जाने जाते थे। उनकी एक अनोखी जीवनशैली थी।

वह एक शाकाहारी व्यक्ति थे। उनके आहार में फल, दूध और प्रसिद्ध रूप से उनका अपना मूत्र भी शामिल था। एबीसी न्यूज की पत्रकार बारबरा वाल्टर्स को दिए इंटरव्यू में उन्होंने स्वमूत्रपान को सभी बीमारियों का इलाज बताया था। उन्होंने अपनी लंबी उम्र का श्रेय हर दिन कम से कम दो बार मूत्र पीने को दिया, जिसे वे ‘जीवन का जल’ कहते थे।

जजों की नियुक्ति और प्राइवेसी का मुद्दा

जजों की नियुक्ति से पहले उम्मीदवारों का बैकग्राउंड चेक किया जाता है। पिछले दिनों समलैंगिक वकील सौरभ कृपाल को दिल्ली हाई कोर्ट में जज नियुक्ति करने के विवाद के बीच यह सार्वजनिक भी हुआ कि सरकार उम्मीदवारों की जांच रॉ और आईबी जैसी खुफिया एजेंसी से कराती है। पहले की सरकारें भी यह करती रही हैं।

बॉम्बे हाईकोर्ट के वकील और वर्तमान CJI (भारत के मुख्य न्यायाधीश) डीवाई चंद्रचूड़ के बेटे अभिनव चंद्रचूड़ ने अपनी किताब ‘Supreme Whispers’ में चर्चा की है कि कैसे यह बैकग्राउंड चेक प्राइवेसी के उल्लंघन तक पहुंच जाती है। वह लिखते हैं, कुछ स्तर पर किसी को आश्चर्य होता है कि क्या खुफिया जानकारी एकत्र करने वाली संस्थाओं को यह भी पता लगाने का काम सौंपना चाहिए कि न्यायिक उम्मीदवार का विवाहेतर संबंध है या नहीं, वह अत्यधिक शराब का सेवन करता है या नहीं?

अभिनव चंद्रचूड़ आगे लिखते हैं, “यह निश्चित रूप से उस न्यायाधीश की प्राइवेसी में घुसपैठ की तरह प्रतीत होता है। यह संदेहास्पद है कि क्या एक न्यायाधीश अपने निजी जीवन में जो कुछ करता है उससे किसी को कोई मतलब होना चाहिए, यदि यह उसके आधिकारिक काम को प्रभावित नहीं करता है।”

क्यों जरूरी निजी जानकारी जुटाना?

इस चर्चा को आगे बढ़ाते हुए अभिनव चंद्रचूड़ लिखते हैं, “दूसरी ओर कोई यह कह सकता है कि जिस न्यायाधीश का विवाहेतर संबंध है, उसे इस कारण ब्लैकमेल किया जा सकता है और इसलिए उसे सर्वोच्च न्यायालय से दूर रखना ही बेहतर है।” मुख्य न्यायाधीश हिदायतुल्ला ने कलकत्ता उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को सर्वोच्च न्यायालय में केवल इसलिए नियुक्त नहीं किया क्योंकि उन्हें कैंसर था।

ऐसे उम्मीदवारों का नाम अस्वीकार कर सकते हैं CM

1960 के दशक के अंत की बात है। आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस जगनमोहन रेड्डी ने राज्य के मुख्यमंत्री को बताया कि उच्च न्यायालय में जजों की नियुक्ति के लिए नाम का सुझाव वह खुद देंगे। हालांकि मुख्य न्यायाधीश ने उन्हें यह भी स्पष्ट कर दिया कि मुख्यमंत्री उन उम्मीदवारों के नाम अस्वीकार भी कर सकते हैं, जिनका कई महिलाओं के साथ संबंध हो, नशे या भ्रष्टाचार आदि में लिप्त हों।