25 जून, 1975 की तारीख आज भी सिनेमा की तरह आंखों के सामने घूमने लगती है। वही तारीख जिस दिन इंदिरा गांधी की कांग्रेस सरकार द्वारा देश में आपातकाल की घोषणा की गई थी।

चारों तरफ खौफनाक सन्नाटा पसरा था। तरह-तरह की बातें सुनने को मिलने लगी थीं। लोग सहमे हुए थे। उसी दिन मेरे एक निकट सम्बन्धी, जो संसद सदस्य रहे थे, मेरे घर आए थे। उनका कहना यह था कि शुक्र है रास्ते में मेरी गिरफ्तारी नहीं हुई, लेकिन जैसे ही मैं अपने घर के लिए निकलूंगा, हो सकता है मुझे रास्ते में ही गिरफ्तार कर लिया जाए।

पूछने पर उन्होंने बताया था कि वर्तमान केंद्र सरकार द्वारा देश में आपातकाल लगा दिया गया है और लोकनायक जयप्रकाश नारायण जी को गिरफ्तार कर लिया गया है। चूंकि वह संसद सदस्य रह चुके थे और विपक्ष की सक्रिय राजनीति में थे, इसलिए उनके गांव आने की जानकारी मिलते ही पूरा गांव मिलने और हाल-चाल पूछने जुट गया कि आखिर यह आपातकाल होता क्या है और इसे लगाया क्यों जाता है?

किसे है राष्ट्रीय आपातकाल लगाने का अधिकार?

उन्होंने समझाया कि यदि युद्ध, बाहरी आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह के कारण देश की सुरक्षा को खतरा हो, तो राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा की जा सकती है। राष्ट्रपति के पास मंत्रिपरिषद की लिखित अनुशंसा प्राप्त होने पर राष्ट्रीय आपातकाल लगाने का अधिकार है, लेकिन उद्घोषणा को एक महीने के भीतर संसद के दोनों सदनों द्वारा अनुमोदित किया जाना चाहिए। इसे देश की रक्षा के लिए लगाया जाता है। जो आपातकाल देश में आज लगाया गया है, उसे घोषित आपातकाल कहते हैं।

19 महीने जेल में बंद रहे शिवचंद्र झा

उनसे मिलने आए सभी लोग सन्न रह गए। शाम को उनकी वापसी की ट्रेन थी। जैसे ही सुबह वह अपने गंतव्य स्टेशन पर पहुंचे, पहले से उपस्थित पुलिस टीम ने उन्हें स्टेशन पर ही गिरफ्तार कर लिया था। उन पूर्व संसद सदस्‍य का नाम शिवचंद्र झा था और वे बिहार के मधुबनी से संसद सदस्य रहे थे। फिर 19 महीने, अर्थात पूरे आपातकाल में जेल ही में बंद रहे।

अखबारों ने किया सेंसरश‍िप का व‍िरोध

अखबारों ने अपना संपादकीय पृष्‍ठ खाली छोड़ कर इस आपातकाल में सेंसरश‍िप का व‍िरोध जताया था। तत्कालीन कांग्रेस सरकार का आजादी के बाद का यह सबसे निराशाजनक निर्णय था, जिसका उत्तर जनता ने 1977 के लोकसभा चुनाव में विपक्षी गठबंधन की सरकार को अपना वोट देकर और कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करके दिया था।

क्या आज देश में है अघोषित आपातकाल?

वर्ष 1975 का वह घोषित आपातकाल था, लेक‍िन क्या आपको नहीं लगता कि आज देश में वर्तमान सरकार द्वारा अघोषित आपातकाल लगा दिया गया है? वह दौर बड़ा कठिन था, जब विपक्ष को केवल इसलिए जेल में डाल दिया जाता था कि आप सरकार की तानाशाही का विरोध करते हैं, लेकिन अघोषित आपातकाल में आप यह महसूस नहीं कर रहे हैं, जैसा कि आपातकाल में हुआ था?

तब और अब के समय में अंतर यह है कि उस समय कांग्रेस का मीडिया प्रबंधन वैसा नहीं था। न सोशल मीडिया न इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का ऐसा दौर था। उस समय केवल प्रिंट और रेडियो ही समाचार जानने के माध्‍यम हुआ करते थे।

आज सरकार के प्रभाव में हैं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और प्रिंट मीडिया

रेडियो सरकार का था, इसलिए उसे मैनेज करने में कोई परेशानी नहीं थी, लेकिन प्रिंट मीडिया पर कड़ाई के मकसद से निगरानी सेल का गठन कर दिया गया था, जिसका काम जनता को भ्रमित करने वाले समाचारों को सुनना और प्रसारित कराना होता था। लेकिन, आज इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और प्रिंट मीडिया सरकार के प्रभाव में आकर उसकी प्रशंसा करते नहीं अघा रहे हैं और विपक्ष के साथ इस तरह का व्यवहार कर रहे हैं, जैसे सत्ता वही चला रहे हों और देश में जो भी कमी है, मसलन— गरीबी, बेरोजगारी उसकी सारी जिम्मेदारी विपक्षियों की ही हो।

यह बड़ा हास्यास्पद लगता है, जब इस बात को आप अपनी आंखों के सामने देखते हैं और कानों से सुनते हैं कि यह समाचार आपको गलत सुनाया, दिखाया अथवा पढ़ाया जा रहा है, फिर भी आप उस पर विश्वास करने के लिए विवश हो जाते हैं। आप जानते हैं कि ऐसा आपके साथ क्यों होता है? दरअसल, ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि मनोवैज्ञानिक प्रवाह के जरिये आपके विचारों को बुरी तरह रौंद दिया गया है और वह अपने मन से जो दिखाना और पढ़ाना चाहते हैं, आप वैसा ही महसूस करने लगते हैं।

जनता का गुबार 1977 के चुनाव में निकला

आपातकाल के दौरान लागू की गई कड़ाई या बुराई कुछ लोगों को अच्छा लगने लगा था, लेकिन जनता का गुबार 1977 के चुनाव में निकला। फिर तब की बुराइयों से आज तक उबर नहीं पाए हैं। वह घोषित आपातकाल था, पर आज?

