बिहार में लालू प्रसाद यादव ने जब 10 मार्च, 1990 को पहली बार मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली थी तो उन्होंने पहला काम आरक्षण व्यवस्था मजबूत करने का किया था। एक और जो काम वह कर रहे थे वह था नौकरशाही की ताकत कमजोर करना। उसकी एक वजह यह भी थी कि नौकरशाही में ऊंची जाति वालों का दबदबा था।
सार्वजनिक रूप से नौकरशाहों को अपमानित करने में संकोच नहीं करते थे लालू
मृत्युंजय शर्मा ने अपनी हालिया किताब ब्रोकन प्रॉमिसेज:कास्ट, क्राइम एंड पॉलिटिक्स इन बिहार (Broken Promises: Caste, Crime and Politics in Bihar) में उन दिनों की स्थिति दर्ज की है। शर्मा लिखते हैं कि लालू प्रसाद यादव के लिए यह बहुत सामान्य बात थी कि वह नौकरशाहों को सार्वजनिक रूप से अपमानित करें, उन्हें यहां-वहां ट्रांसफर करके उन्हें सजा दें और कई बार उनके फैसलों को पलट दें। उस दौरान बिहार में ऐसा लगता था कि सत्ता की ताकत अभिजात्य वर्ग के नौकरशाहों के हाथ से निकलकर देहाती कुर्ता-पायजामा पहने राजनेताओं के पास आ गई है।
उस दौरान यादव समाज का चाहे युवा हो या उम्र दराज, गरीब हो या अमीर पुलिस थाने, तहसीलदार कार्यालय या सर्किल ऑफिस के कार्यालय में उसकी बात सुनी जाती थी। अब तक हाशिए पर रही अन्य जातियों के लोगों के साथ भी ऐसा ही हो रहा था।

नौकरशाही में ऊंची जाति के लोग थे ज्यादा
1990 के दौर में बिहार की विधानसभा में ओबीसी और निम्न जातियों के नेताओं की संख्या बढ़ने लगी थी। लेकिन नौकरशाही में अभी भी ऊंची जाति वाले लोगों का दबदबा था। लालू यादव और उनके करीबी लोग इस व्यवस्था को नहीं बदल पा रहे थे और इस वजह से ऊंची जाति के नौकरशाहों और लालू सरकार के बीच हमेशा तनाव बना रहता था।
लालू यादव ने अपने संस्मरण में लिखा है-
यहां तक कि नौकरशाही ने भी मेरा साथ नहीं दिया। मेरे मुख्यमंत्री काल के शुरुआती चरण में सिर्फ कुछ अफसरों को छोड़कर अधिकतर अफसर मेरे विचारों से सहमत नहीं थे। मेरे पास इतने आईएएस अफसर नहीं थे जो समाज के वंचित, आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़े लोगों के प्रति समर्पित हों। हालात उस वक्त और खराब हो गए जब कुछ अखबारों ने यह आरोप लगाया कि मैं नौकरशाही में अपनी जाति के अफसरों को आगे बढ़ा रहा हूं लेकिन यह बात पूरी तरह बेबुनियाद थी।
नौकरशाहों का कहना कुछ और ही था। उनके मुताबिक लालू प्रसाद यादव बहुत सीनियर अफसर के साथ भी सार्वजनिक रूप से बेहद खराब व्यवहार करते थे। वह राज्य के मुख्य सचिव को बड़ा बाबू कहकर बुलाते थे।
बड़ा बाबू जैसा शब्द किसी पुलिस थाने के एसएचओ या सरकारी दफ्तरों में हेड क्लर्क के लिए इस्तेमाल होता है। इसी तरह लालू प्रसाद यादव राज्य के सबसे बड़े पुलिस अफसर, पुलिस महानिदेशक यानी डीजीपी को ‘मुंशी जी’ कहते थे। ‘मुंशी’ पुलिस थाने में क्लर्क के लिए इस्तेमाल किया जाता है।
अफसर इस बात की शिकायत करते थे कि उन उन पर अक्सर इस बात के लिए दबाव डाला जाता था कि वह गलत तरीके अपनाएं और जो ऐसा नहीं करता था, उसे ट्रांसफर करके परेशान किया जा जाता था। हालात इतने खराब थे कि साल 1991-92 में बिहार में तैनात 384 आईएएस अफसरों में से 144 अफसरों ने केंद्र में प्रतिनियुक्ति के लिए आवेदन किया था।

