यह सच है कि जब तक आपके पास सत्ता की ताकत है, तब तक आप ‘सबकुछ’ हैं। लेकिन, उससे भी बड़ा सच यह है कि सत्ता कभी किसी का गुलाम नहीं रहती। जिस दिन आपकी कुर्सी चली जाती है, उसी दिन से आपकी स्थितियां बदलनी शुरू हो जाती हैं। यह भी सच है कि अपवाद के तौर पर कुछ ऐसे भी महापुरुष हुए, जिन्होंने कभी कुर्सी हासिल कर सत्ताधीश कहलाने का लोभ नहीं पाला और देश के बेहतर भविष्य के लिए अपना सर्वस्व होम करते रहे या किया। ऐसे ही महापुरुष थे महात्मा गांधी, जिन्होंने विश्व में स्थापित कर दिखाया कि निःशस्त्र होकर भी बड़े से बड़े ताकतवर को भी चारों खाने चित किया जा सकता है।
यह मात्र एक उदाहरण है, लेकिन यदि आजादी के वीरों—क्रांतिकारियों की बात करें, तो शहीद-ए-आजम भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, बटुकेश्वर दत्त जैसे हजारों क्रांतिकारी थे, जिन्होंने इस देश को बचाने, देश को आजाद कराने में आखिरी सांस तक दुश्मनों से लोहा लेते रहे और अपना सर्वोच्च बलिदान भी दिया। हम उन महान शहीदों, स्वतंत्रता सेनानियों को तहेदिल से नमन करते हैं। धन्य थे वे, जिन्होंने अपना नहीं, बल्कि देश की आनेवाली पीढ़ियों का ही हमेशा हित-लाभ देखा।
इतिहास में भी नहीं दिखता राजनेताओं द्वारा अपशब्दों का इस्तेमाल
यदि आज के राजनीतिज्ञों को उसी पैमाने पर तौलें, तो क्या बानगी होगी, इसे आज के समाज को समझने की अनिवार्य आवश्यकता है। हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने देश पर राज करने वाले अंग्रेजों के खिलाफ कभी भी अपशब्दों का प्रयोग किया हो, ऐसा इतिहास में देखने को कहीं नहीं मिलता। दरअसल, वे जान की परवाह किए बिना चुनौतियों, आक्रांताओं से जूझ जाते थे, लेकिन अपशब्द का प्रयोग कभी नहीं करते थे, न ही उनके पुरखों को गाली देते थे। लेकिन, अभी देश में सात चरणों में हो रहे लोकसभा चुनाव के दो ही चरण संपन्न हुए हैं और सत्तापक्ष व विपक्ष जिस प्रकार एक—दूसरे के लिए गाली—गलौज पर उतर आए हैं, उससे लोकतांत्रिक प्रक्रिया को तार—तार होते हर कोई देख सकता है।

प्रधानमंत्री भी देते हैं विवादित बयान
चुनावी भाषणों में जिन विशेषणों का प्रयोग एक पक्ष दूसरे पक्ष के लिए करने लगे हैं, वे नितांत शर्मसार करने वाले होते हैं। यहां तक कि प्रधानमंत्री स्वयं इस शब्दावली का प्रयोग करने से कतई नहीं चूकते, जैसा कि पिछले दिनों कर्नाटक की एक चुनावी सभा को संबोधित करते हुए तंज कसा और कहा, ‘कांग्रेस ने तुष्टिकरण और वोट बैंक को ध्यान में रखकर इतिहास लिखवाया। आज भी कांग्रेस के ‘शहजादे’ (राहुल गांधी) उस पाप को आगे बढ़ा रहे हैं।’ वहीं, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ कहते हैं कि ‘दंगे और देश का विभाजन करना चाहता है विपक्ष।’ समझ में यह बात नहीं आती कि राज्य और केंद्र, दोनों जगह जब आपकी ही सरकार है, तो इस लिहाज से जनता की सुख—शांति की जिम्मेदारी भी आपकी सरकार की ही बनती है, फिर विपक्ष देश का विभाजन कैसे करा सकता है?
वहीं, राजग, इंडिया गठबंधन और बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव आरोप लगाते हैं कि ‘मोदी समाज में विघटन और विभाजन पैदा करना चाहते हैं।’ इस तरह के आरोप—प्रत्यारोप और अनर्गल शब्दों का प्रयोग जो समाज के पथ—प्रदर्शक माने जाते हैं, उनके द्वारा किए जाने की उम्मीद आज का समाज नहीं करता है।