ऐसा इसलिए, क्योंकि लोकसभा चुनाव से कुछ समय पहले चुनावी बॉन्ड के मसले पर जिस सरकार को गिर जाना चाहिए, उसे सरकार द्वारा न्यायोचित ठहराया गया। कई राज्यों के मुख्यमंत्रियों को सरकारी एजेंसियों द्वारा जांच के नाम पर जेल में बंद कर दिया गया। समाज में एक डर को प्रचारित किया गया कि सत्ता की आलोचना करने वालों को जेल में ठूंस दिया जाएगा। हिंदू—मुस्लिम के बीच की खाई को इतना गहरा कर दिया गया है कि इसे कोई कभी पाट पाएगा, यह असंभव सा लगने लगा है। बेरोजगारी—गरीबी की बात करने वालों को भी बख्शा नहीं जाएगा। खासकर हिंदू-मुस्लिमों के बीच दुश्मनी के बीज इस कदर बो दिए गए हैं कि यदि हिंदू हैं, तो अपने मुस्लिम मित्र से बात करने में डरते हैं। इसी तरह मुसलमान मित्र भी आपसे बात करने से कतराने लगते हैं। कहां गई वह सामाजिक समरसता और कहां गुम हो गए वह आपसी सद्भाव, जिसके बल पर हमने अंग्रेजों को देश से बाहर भगाया था।

सत्तारूढ़ भाजपा को आज के चुनाव से इतनी घबराहट क्यों?

सरकारी योजनाएं ऐसी कि युवाओं को रोजगार के नाम पर चार वर्ष की सेना में नौकरी, फिर उम्रभर के लिए घर बैठ जाओ। यदि इसे लेकर युवा किसी तरह की प्रतिक्रिया करता है, तो फिर उसके खिलाफ तरह-तरह की कानूनी कार्यवाही करके उसके जीवन को उलझा दिया जाता है। लिखने वाले, आलोचना करने वालों को धमकाया जाता है। क्या इसे अघोषित आपातकाल नहीं कहा जा सकता है?

आखिर सत्तारूढ़ भाजपा को आज के चुनाव से इतनी घबराहट क्यों है? अभी तो लोकसभा के सात चरणों में चौथे चरण का ही चुनाव संपन्न हुआ है और प्रधानमंत्री, जो देश के सर्वोच्च राजपुरुष माने जाते हैं, उनका भाषण इतना विषाक्त क्यों हो गया कि वह बिल्कुल निम्नस्तरीय भाषा का प्रयोग करने लगे हैं।

क्या बोल रहे प्रधानमंत्री?

प्रधानमंत्री अपने भाषण में कहते हैं, ‘कांग्रेस यदि सत्ता में आती है, तो वह हिंदुओं को दूसरे दर्जे का नागरिक बनाना चाहेगी। लेकिन, जब तक मैं हूं, सुप्रीम कोर्ट का फैसला राम मंदिर पर कोई नहीं बदल सकता। अडाणी टेंपो में भर—भर कर कांग्रेस को चुनाव लड़ने के लिए नोट भेज रहे हैं आदि-आदि…।

क्या आजादी के बाद से आज तक के जितने भी प्रधानमंत्री आए-गए, उन्होंने कभी इस स्तर की बात कही? ईडी, इनकम टैक्स, सीबीआई के नाम पर बलात डराना, छापेमारी कराना… कभी ऐसा देखा सुना गया था क्या!

प्रारंभिक चार चरणों के चुनाव में मतदान प्रतिशत कम

एक आपातकाल ने केवल दो वर्ष में ही देश को उद्वेलित कर दिया था, यहां तो पिछले लगभग पांच वर्ष से जनता के मन में जो आक्रोश उमड़ रहा है, उसकी कानाफूसी धीरे—धीरे आमजन के बीच सुनाई देने लगी है। लेकिन, इसे प्रकट कोई करना नहीं चाहता। ऐसा इसलिए, क्योंकि वह जेल नहीं जाना चाहता। हिंदू-मुस्लिम, भार-पाकिस्तान, गरीबी-बेरोजगारी के खिलाफ वोटर्स एक तरह से लामबंद हो गए हैं, जिसका प्रारंभिक रूप इन चार चरणों के चुनाव में मतदान के कम प्रतिशत होने के तौर पर सामने आया है।

माना जा रहा है कि मतदान नहीं करके मतदाता सत्तारूढ़ दल पर अपना क्रोध निकल रहे हैं। लेक‍िन, मतदान के प्रति जनता की उदासीनता अच्छा संकेत नहीं है। यदि आपको क्रोध ही प्रकट करना है, तो मतदान करके कीजिए, घर बैठकर नहीं। अपने संवैधानिक अधिकारों का उपयोग जरूर करिए और मतदान में भाग जरूर लीजिए ।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)