देश के कई राज्यों में राजनीति नई दिशाओं में मुड़ रही है। तमिलनाडु में भाजपा अपनी जमीन खोज रही है, हरियाणा में राज्यसभा को लेकर बेचैनी है, पंजाब में पुराने साथी फिर करीब आ रहे हैं और बिहार में निशांत राजनीति में आने को तैयार दिखते हैं।
पलानीस्वामी
भाजपा दक्षिण के राज्य तमिलनाडु में पांव पसारने को आतुर है। राज्य में विधानसभा चुनाव अगले साल होंगे। मुश्किल यह है कि दक्षिण के इस सूबे की राजनीति क्षेत्रीय दलों के प्रभाव से बाहर नहीं आ पा रही है। पहले डीएमके और एआइएडीएमके के बीच होती थी लड़ाई। मगर जयललिता की मौत के बाद एआइएडीएमके का पहले जैसा असर नहीं बचा। पार्टी बुरी तरह से बिखर भी गई। दो पूर्व मुख्यमंत्री ई पलानीस्वामी और ओ पन्नीरसेल्वम एक-दूसरे के धुर विरोधी हैं। एक खेमा शशिकला का भी है। उनके भतीजे दिनाकरन की अपनी पार्टी है। भाजपा ने लोकसभा चुनाव में अपना आधार तो बढ़ाया था, पर उसे कोई सीट नहीं मिल पाई थी। डीएमके को शिकस्त देने के लिए भाजपा बाकी सारे दलों को एनडीए में लाना चाहती है। दुविधा यह है कि पन्नीरसेल्वम को पलानीस्वामी बतौर मुख्यमंत्री स्वीकार नहीं हैं। इसी उधेड़बुन में पलानीस्वामी ने खेल कर दिया। एआइएडीएमके की बैठक बुलाई, उसमें प्रस्ताव पारित करा लिया कि राजग की सरकार बनेगी तो पलानीस्वामी ही मुख्यमंत्री होंगे। बुधवार की बैठक के बाद पलानीस्वामी ने दावा किया कि एआइएडीएमके और भाजपा का वोट मिलकर 41.33 फीसद बनता है और राजग 239 में से 210 सीट जीतेगा। हालांकि भाजपा इस दावे को जमीनी हकीकत से परे मान रही है। यह तय है कि भाजपा तमिलनाडु में अपना पूरा जोर लगाने वाली है।
चौधरी की बेचैनी
अगले साल अप्रैल में हरियाणा में राज्यसभा की दो सीटें खाली हो जाएंगी। एक किरण चौधरी की और दूसरी रामचंद्र जांगड़ा की। किरण चौधरी राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री बंसीलाल की बहू हैं। विधानसभा चुनाव से पहले पिछले साल वे कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हुई थीं। भाजपा ने दीपेंद्र हुड्डा के इस्तीफे से खाली हुई राज्यसभा सीट उपचुनाव में किरण चौधरी को दे दी थी। साथ ही उनकी बेटी श्रुति को विधानसभा टिकट दिया था। जीतने के बाद श्रुति राज्य सरकार में मंत्री भी बन गईं। विधायकों की संख्या के हिसाब से चुनाव में भाजपा को राज्यसभा की एक ही सीट मिल पाएगी। दूसरी सीट कांग्रेस को मिलेगी। क्या भाजपा अपनी इकलौती सीट फिर किरण चौधरी को देगी? जबकि उसके और भी कई दावेदार हैं। मसलन पार्टी के सूबेदार मोहन लाल बडोली और कैप्टन अभिमन्यु। ऐसे में किरण चौधरी का बेचैन होना स्वाभाविक है।
हिंदी सेवा में आई बाधा
संसद सत्र में कई मजेदार वाकये दिख जा रहे हैं। निचले सदन में चार बार सवाल पूछे जाने के बाद भी अंत में हार कर सांसद को नीचे बैठना पड़ा। हालात ऐसे थे कि मंत्री और सांसद दोनों ही अलग-अलग भाषाओं में संवाद कर रहे थे, जिस वजह से यह स्थिति पैदा हुई। बार- बार सवाल पूछने पर भी सांसद अपनी बात मंत्री तक नहीं पहुंचा पाए। अंत में सांसद को बाद में लिखित जानकारी देने का आश्वासन देना पड़ा। दरअसल सदन में अलग- अलग भाषा में संवाद के लिए आनलाइन व्यवस्था उपलब्ध है। इसकी मदद से ही अलग- अलग भाषाओं में संवाद संभव हो पाता है। लेकिन सत्र के दौरान इस पर हिंदी सेवा नहीं मिलने से मंत्री दूसरी भाषा का सवाल समझ नहीं पाए।
आएंगे साथ?
