साल 1973 की बात है। सुप्रीम कोर्ट के तीन सीनियर जजों को दरकिनार कर जस्टिस अजीत नाथ रे (Justice A.N. Ray) को मुख्य न्यायाधीश का पद ऑफर किया गया। उनके पास इस ऑफर को स्वीकार या अस्वीकार करने के लिए कथित रूप से दो घंटे का समय था। उन्होंने 120 मिनट में फैसला लिया और अगले करीब चार साल (तीन साल 276 दिन) भारत के मुख्य न्यायाधीश के पद पर रहे।
उनकी नियुक्ति को लेकर तब बड़ा बवाल हुआ था। विवाद की गंभीरता को इस बात से समझा जा सकता है कि उसका अब तक जिक्र कई किताबों में आ चुका है। सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठतम न्यायाधीश को CJI के रूप में नियुक्त करने की परंपरा रही है। लेकिन आजाद भारत में पहली बार वर्ष 1973 में ए.एन. रे की नियुक्ति के लिए इस परंपरा का उल्लंघन किया गया था।
तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार ने जस्टिस रे की नियुक्ति, शीर्ष अदालत के तीन वरिष्ठ जजों जस्टिस जयशंकर मणिलाल शेलत, के. एस. हेगड़े और ए. एन. ग्रोवर की अनदेखी कर की थी। इस घटना को न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर हमले के रूप में देखा गया था।
CJI के पोते ने किताब में बताया
भारत के 16वें मुख्य न्यायाधीश वाई.वी. चंद्रचूड़ के पोते और वर्तमान सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ के बेटे अभिनव चंद्रचूड़ ने अपनी किताब ‘सुप्रीम व्हिस्पर्स’ में बताया है कि अपनी नियुक्ति के बारे में जस्टिस अजीत नाथ रे (A. N. Ray) ने कहा था, “अगर मैं पद स्वीकार नहीं करता, तो किसी और को ऑफर किया जाता है।”
जस्टिस रे की नियुक्ति केशवानंद भारती मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले (24 अप्रैल, 1973) के दिन बाद 26 अप्रैल, 1973 को हुई थी। केशवानंद भारती मामले में 13 जजों की संविधान पीठ ने 7-6 के मत से निर्णय दिया था कि संसद संविधान के मूल ढांचे में बदलाव या हस्तक्षेप नहीं कर सकती है।
यह फैसला इंदिरा गांधी सरकार के लिए झटका था। 7 जज फैसले के पक्ष और 6 विपक्ष में थे। जस्टिस रे छह असंतुष्ट जजों में शामिल थे, जबकि जस्टिस शेलत, जस्टिस हेगड़े और जस्टिस ग्रोवर फैसले का समर्थन करने वाले 7 जजों में शामिल थे। इन तीन जजों ने कई और मामलों में भी इंदिरा गांधी सरकार के खिलाफ फैसला सुनाया था।
CJI नहीं बन सकते थे जस्टिस रे!
जब यह फैसला सुनाया गया तब सुप्रीम कोर्ट के सीजेआई जस्टिस सर्व मित्र सीकरी थे। 25 अप्रैल, 1973 को उनके रिटायरमेंट के बाद वरिष्ठता के मुताबिक, जस्टिल शेलत को यह पद मिलना था। वह जुलाई 1973 में रिटायर होते, जिसके बाद हेगड़े पद संभालते, फिर जून 1974 में इस पद पर जस्टिस ग्रोवर को आना था। वह फरवरी 1977 तक सीजेआई रहते।
अगर वरिष्ठता की परंपरा का पालन होता तो जस्टिस ए.एन. रे कभी सीजेआई नहीं बना पाते क्योंकि जस्टिस ग्रोवर के रिटायर होने से एक माह पहले ही जनवरी 1977 में जस्टिस रे सुप्रीम कोर्ट से रिटायर हो जाते।
सब कुछ पहले से तय था?
अभिनव चंद्रचूड़ की किताब के मुताबिक, जस्टिस हेगड़े और पी जगनमोहन रेड्डी ने जस्टिस रे की नियुक्ति को चुनौती दी थी, उन्होंने कहा था कि रे को बहुत पहले से पता था कि वह जस्टिस सर्व मित्र सीकरी के बाद पदभार ग्रहण करेंगे।
किताब में दावा किया गया है, “दरअसल, नियुक्ति से एक हफ्ते पहले रूसी राजदूत के लिए आयोजित एक रात्रिभोज में, पी जगनमोहन रेड्डी और उनकी पत्नी ने इस्पात मंत्री मोहन कुमारमंगलम को जस्टिस रे को CJI बनने की बधाई देते हुए सुना था।”
इंदिरा गांधी के बहुत काम आए रे!
सीजेआई बनने के बाद जस्टिस रे ने केशवानंद भारती मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले की समीक्षा के लिए एक खंडपीठ का गठन कर दिया था। इसे बाद में भंग करना पड़ा था। इतना ही नहीं, इंदिरा गांधी द्वारा लगाए इमरजेंसी के समय संविधान के अनुच्छेद 14, 21 और 22 के तहत मिले नागरिक अधिकारों (व्यक्तिगत स्वतंत्रता व अदालत में अपील का अधिकार) को निलंबित करने का फैसला भी जस्टिस रे की खंडपीठ ने ही किया था।