राष्ट्रीय जनता दल प्रमुख लालू प्रसाद ने आज मुसलमानों को आरक्षण देने के लिए समर्थन जताया। पटना में पत्रकारों से बातचीत के दौरान उन्होंने कहा कि मुसलमानों को आरक्षण तो मिलना ही चाहिए। बिहार के पूर्व सीएम के इस बयान पर निशाना साधते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विपक्ष पर ‘तुष्टिकरण से परे’ देखने में सक्षम नहीं होने का आरोप लगाया। मध्य प्रदेश के धार में एक सार्वजनिक रैली को संबोधित करते हुए पीएम ने कहा कि वे तुष्टीकरण से परे कुछ नहीं देख सकते। अगर बात खुद पर आ जाए तो वे आपसे सांस लेने का अधिकार भी छीन लेंगे।
चुनावी मौसम में देश में आरक्षण पर बहस जारी है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में धर्म के आरक्षण हो सकता है? क्या कभी मुसलमानों को अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी) या अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) का कोटा कम करके आरक्षण दिया गया है?
धर्म आधारित आरक्षण पर भारतीय संविधान क्या कहता है?
भारत का संविधान सभी के लिए समान व्यवहार की बात करता है। सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि समानता कई पहलुओं और आयामों के साथ एक गतिशील अवधारणा है और इसे पारंपरिक और सैद्धांतिक सीमाओं के भीतर बांधा या सीमित नहीं किया जा सकता है।(ई पी रॉयप्पा बनाम तमिलनाडु राज्य, 1973 केस)
1949 के संविधान के ड्राफ्ट के अनुच्छेद 296 (वर्तमान संविधान के अनुच्छेद 335) से ‘अल्पसंख्यक’ शब्द को हटा दिया। हालांकि, अनुच्छेद 16(4) को इसमें शामिल कर दिया जो राज्य को किसी भी नागरिकों के पिछड़े वर्ग जिनका राज्य में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है, उनके पक्ष में आरक्षण के लिए कोई भी प्रावधान करने में सक्षम बनाता है।

अनुच्छेद 15 और 16 में आरक्षण पर क्या लिखा है?
पहले संवैधानिक संशोधन में अनुच्छेद 15(4) शामिल किया गया, जिसने राज्य को नागरिकों के किसी भी सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग की उन्नति के लिए या अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए कोई विशेष प्रावधान करने का अधिकार दिया।
केरल राज्य बनाम एन एम थॉमस (1975) मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद, आरक्षण को अनुच्छेद 15(1) और 16(1) के समानता/गैर-भेदभाव खंड का अपवाद नहीं माना जाता है बल्कि समानता के विस्तार के रूप में माना जाता है। अनुच्छेद 15 और 16 में महत्वपूर्ण शब्द ‘केवल’ है – जिसका अर्थ है कि अगर कोई धार्मिक, नस्लीय या जाति समूह अनुच्छेद 46 के तहत ‘कमजोर’ है या पिछड़ा है, तो वह अपनी तरक्की के लिए विशेष प्रावधानों का हकदार होगा।
मुस्लिमों को क्यों दिया गया आरक्षण?
कुछ मुस्लिम जातियों को आरक्षण इसलिए दिया गया क्योंकि ये जातियां पिछड़े वर्ग में शामिल थीं। इन जातियों को ओबीसी के भीतर एक सब-कोटा बनाकर एससी, एसटी और ओबीसी के लिए कोटा कम किए बिना आरक्षण दिया गया था।
मंडल आयोग ने कई राज्यों द्वारा प्रस्तुत उदाहरण का अनुसरण करते हुए कई मुस्लिम जातियों को ओबीसी की सूची में शामिल किया। इंद्रा साहनी (1992) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कोई भी सामाजिक समूह, चाहे जो भी उसकी पहचान हो, अगर समान मानदंडों के तहत पिछड़ा पाया जाता है तो वह पिछड़ा वर्ग के रूप में माने जाने का हकदार होगा।

केरल में मुस्लिम उप-कोटा
धर्म के आधार पर आरक्षण पहली बार 1936 में त्रावणकोर-कोचीन राज्य में शुरू किया गया था। 1952 में इसे सांप्रदायिक आरक्षण से बदल दिया गया। यहां मुस्लिम जिनकी आबादी 22% थी, ओबीसी में शामिल किए गए। 1956 में केरल राज्य के गठन के बाद सभी मुसलमानों को आठ सब-कोटा श्रेणियों में से एक में शामिल किया गया था और ओबीसी कोटा के भीतर 10% (अब 12%) का एक उप-कोटा बनाया गया था।