पंजाब का राजनीतिक मिजाज अलग ही है। यह एक ऐसा राज्य है, जहां आम आदमी पार्टी की सरकार है और कांग्रेस को भविष्य के लिए उम्मीद है। ऐसे हालात में सवाल उठ रहा कि क्या पंजाब में दो पुराने सहयोगी फिर साथ आएंगे? शिरोमणि अकाली दल और भाजपा का गठबंधन तीन दशक तक चला, पर पिछले विधानसभा चुनाव में टूट गया था। रिश्तों में दरार कृषि से जुड़े तीन कानूनों के खिलाफ चले किसान आंदोलन के कारण पड़ी थी। अकाली दल किसी भी तरह से किसान विरोधी नहीं दिखना चाहती थी। उस वक्त लग रहा था कि किसान आंदोलन भारतीय राजनीति की सूरत बदल देगा। भाजपा को लगा कि वह कांग्रेस का विकल्प बन सकती है। इसलिए उसने भी अकेले दल को साथ रखने में रुचि नहीं दिखाई। नतीजतन आम आदमी पार्टी की सरकार बन गई। कैप्टन अमरिंदर सिंह से हाथ मिलाने का भी भाजपा को लोकसभा चुनाव में लाभ नहीं हुआ। मार्च 2027 में राज्य में विधानसभा चुनाव होंगे। अकाली दल और भाजपा दोनों समझ चुके हैं कि अलग-अलग लड़कर जीत पाना संभव नहीं हो सकता। साथ आए तो लड़ाई त्रिकोणात्मक हो सकती है। ऐसी सूरत में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी को हराकर सत्ता हासिल करना मुमकिन होगा। सूत्रों की मानें तो दोनों पार्टियों में फिर गठबंधन के लिए प्रयास जारी हैं। जल्दी ही औपचारिक घोषणा की संभावना है। फिर तो हरसिमरत कौर केंद्र सरकार में मंत्री बन जाएंगी।
निशांत की मांग
आखिरकार नीतीश कुमार के बेटे निशांत का भी जल्द राजनीति में प्रवेश होने वाला है। विधानसभा चुनाव में बंपर सफलता के बाद जनता दल (एकी) बम-बम है। नीतीश नायक बन गए हैं। निशांत उनकी इकलौती संतान हैं। नीतीश खुद राजनीति में वंशवाद के खिलाफ रहे हैं। पर निशांत को राजनीति में लाने की मांग उनकी पार्टी के नेता कर रहे हैं। पहल पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष संजय झा ने की है। उपेंद्र कुशवाहा तो इसकी जरूरत पहले ही बता चुके हैं। पटना में पार्टी दफ्तर के बाहर इसके पोस्टर और होर्डिंग भी लग गए हैं। यह मांग करने वाले खुद को नीतीश का सेवक बता रहे हैं। 45 वर्षीय निशांत इंजीनियर हैं। उनके पिता भी राजनीति में आने से पहले इंजीनियर थे। नीतीश की सेहत और आयु को देखते हुए पार्टी को नीतीश के उत्तराधिकारी की जरूरत है भी। मुश्किल यह है कि निशांत को सियासत का अनुभव नहीं है। उलझन इस बात की है कि प्रवेश किस रूप में होगा। हो सकता है कि शुरू में उन्हें पार्टी की कमान सौंप दी जाए।
