2024 में बड़ी चुनावी जीत का सपना देख रही बीजेपी ने चुनाव प्रचार के दौरान कच्छतीवु के मुद्दे को उठाकर एक बार फिर चुनावी अभियान को राष्ट्रवाद के इर्द-गिर्द समेटने की कोशिश की है। पार्टी के सबसे बड़े स्टार प्रचारक नरेंद्र मोदी के द्वारा चुनावी रैली में इस मुद्दे को जनता के सामने रखने से पता चलता है कि इस मामले में पार्टी के इरादे क्या हैं? यह स्पष्ट है कि बीजेपी इस मुद्दे पर राजनीतिक लाभ हासिल करने की पूरी कोशिश करेगी।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कच्छतीवु के मुद्दे पर कहा कि विपक्षी गठबंधन देश की एकता और अखंडता का विरोधी है। इसके बाद बीजेपी के तमाम नेता भी चुनाव मैदान में उतर आए और उन्होंने सोशल मीडिया पर इस मुद्दे को धार दी। पार्टी का कहना है कि जनता को यह जानने का हक है कि कच्छतीवु को श्रीलंका को क्यों दिया गया था?
क्या है कच्छतीवु?
कच्छतीवु श्रीलंका और भारत के बीच 285 एकड़ में फैला द्वीप है। यह 1.6 किलोमीटर लंबा है। प्रारंभिक मध्ययुगीन काल में, कच्छतीवु पर श्रीलंका के जाफना साम्राज्य का कब्जा था। 17वीं शताब्दी में रामनाथपुरम के रामनाद जमींदारी का कच्छतीवु द्वीप पर कब्जा हो गया। ब्रिटिश शासन के दौरान कच्छतीवु मद्रास प्रेसीडेंसी का हिस्सा बन गया। लेकिन 1921 में, भारत और श्रीलंका ने मछली पकड़ने की सीमा निर्धारित करने के लिए कच्छतीवु पर दावा किया।
एक सर्वे में कच्छतीवु को श्रीलंका में दिखाया गया था लेकिन भारत के एक ब्रिटिश प्रतिनिधिमंडल ने इसे चुनौती दी और कहा कि इस पर रामनाद साम्राज्य का अधिकार था। 1974 तक यह विवाद लगातार चलता रहा। 1974 में भारत और श्रीलंका के बीच एक समझौता हुआ जिसके बाद इंदिरा गांधी सरकार ने इसे औपचारिक रूप से श्रीलंका को सौंप दिया। तमिलनाडु बीजेपी के अध्यक्ष के। अन्नामलाई ने इस बारे में आरटीआई लगाई थी, जिसमें यह जानकारी सामने आई है।
के. अन्नामलाई ने कांग्रेस पर हमला बोलते हुए कहा है कि कांग्रेस ने कच्छतीवु के मुद्दे पर ध्यान ही नहीं दिया। उन्होंने 1968 में भारतीय विदेश मंत्रालय की ओर से संसद की एक समिति को भेजे गए मिनट्स के हवाले से बताया कि जवाहरलाल नेहरू ने 1961 में कहा था कि इस छोटे द्वीप कच्छतीवु का कोई महत्व नहीं है और उनकी सरकार को इस पर दावा छोड़ने में किसी तरह की हिचक नहीं है। जमीन से लेकर सोशल मीडिया पर अपनी दमदार उपस्थिति रखने वाली बीजेपी ने नेहरू के बयान को हर मतदाता तक ले जाने की कोशिश की है।
2024 के चुनाव में एनडीए के लिए 400 पार का नारा देने वाली बीजेपी को ऐसे ही किसी मुद्दे की तलाश थी और उसे आखिरकार कच्छतीवु के रूप में यह मुद्दा मिल गया। कांग्रेस के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने इसकी टाइमिंग को लेकर सवाल उठाया और कहा कि ऐसा चुनाव को देखते हुए किया गया है।
