भारतीय जनता पार्टी ने उत्तर प्रदेश की पीलीभीत लोकसभा सीट से वरुण गांधी का टिकट काट दिया है। उनकी जगह योगी सरकार में कैबिनेट मंत्री जितिन प्रसाद को चुनावी मैदान में उतारा गया है। भाजपा द्वारा टिकट नहीं दिए जाने पर वरुण ने पीलीभीत लोकसभा सीट के मतदाताओं को एक लेटर लिखा। जिसमें उन्होंने 1983 में पहली बार निर्वाचन क्षेत्र का दौरा करने के बारे में बात की थी।
वरुण गांधी ने लेटर में लिखा, “मुझे वो 3 साल का छोटा बच्चा याद आ रहा है जो अपनी मां की उंगली पकड़कर 1983 में पहली बार पीलीभीत आया था, उसे कहां पता था कि एक दिन यह धरती उसकी कर्मभूमि और यहां के लोग उसका परिवार बन जाएंगे।”
हमेशा की तरह, कांग्रेस की ओर से वरुण को पार्टी में शामिल करने की चर्चा सामने आ रही थी लेकिन परिवार से नहीं। कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी ने सार्वजनिक रूप से कहा कि वरुण को कांग्रेस में शामिल होना चाहिए। हालांकि, वरुण गांधी टिकट कटने पर पूरी तरह से आश्चर्यचकित नहीं थे पर ऐसा लगता है कि उन्होंने अचानक चुप्पी साध ली है।
कैसा रहा वरुण गांधी का बचपन?
वह घटना जिसने वरुण के जीवन की दिशा बदल दी, वह उनके जन्म के ठीक तीन महीने बाद 23 जून, 1980 को घटी, जब उनके पिता संजय गांधी की विमान दुर्घटना में मृत्यु हो गई। संजय को नेहरू-गांधी राजवंश का राजनीतिक उत्तराधिकारी माना जाता था लेकिन जब इंदिरा ने राजीव गांधी को इसके लिए चुना तो परिवार में दरार शुरू हो गई।
अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को विफल होते देख मेनका गांधी ने वरुण के साथ अपना ससुराल छोड़ दिया। 1984 में मेनका ने पारिवारिक गढ़ अमेठी से, जिसका प्रतिनिधित्व कभी संजय करते थे, राजीव गांधी से मुकाबला करने का फैसला किया। राजीव ने अपने प्रचार की कमान अपनी पत्नी सोनिया को सौंपी।
इस बीच चुनाव से पहले इंदिरा गांधी की हत्या कर दी गई। देश में फैली सहानुभूति की इस लहर में कांग्रेस ने संसद में अब तक के सबसे बड़े बहुमत से जीत हासिल की और मेनका राजीव से बुरी तरह हार गईं। वरुण इस माहौल में बड़े हुए जहां उन्होंने गांधी नाम का आनंद तो लिया लेकिन देश के नंबर 1 राजनीतिक परिवार की शक्ति का नहीं। इस बीच, अमेठी राजीव से सोनिया और फिर राहुल के पास चली गई। हालांकि, 2019 में भाजपा नेता स्मृति ईरानी ने उन्हें वहां से हरा दिया।
राजनीति में वरुण गांधी के कदम
गांधी परिवार से नाता तोड़कर मेनका धीरे-धीरे बीजेपी की ओर बढ़ती गईं। जब वरुण 24 वर्ष के थे, तब वह औपचारिक रूप से उस समय अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली पार्टी में शामिल हो गईं। भाजपा इस बात से खुश थी कि उसे अपना एक नेहरू-गांधी मिल गया। और वरुण लेखन जैसे अपने अन्य जुनूनों को पूरा करने में अधिक खुश दिखे। उन्होंने 2000 में ‘द अदरनेस ऑफ सेल्फ’ नाम से कविताओं का एक संग्रह लिखा। साल 2009 में, लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में भाजपा ने वरुण को पीलीभीत से मैदान में उतारा।
एक चुनावी रैली में उन्हें यह कहते हुए पाया गया था, “अगर कोई हिंदुओं की ओर उंगली उठाता है या अगर कोई सोचता है कि हिंदू कमजोर और नेतृत्वहीन हैं, अगर कोई सोचता है कि ये नेता वोटों के लिए हमारे जूते चाटते हैं, अगर कोई हिंदुओं की ओर उंगली उठाता है तो मैं गीता की कसम खाता हूं कि मैं वह हाथ काट दूंगा।” जिसे खुले तौर पर मुस्लिम विरोधी अभियान के रूप में देखा गया।
वरुण ने बदली अपनी छवि
जिसके बाद चुनाव आयोग ने कहा कि वह इस मामले को देखेगा। हालांकि, वरुण ने दावा किया कि उन्हें बदनाम करने के लिए उनके भाषणों के वीडियो के साथ छेड़छाड़ की गई थी। साल 2013 में गवाहों के मुकर जाने के बाद, उन पर घृणा फैलाने वाले भाषण का आरोप लगाने वाले मामलों में वरुण को बरी कर दिया गया था। एक तरफ जहां उन्हें कानूनी परेशानियों का सामना करना पड़ा, वहीं दूसरी ओर इससे वरुण की प्रोफ़ाइल मजबूत हुई। उनके निर्वाचन क्षेत्र में उनका स्वागत, “वरुण नहीं ये आंधी है, दूसरा संजय गांधी है” के नारों के साथ किया गया।