मंत्री का आदेश ना मानने पर ट्रांसफर
साल 1994 में जब एसके सिन्हा बिहार टूरिज्म डेवलपमेंट कॉरपोरेशन के प्रबंध निदेशक थे, तब पटना हाई कोर्ट ने आदेश दिया था कि बिहार सरकार द्वारा अधिगृहित की गई एक कंपनी को राजगीर रोपवे प्रोजेक्ट का काम दे दिया जाए। लेकिन बिहार के पर्यटन मंत्री अदालत के फैसले से खुश नहीं थे और उन्होंने एसके सिन्हा पर इस बात के लिए दबाव बनाया कि वह अदालत के आदेश का पालन ना करें। लेकिन सिन्हा ने मंत्री की बात को मानने से इनकार कर दिया।
सिन्हा का पहले ऐसे पद पर ट्रांसफर कर दिया गया, जो उनकी रैंक से बहुत नीचे था। वहां उनका ना तो कोई दफ्तर था और न ही बजट में तनख्वाह देने का कोई प्रावधान था। इस सबसे भी ज्यादा खराब बात यह थी कि उन्हें जूनियर अफसर को रिपोर्ट करने के लिए कहा गया।
जब उनके ट्रांसफर को चुनौती दी गई और ट्रिब्यूनल ने ट्रांसफर को गलत पाया तो सिन्हा का एक ऐसे पद पर ट्रांसफर कर दिया गया जो पद खत्म हो चुका था। एक बार फिर जब ट्रिब्यूनल ने इस आदेश को रद्द कर दिया तो राज्य सरकार ट्रिब्यूनल के आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुंच गई।
सुप्रीम कोर्ट का आदेश भी नहीं माना
सुप्रीम कोर्ट ने ट्रिब्यूनल के आदेश को बरकरार रखा लेकिन सिन्हा को ना तो उनके पुराने पद पर बहाल किया गया और ना ही उन्हें उनकी तनख्वाह मिल सकी। यहां तक कि उन्हें मिलने वाली मेडिकल और इंश्योरेंस की सुविधाओं को भी रोक दिया गया।
ट्रिब्यूनल के लगातार चेतावनी देने के बाद भी राज्य सरकार पर कोई असर नहीं हुआ। इस सबसे सिन्हा बहुत परेशान हो चुके थे और उन्होंने उन्हें किसी दूसरे प्रदेश में ट्रांसफर करने के लिए केंद्र सरकार को पत्र लिखा।
यह केवल एसके सिन्हा की कहानी नहीं है बल्कि 1990 के दौर में बिहार के हर उस अफसर की कहानी है जिसने सरकार के आगे झुकने से इनकार कर दिया।

Bihar Caste Politics: जाति विशेष से होने के कारण किया जाता था टारगेट
बिहार में उस दौरान एक जाति विशेष से होने की वजह से इस जाति के नौकरशाहों और अफसरों को भी टारगेट किया जाता था। अगर लालू प्रसाद यादव के शासन के शुरुआती सालों में हुए ट्रांसफर और पोस्टिंग को देखें तो यह साफ दिखाई भी देता है।
सभी ऊंचे ओहदों पर अपने मन मुताबिक अफसरों को तैनात करने की लालू प्रसाद यादव की इच्छा के बाद भी उन्हें एससी-एसटी, ओबीसी और मुस्लिम समुदाय से इतने अफसर नहीं मिल सके जिन्हें बिहार के जिलों में डीएम के पद पर तैनात किया जा सके। राज्य सरकार का सचिवालय भी ऊंची जाति के नौकरशाहों से भरा हुआ था।
60% अफसर ऊंची जातियों से
2002 में लगभग 60% (224 में से 133) आईएएस अफसर ब्राह्मण, भूमिहार, राजपूत और कायस्थ जातियों से थे। केवल सात अफसर अपर ओबीसी जातियों- कुर्मी, कोयरी और यादव से थे। इनमें से चार यादव थे और यह चारों राज्य सरकार की प्रशासनिक सेवाओं से प्रमोशन के जरिए आईएएस में आए थे।
उस दौरान अखबारों में आए दिन ऐसी फोटो छपती थी जिसमें लालू प्रसाद यादव अपने लॉन में टेबल के ऊपर पांव रखकर बैठे होते थे और उनके सामने नौकरशाह लाइन में खड़े रहते थे। यह कुछ ऐसी फोटी थी जो लालू को वोट देने वाले मतदाताओं को पसंद आती थी और लालू भी इस बात को जानते थे। इसका नतीजा यह हुआ कि इसने नौकरशाही को पूरी तरह प्रभावहीन बना दिया और यह अपने राजनीतिक आकाओं के सामने समर्पण करने लगी।
Lalu Yadav Government Bureaucracy: लालू सरकार के आगे झुकी नौकरशाही
नौकरशाही का एक वर्ग लालू सरकार के आगे पूरी तरह झुक गया और वह बिहार सरकार में बने इस माहौल का फायदा उठाना चाहता था। जो लोग इस व्यवस्था के हिसाब से चल रहे थे अक्सर उनका कार्यकाल बढ़ा दिया जाता था और इसके लिए सभी नियमों को ताक पर रख दिया जाता था।
उसी दौरान रांची पशुपालन विभाग के उपनिदेशक श्याम बिहारी सिन्हा को सेवा विस्तार दे दिया गया था। इसके बावजूद कि आयकर विभाग के अफसरों ने हाल ही में उनके घर पर छापेमारी की थी और उनके वहां से आय से अधिक संपत्ति मिली थी। बाद में यह बात सामने आई कि सिन्हा करोड़ों रुपए के चारा घोटाले के सरगना थे।
इसी तरह मत्स्य विभाग के एक अफसर प्रेम शंकर प्रसाद को तीन बार सेवा विस्तार दिया गया जिससे वह अपने पद पर बने रह सकें।
रांची के भवन निर्माण विभाग में तैनात एक अधिशासी अभियंता नवल किशोर पर कई मर्तबा यह आरोप लगे थे कि उन्होंने सरकारी खजाने का दुरुपयोग किया है लेकिन उनका भी कार्यकाल बढ़ा दिया गया। सिर्फ इसलिए क्योंकि सरकार में उनके गहरे संबंध थे।
इन सब वजहों से ही जनता दल के पूर्व सांसद तस्लीमुद्दीन ने यह कहकर लालू यादव की आलोचना की थी कि उन्हें ऐसे भ्रष्ट अफसरों की जरूरत है क्योंकि उनकी मदद से वह अपने अवैध कामों को जारी रख सकते हैं।