बीजेपी और इसके नेताओं के सोशल मीडिया अकाउंट्स पर नजर दौड़ाएं तो यह समझ आता है कि पार्टी कच्छतीवु के मुद्दे को आने वाले कई दिनों तक पुरजोर ढंग से उठाएगी। लेकिन यहां बड़ा सवाल यह है कि क्या बीजेपी को इससे किसी तरह का चुनावी फायदा मिलेगा। क्या कच्छतीवु का मुद्दा तमिलनाडु या इसके बाहर हिंदी भाषी प्रदेशों में पार्टी के लिए कुछ अतिरिक्त सीटें जुटा सकेगा।
मोदी का फोकस दक्षिण पर
यहां इस बात का जिक्र करना जरूरी है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पिछले कुछ महीनों से लगातार दक्षिण भारत के तमाम राज्यों का दौरा कर रहे हैं। इसमें भी उनका फोकस तमिलनाडु पर सबसे ज्यादा है। बीते साल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहल पर ही काशी तमिल संगम कार्यक्रम का आयोजन किया गया था। बीजेपी जानती है कि उत्तर भारत के राज्यों में वह इस बार भी लोकसभा चुनाव में बेहतर प्रदर्शन कर सकती है लेकिन अपने दम पर 370 सीटों का विशाल आंकड़ा हासिल करने के लिए उसे दक्षिण के राज्यों से भी लीड लेनी होगी। ऐसे में कच्छतीवु का मुद्दा उसकी मदद कर सकता है।
दक्षिण के पांच राज्यों- तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल और तेलंगाना में से बीजेपी कर्नाटक में तो मजबूत है लेकिन वह अन्य राज्यों में भी अपनी सियासी स्थिति को मजबूत करना चाहती है। साल 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को तमिलनाडु, केरल और आंध्र प्रदेश में एक भी सीट नहीं मिली थी।
राष्ट्रवाद का मुद्दा
बीजेपी लोकसभा चुनावों में राष्ट्रवाद को मुद्दा बनाती रही है और निश्चित रूप से उसे इसका सियासी फायदा भी मिला है। तमाम लोकसभा चुनावों में राम मंदिर निर्माण, जम्मू-कश्मीर से धारा 370 की समाप्ति, समान नागरिक संहिता के मुद्दे को वह अपने घोषणा पत्र में प्रमुखता से जगह देती रही है।
1984 में मात्र दो सीटें हासिल करने वाली बीजेपी ने जब 1989 के पालमपुर अधिवेशन में अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का वादा जनता से किया तो उसका पॉलीटिकल ग्राफ तेजी से आगे बढ़ा और उसने 1999 में तमाम दलों को साथ लेकर पांच साल तक सरकार चलाई। 2014 के लोकसभा चुनाव में तो उसने अकेले दम पर 282 सीटें हासिल की और उस चुनाव में भी पार्टी ने प्रचार के केंद्र में राष्ट्रवाद को रखा था।
2019 के लोकसभा चुनाव में पार्टी ने जम्मू-कश्मीर के पुलवामा में हुए आतंकी हमले के बाद पाकिस्तान के बालाकोट में की गई सर्जिकल स्ट्राइक को मुद्दा बनाते हुए इसे राष्ट्रवाद से जोड़ दिया था। उस वक्त राफेल सौदे को जिस तरह कांग्रेस ने मुद्दा बनाया था, उससे ऐसा माना जा रहा था कि बीजेपी को विपक्षी गठबंधन यूपीए बड़ी चुनौती देगा लेकिन पार्टी ने अपने 2014 के प्रदर्शन में सुधार करते हुए 272 के मुकाबले 303 सीटें जीत ली थी।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि बीजेपी को राष्ट्रवाद की नई डोज कच्छतीवु के रूप में मिली है। राष्ट्रवाद के मुद्दे पर बीजेपी को जिस तरह पिछले चुनावों में सियासी फायदा मिलता रहा है, उसे देखते हुए पार्टी को इस बात की पूरी उम्मीद है कि कच्छतीवु उसे 2019 के चुनाव में मिली सीटों के आंकड़े में इजाफा करने में मददगार साबित होगा।