इंदिरा गांधी ने 1975 में आपातकाल लागू किया था और 1977 में अचानक चुनाव कराने की घोषणा कर दी थी। कई नेता उस समय भी जेल में ही थे। जो बाहर थे, वह भी खुलेआम राजनीतिक गतिविधि करने की स्थिति में नहीं थे।
इंदिरा गांधी ने जनवरी में चुनाव की घोषणा की और मार्च की तारीख दी। वक्त काफी कम था। इतने कम वक्त में नेताओं के लिए कार्यकर्ताओं को तैयार करना, पैसे जुटाना आदि काम मुश्किल था। ऐसे में जेपी को लग रहा था कि चुनाव इंदिरा ही जीतेंगी।
नई पार्टी बनाने वाले थे जेपी
जेपी एक पार्टी बनाए जाने को लेकर पहले से काम कर रहे थे, लेकिन अचानक चुनाव की घोषणा हो गई। ऐसे में 19 जनवरी, 1977 की सर्द सुबह में मोरारजी देसाई के घर अशोक महेता, अटल बिहारी वाजपेयी, सुरेंद्र मोहन आदि नेताओं की एक बैठक हुई। यह बैठक पार्टी बनाए जाने को लेकर अंतिम दौर की बातचीत के लिए थी।
23 जनवरी, 1977 को ‘जनता पार्टी’ का गठन हो गया। मोरारजी देसाई इसके अध्यक्ष और चरण सिंह उपाध्यक्ष बने। जयप्रकाश नारायण (जेपी) के पास कोई औपचारिक पद नहीं था, लेकिन अधिकार काफी थे।
जनता पार्टी का पंजाब में शिरोमणि अकाली दल, तमिलनाडु में डीएमके और बंगाल में सीपीएम जैसी पार्टियों से गठजोड़ भी हो गया। जनता पार्टी के गठन में शुरू से ही जेपी की भूमिका अहम थी और चुनाव की घोषणा हो जाने से उनमें जोश आ गया था। इंदिरा के ही चुनाव जीतने के डर के बावजूद।
मैं मौत के मुंह से आया हूं…
शहीद दिवस (30 जनवरी) के मौके पर जेपी ने चुनाव अभियान की शुरुआत की और पटना के गांधी मैदान में विशाल जनसभा को संबोधित किया। बीमारी से थोड़ा उबर कर चुनावी मैदान में उतरे जेपी ने लोगों से कहा, ‘मैं मौत के मुंह से निकल कर लोकतंत्र बचाने की आपकी लड़ाई में शरीक होने आया हूं।
स्वास्थ्य की परवाह किए बिना जेपी लगातार सैकड़ों मीलों का सफर कर लोगों को ‘तानाशाही नेतृत्व को उखाड़ फेंकने’ के लिए प्रेरित करते रहे। उनका ताबड़तोड़ प्रचार देख कर विरोधी भी दंग थे।
30 साल की सबसे बुरी हार
21 मार्च, 1977 को जब चुनाव परिणाम आए तो पता चला कि कांग्रेस को 30 साल की सबसे बुरी हार का सामना करना पड़ा। उसे एक-तिहाई से भी कम सीटों पर जीत मिली। उसके 492 में केवल 154 उम्मीदवार जीते।
लोग जनता पार्टी की तरफ उम्मीद भरी निगाहों से देख रहे थे और उम्मीद कर रहे थे कि उसकी सरकार दूसरी क्रांति लाने का वादा पूरा करेगी। लेकिन, सरकार बनने से पहले ही जो नजारा सामने आया, वह निराश करने वाला था। चरण सिंंह, मोरारजी देसाई और बाबू जगजीवन राम में प्रधानमंत्री बनने की होड़ देखने को मिली।
जेपी और जे.बी. कृपलानी ने अंतत: मोरारजी देसाई के पक्ष में फैसला लिया और 24 मार्च को देसाई ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। चरण सिंह को गृह और जगजीवन राम को रक्षा मंत्री बना कर संतुष्ट करने की कोशिश की गई।
शपथ ग्रहण करने के बाद नवनिर्वाचित सांसद महात्मा गांधी की समाधि (राजघाट) पर गए और जनता के अधिकार बहाल करने का संकल्प लिया। इस कार्यक्रम के बाद जेपी इंदिरा गांधी से मिलने गए।
इंदिरा को किस बात का सता रहा था डर?
पेंग्विन से प्रकाशित (बिमल प्रसाद और सुजाता प्रसाद द्वारा लिखी गई) जेपी की जीवनी The Dream of Revolution – A Biography of Jayprakash Narayan में बताया गया है कि सबसे बड़ी चुनावी हार के बाद जेपी से हो रही इंदिरा की यह मुलाकात बड़ी भावुक रही। आपातकाल में आक्रामक रूप दिखाने वाली इंदिरा की जुबान खामोश रही, आंखों (इंदिरा की) से आंसू ज्यादा बह रहे थे।
जेपी को लगा कि इंदिरा को संजय गांधी (जिन्होंने आपातकाल के दौरान सत्ता एक तरह से अपने हाथ में ले ली थी) के साथ क्या होगा, इसे लेकर चिंंता है। जेपी ने इंदिरा को यकीन दिलाया कि सरकार बदले की भावना से पीछे पड़ कर काम नहीं करेगी।
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