अलिंद चौहान
पाकिस्तान में संसदीय चुनाव के लिए 8 फरवरी को हुए मतदान की गिनती आज (9 फरवरी) जारी है। देश की 44 राजनीतिक दलों ने 266 सीटों पर चुनाव लड़ा है। आजादी के 77 बाद यह पाकिस्तान का 12वां आम चुनाव है।
पाकिस्तान का राजनीतिक इतिहास उथल-पुथल से भरा है। पाकिस्तान में तीन संविधान है। तीन सैन्य तख्तापलट हुए हैं और 30 प्रधानमंत्री बन चुके हैं, लेकिन किसी ने भी पांच साल का कार्यकाल पूरा नहीं किया है।
दो साल में तीन प्रधानमंत्री, फिर अनिश्चित काल के लिए आम चुनाव पर रोक
भारत के उलट, पाकिस्तान में संविधान के निर्माण और पहले आम चुनाव में बहुत देरी हुई। एक लोकतांत्रिक राष्ट्र के निर्माण के लिए ये दोनों ही प्रक्रियाएं महत्वपूर्ण होती हैं।
Encyclopedia of Asian History के लिए आयशा जलाल के रिसर्च पर आधारित और एक NGO एशिया सोसाइटी द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट ‘पाकिस्तान: ए पॉलिटिकल हिस्ट्री’ के मुताबिक, संविधान निर्माण और आम चुनाव में देरी के पीछे कई कारण थे। ऐसा बड़े पैमाने पर ‘राष्ट्रीय भाषा, इस्लाम की भूमिका, प्रांतीय प्रतिनिधित्व और केंद्र और प्रांतों के बीच सत्ता वितरण’ जैसे मुद्दों पर बहस के कारण हुआ।
बहुत मुश्किल से मार्च 1956 में पाकिस्तान का पहला संविधान लागू हुआ था। हालांकि इसके बाद भी अस्थिरता बनी रही थी। 1956 और 1958 के बीच, तीन अलग-अलग राजनीतिक दलों (अवामी लीग, मुस्लिम लीग और रिपब्लिकन पार्टी) से तीन प्रधानमंत्री, हुसैन शहीद सुहरावर्दी, इब्राहिम इस्माइल चुंदरीगर और फ़िरोज़ खान नून सत्ता में आए। अराजकता के कारण अंततः जनरल मोहम्मद अयूब खान को सैन्य तख्तापलट करना पड़ा और फरवरी 1959 में होने वाले राष्ट्रीय चुनावों को अनिश्चित काल के लिए रोक दिया गया।
सैन्य शासन को कमजोर होने में एक दशक से अधिक समय लग गया और इसके तीन मुख्य कारण थे: 1965 के युद्ध में भारत के खिलाफ देश की हार, पश्चिमी पाकिस्तान में अशांति और पूर्वी पाकिस्तान में बंगाली राष्ट्रवाद का उदय। परिणामस्वरूप, 1970 में पहला आम चुनाव हुआ।
बांग्लादेश, भुट्टो, और मार्शल लॉ की वापसी
1970 के राष्ट्रीय चुनावों ने देश में बढ़ते क्षेत्रवाद और सामाजिक संघर्ष को उजागर किया। बलूचिस्तान और उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत में हार के बावजूद, ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो के नेतृत्व वाली पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी 81 सीटें जीतकर पश्चिमी पाकिस्तान में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी।
पूर्वी पाकिस्तान में शेख मुजीबुर्रहमान के नेतृत्व वाली अवामी लीग ने प्रांत की 162 में से 160 सीटें जीतीं। उन्होंने चुनाव के दौरान प्रांतीय स्वायत्तता के छह सूत्री कार्यक्रम के लिए अभियान चलाया था।
