उत्तर भारत में ई.वी. रामासामी नायकर ‘पेरियार’ को मुख्य रूप से नास्तिक और हिन्दी विरोधी के रूप में जाना जाता है। उनका यह परिचय गलत नहीं है, लेकिन एकांगी जरूर है। बहुत कम लोग जानते हैं कि पेरियार ने संन्यास लिया था। वह संन्यास लेकर उत्तर भारत ही आए थे। उन्होंने प्रसिद्ध हिन्दू तीर्थस्थल काशी में रहना चुना था। लेकिन वहीं हुई एक घटना ने उन्हें हमेशा-हमेशा के लिए बदल दिया और वह नास्तिक हो गए।
रूढ़िवादी परिवार में पैदा हुए थे पेरियार
पेरियार का जन्म 17 सितम्बर, 1879 को तमिलनाडु के इरोड कस्बे में हुआ था। पिता का नाम वेंकट नायकर और मां का नाम चिन्ना थयम्मल उर्फ मुथम्मल था। पेरियार के पिता अपने इलाके के प्रसिद्ध और समृद्ध व्यापारी थे। दिसंबर 1944 में कानपुर में दिए एक भाषण में पेरियार ने खुद कहा था, “मेरा परिवार एक रूढ़िवादी परिवार है। इसने मन्दिर और सराय बनवाने तथा भूखों को भोजन उपलब्ध कराने आदि का उपाय किया। परिवार के सदस्यों ने ऐसे परोपकारी कार्यों के लिए खुलकर दान भी दिया। एक ऐसे परिवार में पैदा होने के बावजूद कई लोग मुझे क्रान्तिकारी और चरमपंथी कहते हैं। उनके इस विचार के पीछे कारण यह है कि मैं अपने समाज के कुछ ऐसे पहलुओं पर चोट करता हूं, जो हमें नीचा दिखाते हैं।”
जब संन्यासी बनकर काशी पहुंचे पेरियार
राजकमल प्रकाशन ने तीन खंडों में पेरियार के जीवन और काम पर किताब छापी है। तीनों खंड का संपदान प्रमोद रंजन ने किया है। इन्हीं किताबों से पता चलता है कि पेरियार बचपन से जिज्ञासु थे। संन्यास की उत्सुकता ने उन्हें संन्यासी बना दिया। वह घर-परिवार छोड़कर गंगा नदी के तट पर स्थित काशी (वाराणसी) पहुंच गए। संन्यासी होने जाने की वजह से धर्मशालाओं आदि में नि:शुल्क भोजन की उम्मीद थी।
लेकिन उन्हें नि:शुल्क भोजन नहीं मिला। पता चला कि फ्री खाने की सुविधा केवल ब्राह्मणों के लिए है। कुछ दिनों तक भूखे रहने के बाद युवा पेरियार ने तरकीब निकाली। उन्होंने ब्राह्मण का वेश धारण किया। कंधे पर एक यज्ञोपवीत डाला और धर्मशाला में भोजन करने जा पहुंचे। लेकिन, उनकी मूंछों ने उन्हें धोखा दे दिया।
किताब के मुताबिक, द्वारपाल ने न केवल उन्हें प्रवेश करने से रोक दिया, बल्कि बहुत बेरुखी से सड़क पर धकेल दिया। उस वक्त चूंकि भीतर भोज समाप्त हो गया था, तो खाने के जूठी पत्तलें सड़क पर फेंक दी गई थीं। कई दिनों की भूख से तड़प रहे पेरियार ने मजबूर होकर गली में पड़ी जूठी पत्तलों में बचा-खुचा खाना खाया। इस दौरान तमाम कुत्ते भी उनके साथ उन्हीं पत्तलों में बचा-खुचा खाना खा रहे थे।
धर्मशाला की दीवार पर पड़ी नजर
खाना खाते समय पेरियार की नजर सामने की दीवार पर लिखे कुछ शब्दों पर पड़ी। वहां लिखा था- ‘उक्त धर्मशाला खासतौर पर सर्वोच्च वर्ण यानी ब्राह्मणों के लिए है। इस धर्मशाला का निर्माण तमिलनाडु के एक अमीर द्रविड़ व्यापारी ने करवाया था।’
अचानक पेरियार के मन में कुछ प्रश्न पैदा हुए। मसलन, ‘जब यह धर्मशाला एक द्रविड़ व्यापारी की बनवाई हुई है, तो ब्राह्मण अन्य द्रविड़ों को यहां भोजन करने से भला कैसे रोक सकते हैं? आखिर क्यों ब्राह्मण इतना क्रूर व्यवहार करते हैं कि वे द्रविड़ समेत अन्य समुदायों को भूखा मारने तक में गुरेज नहीं करते और उनकी यह जाति-व्यवस्था लोगों की जान तक ले लेती है?’ पेरियार को अपने सवालों का जवाब नहीं मिला।
किताब से पता चलता है कि काशी में ब्राह्मणों की वजह से हुए अपमान ने पेरियार के हृदय में गहरे जख्म कर दिए। इस वजह ने उनके मन में आर्य नस्ल तथा उसके असंख्य देवी-देवताओं के प्रति गहरी घृणा पैदा कर दी। पेरियार का उस तथाकथित पवित्र शहर से पूरी तरह मोहभंग हो गया। परिणामस्वरूप कुछ समय बाद अपने संन्यास पर पुनर्विचार कर वे दोबारा गृहस्थ जीवन की ओर लौट गए।