भारत और अमेरिका के रिश्तों का सबसे मजबूत स्तंभ है रक्षा साझेदारी। दो दशकों में हुई हथियारों की खरीद, तकनीकी हस्तांतरण और हिंद- प्रशांत क्षेत्र में बढ़ते तालमेल से यह बात साबित होती है। ट्रंप के दूसरे कार्यकाल के दौरान शुल्क को लेकर डाले जा रहे दबाव के बीच व्यापार वार्ता को लेकर राजनीतिक और कूटनीतिक दबावों में रक्षा संबंध कसौटी पर हैं। खतरा यह भी है कि भारत-अमेरिका रिश्तों का स्वरूप कहीं क्रेता-विक्रेता के स्वरूप में ढलने न लग जाए।

ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में एक के बाद एक कई ऐसी घटनाएं हुई हैं, जिनसे आपसी संबंधों में दूरी बढ़ी है। हालांकि आपसी रिश्तों में आशा जगाने वाली प्रगति जारी रखी गई है। फिर भी ट्रंप के रवैए के कारण सोच बनी है कि दोनों देशों के बीच सबकुछ ठीक नहीं है। हाल में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और उनके अमेरिकी समकक्ष पीट हेगसेथ के बीच वार्ता हुई थी। उसके बाद राजनियक चैनल के माध्यम से बातचीत चल रही है। जिस रक्षा समझौते का मसविदे पर दोनों देश सहमत हुए, उसे भारत-अमेरिका सहयोग का अहम मोड़ बताया गया।

भारत और अमेरिका में रक्षा भागीदारी 1995 में हुई शुरू

भारत-अमेरिका रिश्तों का सबसे मजबूत आधार है रक्षा साझेदारी। दो दशकों में रक्षा, तकनीक और हिंद-प्रशांत तालमेल गहरा हुआ है। नए रक्षा समझौते को चार कारणों से अहम माना जा रहा है। यह समझौता ऐसे समय हुआ है जब ट्रंप ने भारत पर सबसे ज्यादा शुल्क लाद रखे हैं। दूसरी बात यह है कि भारत-अमेरिका रिश्तों में रक्षा और व्यापार का चोली-दामन जैसा साथ रहा है। इस दीर्घकालिक रक्षा समझौते से उम्मीद बनी है कि व्यापार समझौते को लेकर चल रही बातचीत देर-सबेर पटरी पर आ ही जाएगी। समझौते से न केवल भारत को अहम रक्षा उपकरणों की तेजी से आपूर्ति सुनिश्चित हुई है, बल्कि तकनीकी सहयोग और उसके हस्तांतरण की भी राह आसान बनी है।

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भारत और अमेरिका में रक्षा भागीदारी 1995 में शुरू हुई। इसे 2005 में तत्कालीन रक्षा मंत्री प्रणब मुखर्जी और उनके अमेरिकी समकक्ष डोनाल्ड रम्सफेल्ड ने बढ़ाया, जब भारत-अमेरिका रक्षा संबंधों के नए ढांचे पर हस्ताक्षर किए गए। जून 2015 में मनोहर पर्रिकर और अमेरिकी रक्षा मंत्री ऐश कार्टर ने नए समझौते पर हस्ताक्षर किए थे।

भारत-अमेरिका में रक्षा और सुरक्षा रिश्तों के लिहाज से 2025 के करार से नया रोडमैप तैयार होगा। युद्ध का स्वरूप जी से बदल रहा है। इस समझौते को खास तौर पर क्षेत्रीय स्थिरता, प्रतिरोध, तकनीकी सहयोग और सूचनाओं के लेन-देन के लिहाज से खास माना जा रहा है। यह समझौता हिंद-प्रशांत क्षेत्र में सुरक्षा और स्थिरता को लेकर दीर्घकालिक सामरिक नजरिया अपनाता है। इसमें मुक्त, खुले और नियम आधारित हिंद – प्रशांत पर जोर दिया गया है, इससे ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में क्षेत्रीय सुरक्षा को लेकर घटते भरोसे को इससे थोड़ी मजबूती मिलती है।

चीन को घेरने के लिए भारत को साधने की तैयारी

दूसरी ओर, हिंद-प्रशांत क्षेत्र की सुरक्षा को लेकर अमेरिका की घोषित प्रतिबद्धता और चीन के साथ आर्थिक समझौते पर पहुंचने की उसकी बेकरारी में विरोधाभास दिखता है। आसियान शिखर बैठक के दौरान हाल में हुए अमेरिका-चीन आर्थिक समझौते ने अमेरिकी कंपनियों को राहत भले पहुंचाई हो, इसने क्वाड ढांचे के तहत भारत, जापान और आस्ट्रेलिया जैसे क्षेत्रीय साझेदारों द्वारा बनाए गए तालमेल के लिए चिंता बढ़ाई है।

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दूसरी चिंता ट्रंप प्रशासन की ओर से निवेश बढ़ाने के लिए डाले जा रहे राजनीतिक और कूटनीतिक दबावों को लेकर है। डर है कि भारत-अमेरिका के रिश्तों का स्वरूप क्रेता – विक्रेता के ढांचे में ढलने न लग जाए। यह ऐसा माडल है, जिससे आगे बढ़ने का फैसला दोनों पक्ष 2015 के समझौते में ही कर चुके हैं। ऐसे में दोनों ही देशों को नए दशकीय समझौते को ध्यान में रखते हुए आगे बढ़ना चाहिए। दोनों यह भी सुनिश्चित करें कि यह साझेदारी साझा नवाचार, आपसी भरोसे और रणनीतिक गहराई से ताकत पाती रहे।

आगे की यात्रा को लेकर योजनाओं पर काम करना होगा। वर्ष 2035 में करार का नवीकरण होना चाहिए। वहां तक की यात्रा इस बात पर निर्भर करती है कि दोनों ही पक्ष इस रास्ते पर चलते हुए कितना सहयोग, सामंजस्य और समन्वय बनाए रख पाते हैं। सुरक्षा और रक्षा संबंधों का नया अध्याय भी इसी से तय होगा।

तालमेल का सवाल

भारत और अमेरिका, दोनों ही देशों को नए दशकीय समझौते को ध्यान में रखते हुए आगे बढ़ना चाहिए। दोनों यह भी सुनिश्चित करें कि यह साझेदारी साझा नवाचार, आपसी भरोसे और रणनीतिक गहराई से ताकत पाती रहे। आगे की योजनाओं पर काम करना होगा। वर्ष 2035 में करार का नवीकरण होना चाहिए। वहां तक की यात्रा इस बात पर निर्भर करती है कि दोनों ही पक्ष इस रास्ते पर चलते हुए कितना सहयोग, सामंजस्य और समन्वय बनाए रख पाते हैं। सुरक्षा और रक्षा संबंधों का नया अध्याय भी इसी से तय होगा।