कर्नाटक में JD(S) का फैसला
जस्टिस ओ चिन्नप्पा रेड्डी (1990) की अध्यक्षता में कर्नाटक के तीसरे पिछड़ा वर्ग आयोग ने हवानूर (1975) और वेंकटस्वामी (1983) आयोग की तरह पाया कि मुसलमान पिछड़े वर्गों में शामिल होने की शर्तों को पूरा करते हैं। 1995 में, मुख्यमंत्री एच डी देवेगौड़ा की सरकार ने ओबीसी कोटा के तहत 4% मुस्लिम आरक्षण लागू किया। ओबीसी की केंद्रीय सूची में शामिल छत्तीस मुस्लिम जातियों को कोटा में शामिल किया गया था।
देवेगौड़ा की जद (एस) ने 2023 के विधानसभा चुनावों से पहले मुस्लिम कोटा खत्म करने के बसवराज बोम्मई सरकार के फैसले की आलोचना की थी। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने बोम्मई सरकार के फैसले पर रोक लगा दी।
तमिलनाडु में मुसलमानों को आरक्षण
एम करुणानिधि की सरकार ने जे ए अंबाशंकर (1985) की अध्यक्षता वाले दूसरे पिछड़ा वर्ग आयोग की सिफारिशों पर 2007 में एक कानून पारित किया, जिसमें 30% ओबीसी कोटा, 3.5% आरक्षण के साथ मुसलमानों की एक सब-केटेगरी दी गई। इसमें ऊंची जाति के मुसलमान शामिल नहीं थे। इस अधिनियम में कुछ ईसाई जातियों को आरक्षण दिया गया था लेकिन बाद में ईसाइयों की मांग पर इस प्रावधान को हटा दिया गया।
आंध्र प्रदेश और तेलंगाना
112 अन्य समुदायों/जातियों के साथ मुसलमानों को आरक्षण देने की मांग 1994 में आंध्र प्रदेश पिछड़ा वर्ग आयोग को भेजा गया था। 2004 में, मुसलमानों के सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन पर अल्पसंख्यक कल्याण आयुक्त की एक रिपोर्ट के आधार पर सरकार ने पूरे समुदाय को पिछड़ा मानते हुए 5% आरक्षण प्रदान किया।
हालांकि, आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने तकनीकी आधार पर कोटा यह कहते हुए रद्द कर दिया कि पिछड़ा वर्ग के लिए एपी आयोग के साथ अनिवार्य परामर्श नहीं किया गया था। यह भी माना गया कि अल्पसंख्यक कल्याण रिपोर्ट कानून की दृष्टि से खराब थी क्योंकि इसमें पिछड़ेपन का निर्धारण करने के लिए कोई मानदंड नहीं रखा गया था। (टी मुरलीधर राव बनाम आंध्र प्रदेश राज्य, 2004) हालांकि, अदालत ने माना कि मुसलमानों या उनके वर्गों/समूहों के लिए आरक्षण किसी भी तरह से धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ नहीं है।
एम आर बालाजी मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला
एम आर बालाजी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा, “यह संभावना नहीं है कि कुछ राज्यों में कुछ मुस्लिम या ईसाई या जैन सामाजिक रूप से पिछड़े हो सकते हैं। हालांकि, हिंदुओं के संबंध में जातियां नागरिकों के समूहों या वर्गों के सामाजिक पिछड़ेपन का निर्धारण करने में विचार करने के लिए एक प्रासंगिक कारक हो सकती हैं लेकिन इसे उस संबंध में एकमात्र या प्रमुख टेस्ट नहीं बनाया जा सकता है।
इंद्रा साहनी (1992) मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि “किसी विशेष राज्य में, समग्र रूप से मुस्लिम समुदाय को सामाजिक रूप से पिछड़ा पाया जा सकता है। 2004 HC के फैसले के बाद, आंध्र प्रदेश सरकार ने इस मुद्दे को पिछड़ा वर्ग आयोग को भेज दिया। 2005 में, आयोग की रिपोर्ट पर राज्य ने पूरे मुस्लिम समुदाय को पिछड़ा घोषित करने और 5% कोटा प्रदान करने के लिए एक अध्यादेश जारी किया।
उच्च न्यायालय ने बी अर्चना रेड्डी बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (2005) मामले में अध्यादेश को इस आधार पर रद्द कर दिया कि आयोग द्वारा मुसलमानों के सामाजिक पिछड़ेपन की उचित पहचान के बिना पूरे समुदाय को लाभ नहीं दिया जा सकता है।