वरुण ने तेजी से सीखते हुए 2009 के चुनावों के तुरंत बाद कट्टर हिंदुत्व से हटकर विकास और गरीबी के बारे में बात करना शुरू कर दिया। उत्तर प्रदेश में उनकी रैलियों में भीड़ उमड़ती रही जिससे यह चर्चा फैली कि वरुण खुद को यूपी में पार्टी के चेहरे के रूप में पेश कर रहे हैं। हालांकि, वरुण को इस बात का एहसास नहीं था कि पार्टी ही बदल रही है। यहां तक कि सरनेम जो कभी उनका और उनकी मां का कॉलिंग कार्ड था, उसकी चमक भी खो गई।
वरुण गांधी के भाजपा विरोधी बयान
यह संयोग ही है कि वरुण गांधी भी अब पार्टी से अलग अपने लिए जगह बनाने की कोशिश कर रहे हैं। अगस्त 2011 में, जब दिल्ली पुलिस ने लोकपाल के लिए उनके आंदोलन के तहत जंतर-मंतर पर एक महीने तक विरोध प्रदर्शन करने की अनुमति देने से इनकार कर दिया तो उन्होंने सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे को अपने आवास पर ठहरने की पेशकश की।
2014 के लोकसभा चुनावों में वरुण ने सभी विरोधियों को चुप करा दिया जब भाजपा ने उन्हें एक अलग सीट, सुल्तानपुर से मैदान में उतारा और वह जीत गए। उन्होंने अपने भाजपा विरोधी बयान जारी रखे। उदाहरण के लिए 2016 में लखनऊ में एक युवा सम्मेलन में उन्होंने कहा कि जवाहरलाल नेहरू ने पीएम बनने से पहले 15 साल जेल में बिताए थे।
2017 में, वरुण ने लोकसभा में शून्यकाल के दौरान सुझाव दिया कि सांसदों को अपना वेतन खुद निर्धारित नहीं करना चाहिए बल्कि इसे एक बाहरी स्वतंत्र निकाय पर छोड़ देना चाहिए। उन्होंने एक बार फिर नेहरू और उनके मंत्रिमंडल का उदाहरण देते हुए सांसदों से गरीबों को ध्यान में रखते हुए अपने विशेषाधिकार छोड़ने का भी आग्रह किया। लगभग उसी समय, उन्होंने कृषि संकट पर ए रूरल मेनिफेस्टो नामक पुस्तक प्रकाशित की।
भाजपा और वरुण के बीच के बढ़ते फासले
2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने फिर से वरुण गांधी की सीट बदल दी और उन्हें पीलीभीत सीट दे दी। जहां से उन्होंने जीत हासिल की और तीन बार सांसद बने। सितंबर 2021 में भाजपा सरकार के खिलाफ अपने अब तक के सबसे साहसिक कदमों में से एक में, वरुण ने केंद्र द्वारा पारित तीन विवादास्पद कृषि कानूनों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन का समर्थन किया।
जब यूपी के लखीमपुर खीरी में केंद्रीय मंत्री अजय मिश्रा टेनी के बेटे की कार के नीचे आने से चार प्रदर्शनकारी किसानों की मौत हो गई तो वरुण ने ट्वीट किया कि प्रदर्शनकारियों को हत्या के जरिए चुप नहीं कराया जा सकता और उन्होंने सीबीआई जांच की मांग की। जिसके कुछ महीनों बाद, वरुण को भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी से हटा दिया गया।
कांग्रेस में वापसी की संभावना
हालांकि बीच-बीच में वरुण की कांग्रेस में संभावित वापसी को लेकर बातें उठती रहती हैं लेकिन दोनों पारिवारों के बीच कड़वाहट अब तक कम नहीं हो पाई है। ऐसा माना जाता है कि वरुण के प्रियंका गांधी वाड्रा के साथ मधुर संबंध हैं लेकिन राहुल के साथ मतभेद की खबरें हैं। वरुण पत्रकारों से कहा करते थे कि वे उनकी तुलना राहुल से न करें। इसके पीछे वरुण उनकी उम्र के अंतर और कांग्रेस नेता द्वारा राजनीति में बिताए गए लंबे समय का हवाला देते थे।
2023 में उनकी भारत जोड़ो यात्रा के दौरान, यह पूछे जाने पर कि क्या वरुण के साथ सुलह होगी, राहुल गांधी ने कहा था, “मेरी विचारधारा उनकी विचारधारा से मेल नहीं खाती है। मैं कभी भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यालय में नहीं जा सकता. ऐसा होने के लिए, आपको पहले मेरा गला काटना होगा। मैं उनसे प्यार से मिल सकता हूं, उन्हें गले लगा सकता हूं लेकिन मैं उस विचारधारा को स्वीकार नहीं कर सकता।” वहीं, सोनिया गांधी जिन्होंने मेनका के साथ कभी समझौता नहीं किया के भी चचेरे भाइयों को एक साथ आने के लिए प्रेरित करने की संभावना नहीं है।