एडवोकेट नागेंद्र नाईक को भारत के तीन-तीन मुख्य न्यायाधीश जज बनाने की सिफारिश कर चुके हैं। इन तीन में एक नाम वर्तमान CJI डीवाई चंद्रचूड़ का भी है। CJI चंद्रचूड़ की नेतृत्व वाली सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने इसी साल नाईक को कर्नाटक हाईकोर्ट का जज बनाने की सिफारिश की थी। हालांकि अब नाईक कभी भी जज की कुर्सी पर नहीं बैठ पाएंगे।
द इंडियन एक्सप्रेस ने सूत्रों के हवाले से बताया कि मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम नागेंद्र नाईक की सिफारिश करने के अपने फैसले को वापस लेने पर विचार कर रही है। CJI चंद्रचूड़ ने नाईक से स्पष्टीकरण भी मांगा है।
एडवोकेट नाईक ने ऐसा क्या कर दिया है?
हाल में संपन्न हुए कर्नाटक विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को जीत मिली है। भाजपा सत्ता से बाहर हुई है और जनता दल (सेक्युलर) ने 1999 के बाद सबसे खराब प्रदर्शन किया है। 1999 में अपने गठन के बाद जेडीएस ने पहले चुनाव में 10 सीटों पर जीत दर्ज की थी। 2023 के विधानसभा चुनाव में जेडीएस को 19 सीटें मिली हैं। जेडीएस के लिए यह झटका तो है कि लेकिन उसके एक उम्मीदवार पर इस चुनाव की दोहरी मार पड़ी है।
दरअसल, एडवोकेट नागेंद्र नाईक ने भी कर्नाटक विधानसभा चुनाव लड़ा था। उन्हें जेडीएस ने भटकल विधानसभा क्षेत्र से अपना उम्मीदवार बनाया था। वह चुनाव हार गए। उन्हें बमुश्किल 1,500 वोट मिले, जो डाले गए वोटों का एक फीसदी से भी कम है। इस सीट से कांग्रेस के मंकल वैद्य ने एक लाख से अधिक मतों से जीत दर्ज की है। दूसरे नंबर पर रहे भाजपा उम्मीदवार सुनील नाईक को 67,000 से अधिक मत मिले थे।
CJI चंद्रचूड़ ने इस पर स्पष्टीकरण मांगा है कि क्या नाईक ने चुनाव लड़ने से पहले अपने फैसले के बारे में उच्च न्यायालय या सुप्रीम कोर्ट को सूचित किया था क्योंकि उनकी सिफारिश सरकार के पास लंबित है। इंडियन एक्सप्रेस के सूत्र का कहना है कि यह घटनाक्रम कॉलेजियम के लिए “शर्मनाक” है।
दूसरी तरफ इस मामले में नाईक का कहना है, “मैं हमेशा सोशल सर्विस करना चाहता था और एक बार जब मुझे एहसास हुआ कि मेरी जजशिप इस राह में बाधा है, मैंने राजनीति में उतरने का फैसला किया … मैंने एक महीने पहले चुनाव लड़ने का फैसला किया था।”
किस-किस ने की थी सिफारिश
इस साल 10 जनवरी को भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता में सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने तीसरी बार, नाईक को कर्नाटक उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्त करने के अपने फैसले को दोहराया था।
नाईक की पहली बार 3 अक्टूबर, 2019 को तत्कालीन सीजेआई एसए बोबडे की अध्यक्षता वाले सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने सिफारिश की थी। इस निर्णय को 2 मार्च, 2021 और 1 सितंबर, 2021 को सीजेआई एनवी रमना की अध्यक्षता वाले कॉलेजियम द्वारा दोहराया गया था। सूत्रों ने द इंडियन एक्सप्रेस को बताया कि फिलहाल नाईक की फाइल सरकार के पास लंबित है।
चुनाव लड़ने का कारण?
