नेपाल में सोशल मीडिया पर प्रतिबंध के बाद शुरू हुए GEN-Z प्रोटेस्ट ने केपी शर्मा ओली की कुर्सी छीन ली। नेपाल में चल रहे इस आंदोलन की शुरुआत के पीछे भले ही सोशल मीडिया पर बैन को वजह बताया जा रहा है लेकिन हकीकत ये है कि इसके पीछे और भी कई कारण हैं। इन वजहों में विदेशों में रह रहे नेपाली नागरिक और उनके द्वारा नेपाल भेजे जाने वाला धन (remittance) भी शामिल है।
भारत के पड़ोसी देश नेपाल की आठ फीसदी से ज्यादा आबादी विदेश में रहती है और काम करती है। उनके द्वारा उस नेपाल भेजी जाने वाला धन नेपाल के GDP के 33% से ज्यादा है। इस मामले में टोंगा, ताजिकिस्तान और लेबनान नेपाल से पहले आते हैं।
विदेश में रहने वाले इन नेपाली नागरिकों के लिए फेसबुक और व्हाट्सएप जैसे ऐप अपने परिवारों और रिश्तेदारों से संंपर्क बनाए रखने के लिए बेहद जरूरी हैं। द इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, ये लोग अन्य देशों में इसलिए काम करते हैं ंक्योंकि नेपाल में उनके लिए अवसर कम होते जा रहे हैं और यही सब अशांंति को बढ़ावा दे रहा था। नेपाल सरकार द्वारा सोशल मीडिया पर प्रतिबंध लगाना जख्मों पर नमक लगाने जैसा ही था।
जनसंख्या के लिहाज से महत्वपूर्ण बदलाव देख रहा नेपाल
नेपाल की जनसंख्या 30 मिलियन से ज्यादा है। इसमें 16-25 साल की उम्र के युवाओं की संख्या 20% से ज्यादा है जबकि 16-40 साल के बीच के युवा 40% से अधिक हैं। काठमांडू स्थित दक्षिण एशियाई अध्ययन केंद्र की शोध अधिकारी आशियाना अधिकारी के अनुसार, नेपाल की जनसंख्या से जुड़े ये आकंंड़े नेपाल के “युवा उभार” या “जनसंख्या लाभांश” को उजागर करते हैं।
Nepal Protest News Latest Update
नेपाल में चल रहा प्रदर्शन ऐसे समय हुआ है, जब बेहतर शिक्षा और रोजगार के अवसरों की तलाश में विदेश जाने वाले युवा नेपाली श्रमिकों की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। ऐसे में नेपाल से बाहर जाने की प्रवृत्ति का दोहरा आर्थिक प्रभाव पड़ता है- एक तरफ जहांं इससे नेपाल भेजे गए धन के जरिए से GDP में उल्लेखनीय वृद्धि होती है, वहीं दूसरी ओर इसके परिणामस्वरूप अधिकांश उभरते क्षेत्रों में प्रतिभा पलायन भी होता है।
आशियाना अधिकारी के अनुसार, युवाओं के बाहर जाने से नेपाल को अपने नौजवानों से मिलने वाला पूरा फायदा नहीं मिल पाता।
नेपाल के कई ग्रामीण इलाकों में लोगों के विदेश से भेजे पैसे (रेमिटेंस) आने के बाद खेती-बाड़ी में रुचि कम हो गई है। नौजवान और काबिल लोग खेती करने के बजाय बाहर काम करने जाना पसंद करते हैं, जिससे बहुत सी जमीनें खाली पड़ी रह जाती हैं।

इसका नतीजा यह हुआ कि गांवों में स्थानीय अनाज और खाने-पीने की चीजें की पैदावर कम हो गई और लोग बाहर से सामान मंगाने पर ज्यादा निर्भर हो गए। विदेश से आने वाले पैसों के सहारे, नेपाल में बचे लोग काम ढूंढने या आर्थिक गतिविधियों में शामिल होने से बचने लगे। वे रोजमर्रा की जरूरतों के लिए उन्हीं पैसों पर निर्भर रहने लगे, जिससे यह समस्या और बढ़ती चली गई।
गैर-कृषि क्षेत्र में पर्याप्त और अच्छे अवसर नहीं
विश्व बैंक के अनुमान के मुताबिक, नेपाल में गरीबी काफी कम हुई है। 1995 में जहां लगभग 90% लोग रोज़ाना 6.85 अमेरिकी डॉलर (या उससे कम) पर गुजारा करते थे, वहीं 2023 तक यह संख्या घटकर 50% से भी कम रह गई। यह उपलब्धि होने के बावजूद सच्चाई यह है कि नेपाल की अर्थव्यवस्था क्षेत्रीय और वैश्विक स्तर पर पीछे रह गई है और गैर-कृषि क्षेत्र में पर्याप्त और अच्छे अवसर नहीं बना पाई है।