सत्ता की कुर्सी के लिए अमर्यादित भाषा का इस्तेमाल?
प्रश्न यहां यह भी है कि क्या हमारे ये मार्गदर्शक इसलिए इस भाषा का प्रयोग करते हैं कि जनता में सत्तारूढ़ या विपक्षियों का मन उनकी ओर आकर्षित हो और उनकी बातों में आकर उनके पक्ष में मतदान करके उन्हें सत्ता की कुर्सी हासिल करा दे? इसीलिए कहा तो यह भी जाता है कि दुनिया में राजनीतिज्ञों का एक खेल चलता रहता है। भारत में भी चल रहा है और जनता मूर्ख बनती रहती है। उन दोनों पार्टियों में एक सत्ता में होती है और उसे जो करना होता है, करती ही रहती है। जो पार्टी सत्ता में नहीं होती है, बाहर रह कर वह अपनी ताकत जुटाती है और इसी के बल पर सत्ता में आ जाती है या उसके आने की संभावना बन जाती है। दोनों के बीच जनता को गुमराह करने का एक षड्यंत्र होता है। एक सत्ता में होता है, दूसरा आलोचक हो जाता है। ऐसा ही अपने देश में भी हो रहा है।
काश, ऐसा नहीं होता और देश में किसने क्या किया, इस पर दोनों पक्ष द्वारा सार्वजनिक रूप से बहस होती, ताकि जनता के समक्ष दूध का दूध और पानी का पानी हो जाता। उसका भ्रम दूर हो जाता। इस तरह के सार्वजनिक बहस तो विश्व के विकसित कई लोकतांत्रिक देशों में होता रहा है, तो फिर भारत में ऐसा क्यों नहीं हो सकता। कहीं इसका अर्थ यह तो नहीं कि राजनीतिज्ञ अभी भी भारत की जनता को उस योग्य नहीं मानते कि उनके समक्ष सार्वजनिक रूप से यह स्पष्ट कर सके कि हमारा देश अभी विकसित नहीं हुआ है या समाज उस तरह से शिक्षित नहीं हो सका है जिनके समक्ष बहस में वे अपनी बात रख सकें।

कौन उठाएगा सवाल?
यदि हमारा देश, हमारी जनता उस तरह से विकसित नहीं हुई है, तो इसमें किसका दोष है? क्या उस जनता का या उस पर राज करने वाले उन नेताओं का, जिन पर उसे विकसित करने का और देश को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी रहती है?
जब आज सत्तारूढ़ द्वारा पिछली सरकारों पर यह आरोप लगाया जाता है कि आजादी के सत्तर वर्षों में देश का विकास नहीं हुआ, तो आज के सत्तारूढ़ से यह प्रश्न नहीं किया जाना चाहिए कि उसके द्वारा पिछले दस वर्षों में देश के विकास के लिए क्या-क्या किया गया?
क्या चुनाव परिणाम से जनता देगी जवाब?
चुनाव के पांच चरण अभी शेष हैं। परिणाम 4 जून को देश के सामने होंगे, लेकिन इस बीच समाज में और कितनी गंदगी फैलाई जाएगी? सामाजिक भाईचारे को कितना खत्म किया जाएगा? जीत-हार तो लोकतांत्रिक देशों की एक प्रक्रिया है, लेकिन पार्टियों द्वारा भाईचारे को खत्म करने को ठान लिया जाए, जो समाज में विग्रह को जन्म दे, तो फिर आखिर हम किस आधार पर लोकतंत्र को जनहित के लिए श्रेष्ठ प्रक्रिया मानें?
हमारे देश की जनता ऐसी नहीं है, जो राजनीतिज्ञों की इस कुटिल चाल को नहीं समझती है। सच यह है कि उसकी नजर सभी पर होती है, लेकिन उन्हें इंतजार केवल चुनाव का रहता है, ताकि छल करने वालों को वह संविधान द्वारा प्रदत्त अपने अधिकार से एक वोट देकर अपनी बुद्धि और शक्ति का परिचय दे सकें।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं। यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैंं।)