नाईक जज के रूप में नियुक्ति का प्रस्ताव चार साल से अधिक समय से लंबित होने से निराश थे। यह पूछे जाने पर कि क्या उन्होंने चुनाव लड़ने से पहले न्यायाधीश बनने के लिए अपनी सहमति वापस ले ली थी, नाईक ने कहा, “मैंने चार से पांच साल तक (सिफारिश को मंजूरी मिलने का) इंतजार किया है और इस इंतजार ने मेरे प्रैक्टिस को प्रभावित किया है। जब भी खबरें आईं कि मेरा नाम दोहराया गया है, मेरे कार्यालय में फाइलें आना बंद हो गईं। मुझे अपनी सिफारिश का हश्र पता था और इसलिए मैंने चुनाव लड़ने का फैसला किया।” नाईक ने स्वीकार किया कि वह जानते हैं कि इस फैसले का मतलब है कि बेंच के सभी दरवाजे उनके लिए बंद हो गए हैं।
चुनाव में खराब प्रदर्शन के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने कहा, “मेरा अभियान बहुत देर से शुरू हुआ और वैसे भी लोगों ने कांग्रेस को भारी वोट दिया क्योंकि वे भाजपा को सत्ता से बाहर करना चाहते थे।”
नाईक ने हाईकोर्ट या सुप्रीम को क्यों नहीं बताया?
नाईक ने बताया कि उन्होंने कॉलेजियम को सूचित नहीं किया था क्योंकि उन्हें नहीं लगता था कि नियुक्ति के खिलाफ पूर्व राजनीतिक संबद्धता एक बाधा होगी। उन्होंने कहा, “मैंने सूचित नहीं किया या अनुमति नहीं ली क्योंकि सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम और कानून मंत्री दोनों ने न्यायमूर्ति विक्टोरिया गौरी के मामले में कहा था कि राजनीतिक संबद्धता न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति के खिलाफ नहीं है।”
कहां से की है पढ़ाई?
नागेंद्र नाईक ने लॉ की पढ़ाई बेंगलुरू के दयानंद सागर लॉ कॉलेज से की है। उन्होंने 1993 से बतौर वकील काम शुरू किया था। नाईक ने क्राइम और लेबर लॉ से जुड़े मामलों में प्रैक्टिस की है। नाईक को प्रसिद्धि भ्रष्टाचार विरोधी मामलों में एक बचाव पक्ष के वकील के रूप में मिली थी। वह कई नौकरशाहों और राजनेताओं के लिए सीबीआई अदालतों में मुकदमा लड़ चुके हैं।
क्या राजनीतिक पार्टियों से संबंध रखने वाले बन सकते हैं जज?
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज मदन बी लोकुर जनसत्ता डॉट कॉम के संपादक विजय कुमार झा को दिए इंटरव्यू में बताते हैं कि अगर कॉलेजियम किसी के नाम की सिफारिश करती है, और वह व्यक्ति किसी छोटे राजनीतिक दल का सदस्य है, तो कोर्ट उससे सदस्यता छोड़ने की बात कह सकती है। कॉलेजियम उसकी नियुक्ति वैसे राज्य में करेगी जहां उसकी पूर्व पार्टी का कोई केस कभी न जाए। पॉलिटिकल एफिलिएशन नियुक्ति में बाधा नहीं बननी चाहिए।
इंटरव्यू देखें:
हाल में न्यायमूर्ति लक्ष्मण चंद्रा विक्टोरिया गौरी की नियुक्ति का मामला भी सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा था। गौरी को मद्रास हाईकोर्ट का जज नियुक्त किया गया है। नियुक्ति से पहले वह भारतीय जनता पार्टी की महिला शाखा की राष्ट्रीय महासचिव और वकील थीं। उनकी नियुक्ति ने इस बहस को छेड़ा था कि क्या राजनीतिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों को बेंच में नियुक्त किया जा सकता है?
गौरी की नियुक्ति को चुनौती देने वाले मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ऐसे कई उदाहरण हैं जहां राजनीतिक पृष्ठभूमि वाले लोगों को न्यायपालिका में पदोन्नत किया गया है। अदालत ने मामले में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया।
भारत में जब भी राजनीतिक रूप से सक्रिय लोगों की न्यायपालिका में नियुक्ति पर बहस होती है न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर का उदाहरण जरूर दिया जाता है। अय्यर 1952 और 1957 में केरल विधानसभा के एक स्वतंत्र सदस्य के रूप में चुने गए थे। उन्हें केरल की नंबूदरीपाद सरकार में कई विभाग भी मिले थे। साल 1968 में उन्हें केरल उच्च न्यायालय और 1973 में सर्वोच्च न्यायालय में पदोन्नत किया गया।
न्यायमूर्ति केएस हेगड़े 1935 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हुए और 1952 में पार्टी के उम्मीदवार के रूप में राज्यसभा के लिए चुने गए। 1957 में मैसूर उच्च न्यायालय के न्यायाधीश बनने पर उन्होंने सदन से इस्तीफा दे दिया।