एशिया सोसाइटी की रिपोर्ट के अनुसार, “अवामी लीग की सरकार की संभावना पश्चिमी पाकिस्तान के राजनेताओं के लिए खतरा थी, उन्होंने सैन्य नेतृत्व के साथ साजिश रचकर मुजीबुर्रहमान को सत्ता की बागडोर संभालने से रोका दिया। यह कदम पूर्वी पाकिस्तान के लिए निर्णायक साबित हुआ। पहले से ही सरकार में सभी क्षेत्रों में अपने कम प्रतिनिधित्व और आर्थिक बदहाली का मुद्दा उबाल मार रहा था। अब उसमें लोकतांत्रिक प्रक्रिया के दमन का मामला भी शामिल हो गया।” मार्च 1971 में पूर्वी पाकिस्तान में विद्रोह हुआ, जिसके परिणामस्वरूप भारत के साथ एक और युद्ध हुआ और बांग्लादेश की स्थापना हुई।
पाकिस्तान की सेना की करारी हार ने भुट्टो को देश को एक नई दिशा में ले जाने का मौका दिया। हालांकि, वह कोई महत्वपूर्ण परिवर्तन लाने में विफल रहे। उदाहरण के लिए भुट्टो की भूमि सुधार योजनाएं पर्याप्त महत्वाकांक्षी नहीं थीं, उनकी श्रम नीति दमनकारी थी और उनकी आर्थिक नीतियां अव्यवस्थित थीं।
विशेष रूप से उन्होंने अपने विरोधियों को कुचलने के लिए सेना और नौकरशाही की मदद ली। इस तरह पीपीपी ने जनता के समर्थन वाली राष्ट्रीय पार्टी बनने की कोशिश नहीं की।
1977 के आम चुनाव के बाद स्थिति और खराब हो गई। पीपीपी ने अपने प्रतिद्वंद्वी पाकिस्तान नेशनल अलायंस (पीएनए) के खिलाफ चुनाव जीता। पीएनए नौ राजनीतिक दलों का गठबंधन था, जिसमें इस्मालिस्ट और रूढ़िवादियों का वर्चस्व था।
आम चुनाव में जहां भुट्टो की पार्टी को कुल 200 सीटों में से 155 सीटें और 58.6% वोट मिली, वहीं पीएनए को 35.8% वोट और सिर्फ 36 सीटें मिलीं। पीएनए ने आरोप लगाया कि चुनाव में धांधली हुई और अराजकता फैल गई।
भुट्टो ने मार्शल लॉ लगाया और विपक्षी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया। इससे जनरल जिया-उल हक को सत्ता पर कब्जा करने का मौका मिल गया और 5 जुलाई, 1977 को पाकिस्तान में दूसरा सैन्य तख्तापलट हुआ।
सेना एक कदम पीछे हटती है, लेकिन नियंत्रण नहीं छोड़ती
अगला आम चुनाव 1985 में हुआ, लेकिन किसी भी राजनीतिक दल को भाग लेने की अनुमति नहीं दी गई। प्रत्येक उम्मीदवार ने अपने व्यक्तिगत नाम पर चुनाव लड़ा। ज़िया ने सोचा कि इससे उन्हें एक लोकप्रिय समर्थन आधार बनाने में मदद मिलेगी और राजनीतिक दलों के प्रभाव के बिना संसद को नियंत्रित करना आसान होगा।
प्रतिबंधों के बावजूद, चुनाव दो मुख्य कारणों से पाकिस्तान के लिए परिणामी महत्वपूर्ण साबित हुए। एक, चुनाव परिणामों के बाद निर्वाचित संसद को राजनीतिक दल बनाने की अनुमति दी गई, जिसने दो-दलीय संसदीय प्रणाली को जन्म दिया।
दो, पाकिस्तानी सेना को एहसास हुआ कि देश में राजनीति पर नियंत्रण के लिए हर बार तख्तापलट करने की जरूरत नहीं है। अखबार ने कहा, “ऐसा लगता है कि वे इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि ‘निगरानी’ अधिपत्य से बेहतर है।”
इसे सुनिश्चित करने के लिए, ज़िया ने 1973 के संविधान में संशोधन किया और देश के शासन को संसदीय लोकतंत्र से अर्ध-राष्ट्रपति प्रणाली में बदल दिया। 8वें संशोधन ने उन्हें और अधिक शक्तियाँ दीं, जिनमें प्रधानमंत्री की निर्वाचित सरकार को हटाने की शक्ति भी शामिल थी।
