दिल्ली कांग्रेस अध्यक्ष अरविंदर सिंह लवली का इस्तीफा पार्टी जिन समस्याओं से जूझ रही है, उसी का प्रकटीकरण है। पार्टी की संगठनात्मक रणनीति के लिहाज से राज्य अध्यक्ष का इस्तीफा कोई सामान्य घटना नहीं है।
एक लोकतंत्र में, चुनाव युद्ध से कम नहीं हैं। पार्टी के वरिष्ठ सिपाहियों में से एक के द्वारा युद्ध का मैदान छोड़ देने से ज्यादा गंभीर विश्वासघात और क्या हो सकता है! खास कर तब जब पार्टी वजूद के लिए लड़ रही हो। इससे पता चलता है कि राज्य में पार्टी का नेतृत्व ऐसे लोगों के हाथ में था जिनकी कोई प्रतिबद्धता नहीं थी। उनके लिए व्यक्तिगत स्वार्थ सर्वोपरि था। वे किसी और कारण से पार्टी में नहीं थे, उनके पास केवल पद और पद की भूख थी। अवसरवाद उनका एकमात्र गुण था और जब उन्हें लगा कि अपना उल्लू सीधा नहीं हो रहा है तो उनके पास इस्तीफा देने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था।
जब कांग्रेस ने दिल्ली पर शासन किया और शीला दीक्षित लगातार तीन बार मुख्यमंत्री रहीं, तो लवली और राजकुमार चौहान को कैबिनेट में महत्वपूर्ण विभाग दिए गए। लेकिन जब 2013 में अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व वाली आप ने कांग्रेस का सफाया कर दिया, तो उन्होंने हरियाली भरे चारागाहों की तलाश शुरू कर दी।

Arvinder Lovely Resignation: बीजेपी में चले गए थे लवली
लवली ने कांग्रेस छोड़ दी थी और बहुत धूमधाम से भाजपा में शामिल हो गए थे। लेकिन जब उन्हें एहसास हुआ कि भाजपा उन्हें कोई महत्वपूर्ण पद नहीं देगी जब तक कि वह अपनी वफादारी साबित नहीं करते, तो वे वापस कांग्रेस में चले गए। चुनावी साल में उन्हें इतनी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी देना कांग्रेस आलाकमान की गलती थी। मेरी राय में, एक दलबदलू हमेशा एक दलबदलू ही रहेगा, और किसी भी परिस्थिति में, उस पर यह भरोसा नहीं किया जा सकता कि वह पार्टी को संकट से उबारने के लिए जी-जान से काम करेगा।
2024 के संसदीय चुनाव कोई साधारण चुनाव नहीं हैं – संविधानवाद, लोकतंत्र और देश का भविष्य दांव पर लगा है। ऐसा कहा जाता है, और समाज के एक वर्ग द्वारा यह भी माना जाता है कि अगर नरेंद्र मोदी प्रचंड बहुमत के साथ फिर से प्रधानमंत्री बनते हैं तो संविधान को बदला जा सकता है।

ED Arrest Arvind kejriwal: एजेंसियों के रडार पर हैं विपक्षी नेता
जब हर राजनीतिक दल और विपक्ष के नेता जाँच एजेंसियों के रडार पर हैं, जब प्रवर्तन निदेशालय (ED) देश के सबसे बड़े नेताओं में से एक – अरविंद केजरीवाल – को गिरफ्तार कर सकता है और कोई भी विपक्षी नेता इसकी गिरफ्त से सुरक्षित नहीं है, जब कांग्रेस का बैंक खाता फ्रीज किया जाता है, तब ऐसी परिस्थितियों में ऐसे राजनेताओं की जरूरत होती है जो संकट का सामना कर सकें और जुझारू योद्धा की तरह लड़ सकें।
भारत असाधारण समय से गुजर रहा है और उसे चिकन-हार्ट वाले नेताओं की कोई आवश्यकता नहीं है। दिल्ली में, कांग्रेस 2013 से ऐसे नेताओं के कारण गंभीर संकट में है, जिनके पास न तो जन अपील है और न ही पार्टी के लिए लड़ने की क्षमता है।
इसके विपरीत, आप, अपने सर्वोच्च नेता केजरीवाल के जेल में होने के बावजूद, बिना किसी डर के और अपने नेता के प्रति प्रतिबद्धता के साथ लड़ रही है। कोई उनकी कार्यशैली से असहमत हो सकता है, लेकिन इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता कि वे काफी हद तक संकट को अवसर में बदलने में सफल रहे हैं।
आज अगर जमीनी स्तर पर आप के प्रति सहानुभूति है तो इसका श्रेय उसकी लड़ाई की भावना को दिया जाना चाहिए। कांग्रेस ने इसके विपरीत, 2013 के विधानसभा चुनाव में आप से हारने के बाद, वापसी के लिए लड़ने का कोई प्रयास नहीं किया। राहुल गांधी को यह महसूस करना चाहिए कि कागजी शेर कभी युद्ध नहीं जीतते।