विश्व बैंक के अनुसार, 1996 से 2023 के बीच नेपाल की अर्थव्यवस्था औसतन हर साल 4.2% की दर से बढ़ी। यह दर घरेलू संघर्ष और बाहरी झटकों जैसी चुनौतियों को देखते हुए ठीक मानी जा सकती है, लेकिन फिर भी नेपाल अपने पड़ोसी देशों से पीछे रहा। दक्षिण एशिया के आठ देशों में नेपाल छठे नंबर पर रहा। गरीबी कम होने और मुश्किल समय में अर्थव्यवस्था को संभालने की सबसे बड़ी वजह लोगों का विदेश जाना) और वहां से आने वाला पैसा (रेमिटेंस) रहा, जो अब नेपाल की अर्थव्यवस्था के लिए बेहद अहम बन चुका है।
इस बीच नेपाल की कुल श्रम उत्पादकता कम ही रही। परिवहन और सामान ढोने (लॉजिस्टिक्स) में प्रतिस्पर्धा कमजोर रही, बुनियादी ढांचा भी ठीक नहीं था और निर्यात सीमित रहे। इन कारणों से पिछले दशकों में असली आर्थिक विकास नहीं हो पाया। ऊपर से मजबूत विदेशी मुद्रा दरें और घरेलू व्यापार नीतियां – जैसे ऊंचे आयात शुल्क और टैक्स – ने निर्यात को और मुश्किल बना दिया।
निर्माण (मैन्युफैक्चरिंग) क्षेत्र, जो पहले से कमजोर था, उसमें लगातार गिरावट देखी जा रही है। नेपाल में पर्यटन क्षेत्र रोजगार और विकास का बड़ा साधन हो सकता था लेकिन यह पर्याप्त रूप से नहीं बढ़ पाया। जलविद्युत (हाइड्रोपावर) का विकास भी बहुत धीमा रहा, जिससे अर्थव्यवस्था को बदलने और तेजी से आगे ले जाने की संभावना सीमित रह गई।
त्रिभुवन विश्वविद्यालय के केंद्रीय अर्थशास्त्र विभाग के रेशम थापा-पराजुली द्वारा की गई एक स्टडी ‘The Role of Remittances in Household Spending in Rural Nepal’ में विदेश से आने वाले पैसों (रेमिटेंस) का ग्रामीण नेपाल के परिवारों के खर्च पर असर देखा गया। इस शोध में पाया गया कि विदेश से आने वाला पैसा परिवारों के कुल खर्च पर सीधा और सकारात्मक असर डालता है। स्टडी में यह भी पता चला कि घर में बुज़ुर्ग सदस्य होने पर कुल खर्च कम हो जाता है। इसकी वजह यह हो सकती है कि बुज़ुर्गों की ज़रूरतें कम होती हैं या वे घर की आमदनी में किसी रूप में योगदान दे देते हैं।
नेपाल राष्ट्र बैंक के अनुसंधान विभाग के पूर्व उप-निदेशक भुवनेश पंत ने एक पेपर में कहा कि भले ही विदेश से आने वाले पैसों की असली मात्रा का सही डेटा उपलब्ध नहीं है, लेकिन इसके काफी सबूत हैं कि यह पैसा बहुत ज्यादा और स्थिर रूप से आता है। यह दूसरे विकास वित्त स्रोतों की तुलना में अधिक भरोसेमंद है और सीधे जरूरतमंद परिवारों तक पहुंचता है। रेमिटेंस एक तरफ संकट के समय सहारा देता है और दूसरी तरफ परिवारों की आमदनी को संतुलित बनाए रखने का साधन भी बनता है।
भुवनेश पंत के अनुसार जैसे-जैसे रोजगार के लिए विदेश जाने वाले कामगारों की संख्या बढ़ रही है, वैसे-वैसे रेमिटेंस भी नेपाल के लिए विदेशी मुद्रा का एक अहम स्रोत बनता जा रहा है। यह आंशिक रूप से उन कदमों का नतीजा है जो अधिकारियों ने वित्तीय व्यवस्था को आसान बनाने, अनावश्यक नियंत्रण हटाने और प्रोत्साहन देने के लिए उठाए। इसका मकसद यह था कि लोग खासकर आधिकारिक चैनलों के जरिए ही पैसा नेपाल भेजें।
पंत का कहना था कि अगर रेमिटेंस को आधिकारिक चैनलों से लाने और विदेशी मुद्रा को स्थानीय करेंसी में बदलने की प्रवृत्ति को बढ़ावा देना है, तो सरकारी नीतियांं ऐसी होनी चाहिए जो इस प्रक्रिया को आसान और प्रोत्साहित करें। लेकिन सोशल मीडिया पर लगाया गया बैन इसके बिल्कुल उलट संदेश लेकर आया और इसने संकट को और बढ़ा दिया।
यह भी पढ़ें: ट्यूशन पढ़ने आई छात्रा नहीं जा सकती नेपाल, Gen Z के हिंसक प्रदर्शन के कारण रक्सौल-नेपाल सीमा पर क्या है स्थिति?