इसके अलावा, सेना ने चुनाव परिणामों को अपने पसंदीदा के पक्ष में झुकाने के लिए इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस (आईएसआई) के राजनीतिक सेल का इस्तेमाल किया। उदाहरण के लिए, 1988 के चुनावों से ठीक पहले आईएसआई ने पीएमएल के नेतृत्व में इस्लामी जम्हूरी इत्तेहाद (आईजेआई) गठबंधन का निर्माण किया, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि बेनज़ीर भुट्टो के नेतृत्व वाली पीपीपी को बहुमत न मिले। यह काम एक विमान दुर्घटना में ज़िया की मौत के महीनों बाद किया गया था।
1990 के चुनावों में कथित भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद के लिए बेनज़ीर को राष्ट्रपति द्वारा बर्खास्त किए जाने के बाद – सेना के निर्देश पर आईएसआई ने आईजेआई को चुनाव जीतने में मदद करने के लिए उसके नेताओं के बीच पैसे बांटे। सेना की ‘निगरानी’ के कारण नवाज शरीफ पहली बार पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बने।
तानाशाही की वापसी
सेना ने सबसे लंबे समय तक चुनावों में नवाज़ शरीफ़ का समर्थन किया, लेकिन जब वह एक जन नेता बनने लगे तो रिश्तों में दरार आ गई। रिपोर्ट के अनुसार, प्रधानमंत्री के रूप में, नवाज़ ने एक “लोकप्रिय एजेंडा और एक लोकलुभावन छवि” को सामने रखा, और “आर्थिक विकास प्रदान करने वाले दूरदर्शी व्यक्ति के रूप में अपनी छवि को बढ़ावा देने” के लिए टेलीविजन का उपयोग किया।
इसीलिए 1993 के चुनाव में सेना ने बेनजीर को शीर्ष पद दिलाने में मदद की। लेकिन चार साल बाद (1997) हुए अगले चुनाव में वे नवाज़ को रोकने में असफल रहे, क्योंकि उनकी पार्टी पीएमएल-एन को 46% वोट और कुल सीटों में से 136 सीटें मिलीं – पीपीपी को सिर्फ 18 सीटें मिलीं।
जैसे ही निगरानी प्रणाली चरमराई, सेना ने फिर तख्तापलट की योजना बनाई। 1999 में एक बार फिर तख्तापलट कर दिया। इस बार जनरल परवेज़ मुशर्रफ ने सत्ता पर कब्ज़ा किया। सेना प्रमुख के रूप में मुशर्रफ ने भारत के खिलाफ 1999 के कारगिल युद्ध की योजना बनाई थी। हालांकि, उन्हें बहुत ही बुरी हार का सामना करना पड़ा था।
लोकतंत्र पर एक और प्रहार
अगला आम चुनाव 2002 में हुआ – तख्तापलट के तीन साल बाद और मुशर्रफ द्वारा खुद को राष्ट्रपति घोषित करने के एक साल बाद (तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मुलाकात से पहले)। सत्ता पर अपनी पकड़ बनाए रखने के लिए मुशर्रफ ने पीएमएल के एक और गुट की स्थापना की, जिसे पीएमएल-क्यू के नाम से जाना जाता है। मुशर्रफ ने इसे असली मुस्लिम लीग के रूप में प्रचारित किया।
हालांकि उनकी योजनाएं सफल नहीं हुई क्योंकि पीएमएल-क्यू को बहुमत नहीं मिला। इसलिए, राष्ट्रपति ने तब निर्वाचित पीपीपी प्रतिनिधियों के बीच फूट पैदा की और केंद्र में एक सैन्य सरकार स्थापित करने के लिए पीपीपी-पैट्रियट समूह का गठन किया।