आंध्र प्रदेश हाई कोर्ट ने रद्द किया राज्य सरकार का फैसला
2004 के हाई कोर्ट के फैसले के बाद, आंध्र प्रदेश सरकार ने इस मुद्दे को पिछड़ा वर्ग आयोग को भेज दिया। 2005 में, आयोग की रिपोर्ट पर राज्य ने पूरे मुस्लिम समुदाय को पिछड़ा घोषित करने और 5% कोटा प्रदान करने के लिए एक अध्यादेश जारी किया। लेकिन, उच्च न्यायालय ने बी अर्चना रेड्डी बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (2005) मामले में अध्यादेश को इस आधार पर रद्द कर दिया कि आयोग द्वारा मुसलमानों के सामाजिक पिछड़ेपन की उचित पहचान के बिना पूरे समुदाय को लाभ नहीं दिया जा सकता है।
हाई कोर्ट की पांच जजों की बेंच ने कहा कि मुसलमानों को सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ा समुदाय घोषित करने पर कोई रोक नहीं है, बशर्ते वे सामाजिक पिछड़ेपन की कसौटी पर खरे उतरें। इस प्रकार, मुसलमानों की विविधता को पहचानने में आयोग की विफलता उसकी रिपोर्ट और उस पर अध्यादेश को अस्वीकार करने का आधार बन गई।
पिछड़ा वर्ग आयोग की रिपोर्ट के आधार पर बना कानून
आंध्र प्रदेश ने मामले को फिर से पिछड़ा वर्ग आयोग के पास भेजा और उसकी रिपोर्ट के आधार पर 2007 में एक कानून बनाया, जिसमें केवल 14 मुस्लिम जातियों जैसे धोबी, कसाई, बढ़ई, माली, नाई आदि को आरक्षण दिया गया। हिंदुओं की समान व्यावसायिक जातियां पहले से ही पिछड़ों की सूची में हैं और उन्हें आरक्षण मिला हुआ है। अधिनियम की अनुसूची में मुसलमानों की 10 ‘उच्च’ जातियों जैसे सैयद, मुशाइक, मुगल, पठान, ईरानी, अरब, भोरा, खोजा, कच्छी-मेमन आदि को स्पष्ट रूप से बाहर रखा गया है। लेकिन, इस अधिनियम को भी उच्च न्यायालय ने रद्द कर दिया। इसकी संवैधानिकता पर सुप्रीम कोर्ट से अंतिम फैसले का इंतजार है।
2014 में आंध्र प्रदेश के विभाजन के बाद, तेलंगाना में टीआरएस सरकार ने 2017 में जी सुधीर आयोग और पिछड़ा वर्ग आयोग की रिपोर्ट के आधार पर ओबीसी मुसलमानों के लिए 12% आरक्षण का प्रस्ताव करते हुए एक कानून पारित किया।
क्या कहती है सच्चर, मिश्रा पैनल की रिपोर्ट?
जस्टिस राजिंदर सच्चर समिति (2006) ने पाया कि समग्र रूप से मुस्लिम समुदाय लगभग एससी और एसटी जितना ही पिछड़ा है और गैर-मुस्लिम ओबीसी की तुलना में अधिक पिछड़ा है। न्यायमूर्ति रंगनाथ मिश्रा समिति (2007) ने अल्पसंख्यकों के लिए 15% आरक्षण का सुझाव दिया, जिसमें मुसलमानों के लिए 10% आरक्षण शामिल था।
ओबीसी को 27% आरक्षण
इन दो रिपोर्टों के आधार पर यूपीए सरकार ने 2012 में एक कार्यकारी आदेश जारी किया जिसमें 27% के मौजूदा ओबीसी कोटा के भीतर अल्पसंख्यकों (सिर्फ मुसलमानों को नहीं) को 4.5% आरक्षण प्रदान किया गया। चूंकि यह आदेश यूपी, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर में विधानसभा चुनाव से कुछ दिन पहले ही जारी किया गया था इसलिए चुनाव आयोग ने सरकार से इसे लागू नहीं करने को कहा। आंध्र प्रदेश हाई कोर्ट ने आदेश को रद्द कर दिया और सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के आदेश पर रोक लगाने से इनकार कर दिया।
संविधान के अनुच्छेद 341 और 1950 के राष्ट्रपति आदेश में कहा गया है कि केवल हिंदू ही एससी में शामिल होने के हकदार हैं। हालांकि, 1956 में सिखों को और 1990 में बौद्धों को एससी में शामिल किया गया था। मुस्लिम और ईसाई अभी भी बाहर हैं। ऐसे में यह तर्क दिया जा सकता है कि यह भी ‘धर्म के आधार’ पर आरक्षण है।
(लेखक प्रोफेसर फैजान मुस्तफा, चाणक्य नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, पटना के वाइस-चांसलर हैं)
