पूरी तरह देशी कारीगरी और कलपुर्जों के दम पर मारुति कार बनाने का सपना लिए संजय गांधी सन् 1967 में इंग्लैंड से भारत लौटते हैं। कार के लिए मारुति नाम क्यों रखा इसका अंदाजा अलग-अलग लोग अलग-अलग तरह से लगाते हैं। रामायण के एक पात्र हनुमान को मारुति नंदन भी कहा जाता है। इस पात्र की अनेक खासियतों में से एक है हवा में उड़ना। संजय को भी हवा में उड़ना बहुत पसंद था। उनकी मौत भी विमान उड़ाने के दौरान ही 23 जून 1980 को दिल्ली में हुई थी।

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अनुभवहीन कार निर्माता : मारुति को बनाने के लिए संजय गांधी के पास कोई खास ट्रेनिंग नहीं थी। जैसे तैसे स्कूल पास करने वाले संजय को कॉलेज की पढ़ाई में दिलचस्पी नहीं थी, इसलिए उन्हें इंग्लैंड में क्रूए स्थित रॉल्स रॉयस के कारखाने में पांच साल की अप्रेंटिसशिप के लिए भेज दिया गया था। हालांकि वह वहां भी नहीं टिके और तीन साल में ही अप्रेंटिसशिप छोड़कर भाग निकले।

कुल मिलाकर बात ये थी कि संजय के पास कार बनाने की योग्यता तो नहीं थी लेकिन जुनून भरपूर था। और इस जुनून को जमीन पर उतारने के लिए संजय के सामने सरकार बिछाने को तैयार थीं उनकी मां इंदिरा। संजय को कार बनाने के लिए लाइसेंस की जरूरत थी। सरकार ने सिट्रिऑन, रेनॉ और टोयोटा जैसी कंपनियों को किनारे लगा अनुभवहीन संजय गांधी को लाइसेंस दे दिया। साथ ही हरियाणा के तत्कालीन मुख्यमंत्री बंसीलाल से औने पौने दाम पर करोड़ों की 400 एकड़ जमीन भी दिलवा दी गई। पूंजी के लिए हाल ही में राष्ट्रीयकृत हुई बैंकों से 75 लाख का लोन भी दिलवा दिया गया, वो भी बिना गारंटी।

कार निकला बेकार : संजय के कार बनाने का सपना इंदिरा गांधी का सपना बन गया था यानी भारत सरकार का सपना बन गया था। इंदिरा अपने बेटे के सपनों के लिए अटल से लेकर फर्नांडिस तक की कटु आलोचना झेलती रहीं लेकिन संजय के सिर से हाथ नहीं हटाया। हालांकि सरकार सुविधा और साधन ही दे सकती थी, कार नहीं बना सकती थी। कार तो संजय गांधी को ही बनाना था, जो उन्हें बनाना आता नहीं था।

https://youtu.be/1zi9v07TVMA

पत्रकार और लेखिका सागरिका घोष ने अपनी किताब ‘इंदिरा’ में संजय की बनाई कार की सवारी करने वालीं पत्रकार का भयावह अनुभव दर्ज किया है। साल 1973 में मई का महीना था, पत्रकार उमा वासुदेव संजय की मारुति 800 देखने पहुंचीं। संजय उन्हें कार में बैठाकर 80 घंटे प्रति किलोमीटर की रफ्तार से फैक्ट्री परिसर का चक्कर लगाने लगे।

कार में डरकर बैठीं वासुदेव को जल्द पता चला गया कि कार नाकाम है। कार भयानक तरीके से गर्म हो रही थी और उससे तेल चू रहा था। उमा वासुदेव के अनुभव के आधार पर सागरिका लिखती हैं, ये साफ है कि संजय की कार ग्रामीण भारत में चलने वाले जुगाड़ वाहनों के बराबर भी नहीं था।