महात्मा ज्योतिबा फुले को 19वीं सदी के विचारक, समाज सुधारक, लेखक, दार्शनिक, विद्वान और संपादक के रूप में याद किया है। उन्होंने अपना जीवन महिलाओं, वंचितों और शोषित किसानों का उत्थान करने में खपा दिया। महात्मा फुले का निधन 28 नवंबर, 1890 को हुआ था। उनकी चर्चा करते हुए, अक्सर उनके जीवन के एक पक्ष पर बात करना रह जाता है। बहुत कम लोग जानते हैं कि वह एक सफल उद्योगपति भी थे। उन्होंने फूल-फल, सब्जी, गुड़ जैसी जरूरी चीज बेच कर कारोबार की शुरुआत की थी और धीरे-धीरे अपना बिजनेस बड़ा किया था।
युवा फुले ने ब्रिटिश राज में नौकरी करने के बजाय बिजनेस करना चुना था। उन्होंने अलग-अलग तरह के बिजनेस के माध्यम से काफी संपत्ति भी अर्जित की थी, जिसे उन्होंने सामाजिक कार्यों में लगाया। उन्होंने ‘पूना कमर्शियल एंड कॉन्ट्रैक्टिंग कंपनी’ की स्थापना की थी। इस कंपनी ने कई पुल, सुरंग और बांध बनाए थे।
जब ठेकेदार बने फुले
सब्जियों आदि के बिजनेस के बाद महात्मा ज्योतिबा फुले बतौर ठेकेदार काम करने लगे। फुले ने रामचंद्र शिंदे और कृष्णराव भालेकर के साथ मिलकर “पूना कमर्शियल एंड कॉन्ट्रैक्टिंग कंपनी” की स्थापना की थी। वह बड़े पत्थरों, चूना, ईंटों को तोड़ कर कृत्रिम रूप से तैयार किये गये कंकड़ बेचने का काम करते थे।
जल्द ही उन्हें ब्रिटिश सरकार से ठेका मिलने लगा। वह निर्माण परियोजनाओं के लिए निर्माण सामग्री और कारीगर मुहैया कराने लगे। खडकवासला बांध, यरवदा पुल और सतारा सुरंग आदि के निर्माण के लिए भी सामग्री और कामगार फुले की कंपनी ने ही उपलब्ध कराए थे।
कारोबार के दम पर ब्रिटिश सरकार में बनाई धाक
उनकी एक एजेंसी भी थी, जो मुख्य रूप से कारखानों के उपयोग के लिए सोने, चांदी और तांबे के सांचे बेचती थी। उन्हें पुणे नगर निगम का सदस्य भी नियुक्त किया गया था। तब सभी सदस्यों की नियुक्ति ब्रिटिश सरकार द्वारा की जाती थी।
कैसे महात्मा कहलाए ज्योतिराव?
हालांकि अपने व्यावसायिक प्रयासों के बीच भी फुले ने हमेशा सत्यशोधक समाज के मिशन को प्राथमिकता दी। वह निर्माण परियोजनाओं में काम करने वाले मजदूरों के लिए रात्रि स्कूल चलाते थे। ज्योतिराव फुले ने अस्पृश्यता और जाति व्यवस्था जैसी सामाजिक बुराइयों के खिलाफ जीवन भर काम किया। वह महिला सशक्तीकरण और बालिका शिक्षा के प्रबल समर्थक थे। उन्हें 11 मई, 1888 को महाराष्ट्र के सामाजिक कार्यकर्ता विट्ठलराव कृष्णाजी वांडेकर द्वारा महात्मा की उपाधि से सम्मानित किया था।
बिजनेसमैन महात्मा ज्योतिबा फुले
ज्योतिराव गोविंदराव फुले का जन्म 11 अप्रैल 1827 को महाराष्ट्र के सतारा जिले में एक किसान परिवार में हुआ था। उनका परिवार माली जाति से ताल्लुक रखता था। उनके पिता गोविंदराव सब्जी बेचते थे। ज्योतिराव की प्राथमिक शिक्षा 1834-1838 के दौरान हुई। प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद फुले को स्कूल छोड़ना पड़ा। वह पिता की मदद करने के लिए उनके साथ खेत में काम करने लगे।
हालांकि उन्हीं दिनों फुले की बुद्धिमत्ता को एक मुस्लिम और एक ईसाई पड़ोसी ने पहचाना। इन्हीं दोनों ने फुले के पिता को इस बात के लिए मनाया कि वे अपने बेटे का एडमिशन स्थानीय स्कॉटिश मिशन के हाई स्कूल में कराएं। इस स्कूल से अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद फुले ने नौकरी करने के बजाय फूलों का व्यवसाय शुरू किया। उन्होंने विदेशी फूलों, फलों और सब्जियों की खेती को लेकर किसानों के बीच फैली गलतफहमी को दूर किया और इन चीजों को उगा कर बेचने लगे।
उनके व्यक्तित्व में किसान और उद्यमी का मिश्रण नजर आने लगा था। वह पहले अपने खेत में गन्ना उगाते और फिर उसके रस से गुड़ तैयार कर उसे मार्केट में बेचते थे। इससे उन्हें काफी मुनाफा होता था। उन्होंने पूना (अब पुणे) बाजार से सब्जी खरीद कर मुंबई भेजने का भी काम किया था।
महात्मा ज्योतिबा फुले ने लिखी थी 16 किताबें
1848 में जब ज्योतिराव ने थॉमस पेन की पुस्तक राइट्स ऑफ मैन (1791) पढ़ी, तो उन्हें एहसास हुआ कि सामाजिक न्याय केवल महिलाओं और दलितों जैसे समाज के वंचित वर्गों को हर तरह की पांबदियों से मुक्त कराने पर ही संभव हो सकता है। उस समय इन वर्गों को रूढ़िवादी उच्च जातियों द्वारा अछूत माना जाता था। उन्होंने और उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले ने छात्राओं की शिक्षा के लिए संघर्ष किया और 1848 में एक स्कूल खोला, जिसने औपनिवेशिक काल के दौरान सामाजिक सुधारों की एक नई लहर शुरू की।
महाराष्ट्र में निचली जातियों के लिए समान सामाजिक और आर्थिक अधिकार प्राप्त करने के लिए फुले ने अपने अनुयायियों के साथ 1848 में सत्यशोधक समाज का गठन किया। सत्यशोधक का अर्थ होता है ‘सत्य के खोजी’। फुले ने 16 पुस्तकें लिखीं। उन किताबों ने दलितों की सामाजिक जागृति में योगदान दिया।
दलित शब्द का पहला इस्तेमाल
ज्योतिराव फुले तर्कवादी थे। वह तर्कवाद का प्रचार भी करते थे। उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘गुलामगिरी’ को दुनिया भर में गुलामी से मुक्ति के लिए चल रहे आंदोलनों को समर्पित किया था। कई लोगों का मानना है कि यह फुले ही थे जिन्होंने सबसे पहले ‘दलित’ शब्द का इस्तेमाल उन उत्पीड़ित लोगों के लिए किया था, जिन्हें अक्सर ‘वर्ण व्यवस्था’ के बाहर रखा जाता था।
दलितों के सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन को दूर करने के लिए समर्पित सत्यशोधक समाज को कोल्हापुर राज्य के मराठा शासक छत्रपति शाहू ने भी समर्थन दिया था। ज्योतिराव फुले को डॉ. अंबेडकर अपना गुरु मानते थे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी महात्मा फुले को सामाजिक न्याय का चैंपियन बता चुके हैं। महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा नेता देवेंद्र फडणवीस फुले के लिए भारत रत्न की मांग कर चुके हैं।