Congress AAP Alliance Delhi: कांग्रेस और आप को एक-दूसरे की आवश्यकता
पिछले दो संसदीय चुनावों ने साबित कर दिया है कि आप और कांग्रेस अपने दम पर भाजपा के सामर्थ्य के बराबर नहीं हैं। इसमें कोई शक नहीं कि आप ने 2015 और 2020 में अभूतपूर्व जनादेश के साथ विधानसभा चुनाव जीता था। इसने पिछले एमसीडी चुनाव में भी भाजपा को हराया था। लेकिन संसदीय चुनावों में मोदी का जादू बेमिसाल रहा। 2019 के चुनावों में, भाजपा ने न केवल सभी सात सीटें जीतीं, बल्कि 54 प्रतिशत वोट शेयर भी हासिल किया।
दूसरी ओर, कांग्रेस ने न केवल दोनों संसदीय चुनावों (2014 और 2019) में खाता नहीं खोला, बल्कि दो विधानसभा चुनावों में भी कोई सीट नहीं जीत सकी। एमसीडी चुनावों में पार्टी का प्रदर्शन भी दयनीय रहा है। इस संदर्भ में, यह सोचना नासमझी होगी कि अगर कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव अकेले लड़ा तो वह कमाल कर सकती है। हकीकत यह है कि कांग्रेस हताश स्थिति में है।

दिल्ली कांग्रेस के पास न तो कोई कद का नेता है और न ही कोई ठोस सोच है कि पार्टी को फिर से खड़ा करने के लिए किस पर भरोसा किया जा सकता है। आप के साथ गठबंधन एक रास्ता था। साथ में, ये दोनों पार्टियां भाजपा को अच्छी टक्कर दे सकती हैं।
आज भाजपा 10 साल के एंटी-इंकम्बेंसी का सामना कर रही है। बेरोजगारी और महंगाई बड़े मुद्दे हैं। अगर भाजपा को लगता है कि अयोध्या के मंदिर में भगवान राम की प्राण प्रतिष्ठा के सहारे राष्ट्रीय राजधानी में चुनाव जीता जा सकता है, तो यह गलत है।
Hindu Muslim Polarization : ध्रुवीकरण बेअसर, जनता से जुड़े मुद्दे हावी
हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण धीरे-धीरे ही सही, लेकिन निश्चित रूप से अपनी चमक खो रहा है। रोजमर्रा के विमर्श में जनता से जुड़े मुद्दे हावी हो रहे हैं। स्थानीय भाजपा नेताओं में कोई अपील नहीं है, उनके लोकसभा उम्मीदवार जनाधार विहीन हैं। मोदी के जादू के बिना, उन्हें जीतने के लिए संघर्ष करना पड़ेगा। उत्तर और मध्य भारत के अन्य हिस्सों की तरह, उम्मीदवार महत्वपूर्ण नहीं हैं – लोग या तो मोदी के पक्ष में मतदान करेंगे या उनके खिलाफ।

मेरी सहानुभूति उन लोगों के साथ है जो सोचते हैं और मानते हैं कि लवली और चौहान के इस्तीफे चुनाव को बना या बिगाड़ देंगे। अगर वे इतने अच्छे होते, तो कांग्रेस इतनी दयनीय स्थिति में नहीं होती। कांग्रेस को अगर दिल्ली में आगे बढ़ना है तो जितनी जल्दी हो सके ऐसे नेताओं को अलविदा कह देना चाहिए। उसे आप से सीखना चाहिए, जिसने नए नेताओं में निवेश किया है। पुराने चेहरों, विचारों और पार्टी छोड़ने वालों का समय खत्म हो चुका है।
(लेखक, आप के पूर्व सदस्य, ‘सत्य हिंदी’ के सह-संस्थापक और संपादक के साथ-साथ ‘हिंदू राष्ट्र’ नाम की किताब के लेखक हैं। यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं।)