2008 में देश में सेना के दमन की आलोचना करने के लिए सुप्रीम कोर्ट और विशेष रूप से मुख्य न्यायाधीश इफ्तिखार चौधरी के साथ टकराव के बाद मुशर्रफ को पद छोड़ना पड़ा। क्रिस्टोफ़ जाफ़रलॉट की ‘द पाकिस्तान पैराडॉक्स: इंस्टैबिलिटी एंड रेजिलिएंस’ के अनुसार, राष्ट्रपति ने मुख्य न्यायाधीश को हटाने की कोशिश की। 3 नवंबर, 2007 को मुशर्रफ ने आपातकाल की घोषणा की लेकिन अन्य देशों के विरोध और दबाव के कारण उन्हें आम चुनाव की घोषणा करनी पड़ी।
हालांकि, चुनावों में देरी हुई क्योंकि 27 दिसंबर, 2007 को बेनजीर की हत्या कर दी गई थी – मुशर्रफ पर उनकी हत्या कराने का आरोप लगाया गया था और बाद में उन्हें उनकी हत्या के लिए मुकदमे का सामना करना पड़ा।
2008 के आम चुनावों में पीपीपी को सबसे अधिक सीटें मिलीं और उसके बाद मुशर्रफ की पीएमएल-क्यू थी। पीपीपी ने पीएमएल-एन के साथ गठबंधन में सरकार बनाई। जहां पीपीपी के यूसुफ रजा गिलानी प्रधानमंत्री बने, वहीं बेनजीर के पति आसिफ अली जरदारी को राष्ट्रपति चुना गया। इस बीच, मुशर्रफ को अगस्त 2008 में इस्तीफा देना पड़ा और लंदन के लिए रवाना होना पड़ा।
2013 के चुनावों ने पाकिस्तान को खुश होने का एक कारण दिया – यह पहली बार हुआ कि एक लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई सरकार अपना कार्यकाल पूरा करने और अगले निर्वाचित व्यक्ति को सत्ता की बागडोर सौंपने में सक्षम थी।
ये चुनाव इसलिए भी महत्वपूर्ण थे क्योंकि इनमें क्रिकेटर से नेता बने इमरान खान की पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ का उदय देखा गया । लेकिन नवाज शरीफ की पार्टी सभी पर भारी पड़ी। नेशनल असेंबली की कुल 272 सीटों में से, पीएमएल-एन ने 126 सीटें जीतीं। शुरुआत में उसके पास बहुमत नहीं था, लेकिन निर्दलीय सांसदों के पार्टी में शामिल होने के बाद उन्होंने सरकार बना ली।
फिर एक्टिवेट हुए सेना के तंत्र
पाकिस्तानी राजनीति में सेना का हस्तक्षेप फिर से सुर्खियों में आया जब 2017 में नवाज शरीफ को सत्ता से बेदखल कर दिया गया। सुप्रीम कोर्ट ने पनामा पेपर्स मामले में उन्हें जीवन भर के लिए सार्वजनिक पद संभालने से बर्खास्त कर दिया। नवाज ने आरोप लगाया कि सेना ने ‘न्यायिक तख्तापलट’ के जरिए उनसे छुटकारा पा लिया है। पीएमएल-एन प्रमुख की विदेश और सुरक्षा नीति को चुनौती देने के कारण सेना से मतभेद हो गए थे।
2018 के चुनावों से पहले, पाकिस्तान की सेना ने पीएमएल-एन के वोट छीनने के लिए नई पार्टियों को खड़ा किया। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इसने पीटीआई के इमरान का समर्थन किया, जिन्हें तब सेना का “लाडला” कहा जाता था। इसके बाद यह आश्चर्य की बात नहीं है कि पीटीआई ने सबसे ज्यादा सीटें जीतीं और सरकार बनाई।
लेकिन इमरान ज्यादा दिनों तक “लाडला” नहीं बने रहे। नवाज़ की तरह, उनका भी सेना से मतभेद हो गया और अप्रैल 2022 में उन्हें सरकार से हटा दिया गया। वह वर्तमान में भ्रष्टाचार, देशद्रोह आदि के आरोप में जेल में हैं और उन्हें आगामी चुनाव लड़ने से रोक दिया गया है। इसके विपरीत, नवाज़ सेना की गुड बुक में वापस आते दिख रहे हैं – वह पिछले साल स्व-निर्वासित निर्वासन से पाकिस्तान लौट आए और उन्हें चुनाव में भाग लेने की अनुमति दी गई।