गुजरात विधानसभा चुनाव को लेकर सियासी उठापटक जारी है। तमाम राजनीतिक दल गुजरात की जनता को लुभाने की कोशिश में हैं। अलग-अलग वर्ग पर डोरे डाल रहे हैं, जिनमें आदिवासी समुदाय भी प्रमुख है। 15 प्रतिशत आबादी वाले आदिवासी समुदाय का वोटों के लिहाज से सूबे की राजनीति में काफी अहम प्रभाव है। यह समुदाय कई सीटों पर निर्णायक भूमिका निभाता है।

क्यों प्रभावशाली कहा जाता है आदिवासी समुदाय?

गुजरात में 15 फीसदी आबादी वाला यह समुदाय कई जातियों में बंटा हुआ है। इनमें भील, डुबला, धोडिया, राठवा, वर्ली, गावित, कोकना, नाइकड़ा, चौधरी, धानका, पटेलिया और कोली (आदिवासी) हैं। गुजरात विधानसभा की 182 विधानसभा सीटों में से 27 सीटों पर इनका अच्छा खासा प्रभाव है। बनासकांठा, साबरकांठा, अरवल्ली, महिसागर, पंचमकाल दाहोद, छोटा उदेपुर, नर्मदा, भरूच , तापी, वलसाड, नवसारी, डांग, सूरत सहित गुजरात के कई इलाकों में आदिवासी समुदाय फैला हुआ है। इस समुदाय के इसी राजनीतिक प्रभाव को सभी राजनीति दल ठीक तरह से समझते हैं।

गुजरात की राजनीति में इस समुदाय की हनक को एक उदाहरण से समझा जा सकता है। हाल ही में गुजरात सरकार ने आदिवासी समुदाय के विरोध के बाद पार-तापी नर्मदा लिंक परियोजना रद्द करने की घोषणा की। यह परियोजना भाजपा के लिए काफी अहम थी, लेकिन इससे पीछे हटना साफ दिखाता है कि भाजपा इस वर्ग के वोट के प्रभाव को समझती है।

कांग्रेस का रहा है प्रभाव, भाजपा-आप कैसे बदलेंगे तस्वीर

पिछले दिनों जब द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति बनाया गया तो सियासी गलियारे में यह चर्चा भी थी कि बीजेपी ने गुजरात चुनाव को ध्यान में रखते हुए यह कदम उठाया। इसे गुजरात के आदिवासी वोटरों को लुभाने के स्टेप के तौर पर देखा गया। गुजरात में, 2017 के विधानसभा चुनाव के मुकाबले भाजपा ने 2019 के लोकसभा चुनाव में बेहतर प्रदर्शन किया था, इस चुनाव में बीजेपी का वोट शेयर बढ़कर 52 फीसदी हो गया जबकि कांग्रेस का 38 फीसदी था।

उधर, कांग्रेस ढाई दशक से गुजरात की सत्ता से बाहर है लेकिन आदिवासी समुदाय के बीच पार्टी का प्रभाव 2017 के चुनाव तक बरकरार रहा है। इसका अंदाजा हम इस आंकड़े से लगा सकते हैं कि एसटी की 27 आरक्षित सीटों में से कांग्रेस और बीटीपी ने 18 सीटें हासिल की थी। ऐसे में आने वाले चुनाव में जहां कांग्रेस अपनी इस बढ़त को कायम रखना चाहेगी, वहीं भाजपा और आम आदमी पार्टी भी बढ़त हासिल करने का प्रयास करेगी।

अरविंद केजरीवाल ने चला दांव

सूबे में अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी पूरा दमखम दिखा रही है और पेसा एक्ट (पंचायत एक्सटेंशन टू द शेड्यूल एरियाज) पर दांव चला है। इस एक्ट को 1996 में लागू किया गया था। इस कानून को लाने का उद्देश्य अनुसूचित क्षेत्रों या आदिवासी क्षेत्रों में रह रहे लोगों के लिए ग्राम सभा के द्वारा स्वशासन को बढ़ावा देना है। यह कानून आदिवासी समुदाय को स्वशासन की खुद की प्रणाली पर आधारित शासन का अधिकार प्रदान करता है और ग्राम सभा को विकास योजनाओं को मंजूरी देने और सभी सामाजिक क्षेत्रों को नियंत्रित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने का अधिकार देता है।

केजरीवाल ने छोटा उदयपुर जिले में आदिवासियों के लिए छह सूत्रीय गारंटी के साथ ही ‘पेसा एक्ट’ को सख्ती से लागू करने की घोषणा की है। उन्होंने वादा भी किया है कि आदिवासी सलाहकार समिति का नेतृत्व मुख्यमंत्री नहीं आदिवासी समुदाय का कोई इंसान करेगा, वहीं भाजपा और कांग्रेस सरकार भी पेसा एक्ट के जरिए आदिवासियों को मिले अधिकार की सुरक्षा का वादा करते रहे हैं।