समय के साथ महाराष्ट्र का राजनीतिक संकट गहराता जा रहा है। शिवसेना के बागी एकनाथ शिंदे अब निर्दलीय समेत 45 विधायकों के समर्थन का दावा कर रहे हैं। सत्ताधारी महाविकास अघाड़ी (MVA) गठबंधन के टूटने से लेकर शिवसेना के बिखरने तक का खतरा बताया जा रहा है। हालांकि ये कोई पहला मौका नहीं है जब शिवसेना के अपने ही नेताओं ने बगावत कर दी हो। पार्टी को ऐसे कई बगावतों का अनुभव है। पिछली बगावतों की तरह इस बगावत को अंजाम देने वाला भी एक कट्टर शिवसैनिक ही हैं। आइए जानते हैं उन तीन बगावतों के बारे जिसने शिवसेना को संकट में डाल दिया था।
- मंडल के प्रभाव में ओबीसी नेता ने शिवसेना से कर दिया विद्रोह : 60 का दशका था। एक ओबीसी लड़का बाल ठाकरे का एक भाषण से इतना प्रभावित हुआ कि शिव सैनिक बन गया। कार्यकर्ता के तौर पर राजनीति में करियर की शुरुआत की। 1973 में देश की सबसे समृद्ध मुंबई महानगर पालिका चुनाव लड़ा और नगरसेवक बना। छोटी-छोटी सीढ़ी चढ़ता हुआ पार्टी और पार्टी प्रमुख का खास बन गया। ये छगन भुजबल थे। महाराष्ट्र की राजनीति के दबंग ओबीसी नेता। 1985 के विधानसभा चुनाव में शिवसेना सबसे बड़ी विपक्षी दल के रूप में उभरी। छगन भुजबल ने अपने लिए नेता प्रतिपक्ष की सीट पक्की समझी लेकिन बाल ठाकरे ने मनोहर जोशी को ये पद दे दिया। भुजबल को शहर की राजनीति तक सीमित करने के लिए मुंबई का मेयर बना दिया गया।
केंद्र में राष्ट्रीय मोर्चा की गठबंधन सरकार ने मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करते हुए पिछड़ा वर्ग को आरक्षण देना तय किया। गठबंधन की सहयोगी भाजपा ने इसका समर्थन किया। राज्य में शिवसेना और भाजपा का गठबंधन था लेकिन शिवसेना ने ओबीसी आरक्षण का विरोध किया। छगन भुजबल ने इसका विरोध किया। मनोहर जोशी के खिलाफ कड़ा बयान भी दिया। बाल ठाकरे ने सुलह की कोशिश की लेकिन हालात बिगड़ते चले गए। फिर एक दिन शिवसेना के 52 विधायकों में से 18 को साथ लेकर भुजबल ने पार्टी से विद्रोह कर दिया। अलग गुट बनाया शिवसेना-बी। बाद में ये सभी कांग्रेस में शामिल हो गए। इस तरह छगन भुजबल वो पहले शिव सैनिक बनें, जिसने शिवसेना में चीरा लगाया।
- उद्धव का उद्भव नारायण को न भाया : साल 2002 के आस-पास बाल ठाकरे के उद्धव की राजनीति में एंट्री होती है। शिवसेना में इनके लिए माहौल बनाया जाता है। पहले विधानसभा चुनाव का प्रभारी, फिर कार्यकारी अध्यक्ष। ये बदलाव पुराने शिव सैनिक नारायण राणे को बिल्कुल हजम नहीं हो रही थी। राणे 16 साल की उम्र से शिवसेना में थे। राणे शिवसेना से कॉरपोरेटर, विधायक, नेता प्रतिपक्ष, मंत्री और मुख्यमंत्री तक बन चुके थे। बाल ठाकरे के बाद दूसरे नंबर पर नारायण राणे की गिनती होती थी। लेकिन उन्हें उद्धव नेतृत्व स्वीकार न था। साल 2005 में राणे ने शिवसेना के 10 विधायकों के साथ पार्टी छोड़ दी और 3 जुलाई 2005 को कांग्रेस में शामिल हो गए। 2017 में राणे ने कांग्रेस भी छोड़ दिया और ‘महाराष्ट्र स्वाभिमान पक्ष’ का गठन किया। बाद में भाजपा में शामिल हो गए। फिलहाल केंद्र की मोदी सरकार के मंत्रिमंडल में हैं।
- जब परिवार के भीतर से हुई बगावत : शिवसेना को सबसे बड़ा झटका ठाकरे परिवार के भीतर से मिला। कभी बाल ठाकरे के भतीजे राज ठाकरे को महाराष्ट्र की राजनीति का चढ़ता सूरज माना जा रहा था। बाल ठाकरे के बाद शिवसेना का भविष्य राज ठाकरे में देखा जा रहा था। राज बाल ठाकरे की परछाई की तरह थे। उनकी ही तरह पहनावा, बातचीत और भाषण शैली भी। लेकिन जब उत्तराधिकारी चुनने का मौका आया तो बाल ठाकरे ने राज ठाकरे को किनारे कर उद्धव को आगे किया। पार्टी में जैसे-जैसे उद्धव का पद बढ़ने लगा, राज ठाकरे पर्दे के पीछे धकेले जाने लगे। फिर आया जनवरी 2006. राज ठाकरे बड़ी संख्या में शिवसेना कार्यकर्ताओं के साथ पार्टी से अलग हो गए। मार्च 2006 में उन्होंने अपनी पार्टी बनाई, नाम रखा- महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना
