फैमिली मैन 3 में एक छोटा-सा सीन भारत और बर्मा के बीच चले लंबे आवाजाही के इतिहास की ओर इशारा करता है, और बताता है कि मणिपुर का मोरेह शहर हजारों तमिल बोलने वाले परिवारों का घर कैसे बना। नए सीजन में एक पल ऐसा आता है जब श्रीकांत तिवारी (मनोज बाजपेयी), जेके (शरीब हाशमी) और स्टीफन खुजौ (पालिन कबक) मोरेह के एक छोटे रेस्टोरेंट में पुलिसवाले माइकल (विजय सेतुपति) से मिलते हैं। रेस्टोरेंट की दीवारों पर तमिल फिल्मों के सितारों की तस्वीरें लगी हैं और मेन्यू भी तमिल में लिखा है। तभी जेके सवाल पूछता है – “मोरेह में इतने तमिल लोग कैसे?” – और यहीं से कॉलोनियल दौर की आवाजाही और आजादी के बाद हुए विस्थापन की एक लगभग भुला दी गई कहानी सामने आने लगती है।
मोरेह में आज तमिल बोलने वालों की अच्छी-खासी आबादी है। मोरेह तमिल संगम के अनुसार, इस इलाके में करीब 3,000 तमिल भाषी लोग रहते हैं। वे यहां मौजूद कई प्रवासी समुदायों का हिस्सा हैं, जिनमें बंगाली, मारवाड़ी, तेलुगु, पंजाबी और बिहारी शामिल हैं – वे समूह जिनकी मौजूदगी उस समय से है, जब आज का म्यांमार (तब बर्मा) और भारत ब्रिटिश शासन के अंतर्गत आपस में जुड़े हुए शाही इलाके थे।
बर्मा में माइग्रेशन
इस कहानी की शुरुआत 19वीं सदी से होती है, जब अंग्रेजों ने कलकत्ता के पूर्व में अपने साम्राज्य को मजबूत करना शुरू किया। 1820 के दशक के मध्य से भारतीय ग्रामीण मजदूरों, डॉक वर्कर्स, व्यापारियों, सरकारी कर्मचारियों और सुरक्षाबलों के बड़े समूह को ब्रिटिश-शासित बर्मा लाया गया।
1900 के शुरुआती वर्षों तक रंगून एक भव्य औपनिवेशिक महानगर बन चुका था, जहां चौड़े विक्टोरियन बुलेवार्ड और ट्रॉपिकल फूलों से भरे बगीचे थे। बर्मा की बढ़ती अर्थव्यवस्था ने पूरे उपमहाद्वीप से व्यापारियों को आकर्षित किया।
क्या है तमिलनाडु का कार्तिगई दीपम विवाद? बीजेपी ने DMK सरकार पर साधा निशाना
इतिहासकार सैम डेलरिम्पल अपनी किताब शैटर्ड लैंड्स में लिखते हैं कि 1920 के दशक में “अटलांटिक महासागर पार जाने वालों से ज्यादा भारतीय मजदूर बर्मा के लिए रवाना होते थे।” बर्मा का सपना तेजी से “अमेरिकन ड्रीम” को पीछे छोड़ रहा था। डेलरिम्पल एक ब्रिटिश अधिकारी का हवाला देते हैं जिसने लिखा, “रंगून हाल तक न्यूयॉर्क के बाद दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा इमिग्रेशन पोर्ट था। अब यह दुनिया का पहला इमिग्रेशन और एमिग्रेशन पोर्ट बन चुका है।”
भारतीय समुदाय खासकर तमिलनाडु के चेट्टियार बर्मा की अर्थव्यवस्था में अहम भूमिका निभाते थे। आर्थिक इतिहासकार रमन महादेवन ने 1978 में लिखे अपने अध्ययन में बताया है कि चेट्टियार दक्षिण भारत का समृद्ध व्यापारिक समुदाय था। 19वीं सदी में वे अपनी पूंजी मद्रास क्षेत्र से उन इलाकों में ले जा रहे थे जहां औपनिवेशिक व्यापार तेजी से बढ़ रहा था – बर्मा उनमें प्रमुख था।
इन इलाकों में चावल, चाय, कॉफी, रबर जैसी व्यावसायिक फसलों के फैलाव ने बड़ी मात्रा में क्रेडिट की मांग बढ़ा दी। मद्रास में मनीलेंडिंग कम लाभदायक होने लगी, जिससे माइग्रेशन और तेज हो गया। महादेवन के अनुसार 1826 से 1929 के बीच चेट्टियारों की तीन बड़ी माइग्रेशन लहरें बर्मा की ओर गईं।
लेकिन रंगून के सभी लोग इन प्रवासियों का स्वागत नहीं कर रहे थे। मूल बर्मी आबादी खुद को धीरे-धीरे नौकरियों से बाहर महसूस करने लगी। बर्मा, जो ब्रिटिश भारत का सबसे बड़ा और समृद्ध प्रांत था, भारतीय राजनीति में हाशिये पर चला गया। डेलरिम्पल के मुताबिक बर्मा को “सिंड्रेला प्रांत” कहा जाता था – सुंदर लेकिन अनदेखा।
1930 के दशक में ग्रेट डिप्रेशन ने स्थानीय असंतोष भड़का दिया और भारतीय प्रवासियों के खिलाफ सांप्रदायिक हिंसा बढ़ी। 1937 में बर्मा को ब्रिटिश भारत से अलग किए जाने के बाद कट्टरपंथी कानून बने, जिनका उद्देश्य विदेशियों के प्रभाव को कम करना और भारत से आने वाले इमिग्रेशन पर रोक लगाना था। चेट्टियार तब अपनी संपत्ति वापस मद्रास भेजने वालों में सबसे पहले थे।
1942 में जापानी हमले के बाद बर्मा से भारतीयों का बड़े पैमाने पर पलायन हुआ। राजनीतिक वैज्ञानिक रेनॉड एग्रेटो के अनुसार जनवरी से जून 1942 के बीच लगभग पांच लाख भारतीय बर्मा से भागे।
Explained: रूस के एस-500 एयर डिफेंस सिस्टम से एस-400 कितना अलग? भारत खरीदने पर कर रहा विचार
1948 में म्यांमार की आजादी ने भारतीय समुदाय के लिए एक और मुश्किल दौर खड़ा कर दिया। नए संविधान और नागरिकता कानूनों ने ‘राष्ट्रीय नस्लों’ की अवधारणा पेश की, जिसकी परिभाषा अस्पष्ट थी और अधिकारियों द्वारा अलग-अलग तरीके से व्याख्यायित की जाती थी। नतीजतन कई पहाड़ी समुदायों को तो नए राष्ट्र में शामिल किया गया, लेकिन भारतीयों को ज्यादातर बाहर रखा गया।
1962 में जनरल ने विन के सैन्य शासन के आने के बाद भारतीय समुदाय पर दबाव और बढ़ा। उन्होंने ‘बर्मीज वे टू सोशलिज्म’ नाम से व्यापक राष्ट्रीयकरण नीति लागू की, जिसने खास तौर पर भारतीय समुदाय को प्रभावित किया। नोरियुकु ओसाडा के अनुसार, 1960 के दशक के अंत तक कम से कम 3 लाख भारतीयों को भारत भेज दिया गया, जबकि बाकी लोग पाकिस्तान, थाईलैंड और सिंगापुर समेत अन्य देशों में चले गए।
मोरेह में ‘बर्मीज कॉलोनी’ का उदय
ज्यादातर म्यांमार-भारतीय अपने ‘घर’ – अपने जन्मस्थान या पूर्वजों की भूमि – लौट आए। लेकिन वहां की जिंदगी आसान नहीं थी। 1947 के बाद सरकार ने पश्चिम पंजाब और पूर्वी बंगाल से आए लोगों के लिए विभिन्न पुनर्वास योजनाएं शुरू की थीं, जिन्हें 1963 में म्यांमार से आए लोगों के लिए भी विस्तारित किया गया। ‘वापस आने वालों’ को यांगून और भारतीय बंदरगाहों के बीच जहाजों से लाया जाता था और उन्हें ‘पेरी-अर्बन’ कॉलोनियों या ग्रामीण इलाकों में बसाया जाता था। इन्हीं कॉलोनियों को ‘बर्मीज कॉलोनी’ कहा जाता था। ऐसी कॉलोनियां पूर्वी भारत के कई हिस्सों में साथ ही दिल्ली, बिहार और उत्तर प्रदेश में भी थीं। इनमें से मोरेह अपनी म्यांमार से नजदीकी के कारण खास महत्व रखता था।
मद्रास हाई कोर्ट ने थिरुपरनकुंद्रम का नाम क्यों बरकरार रखा, मंदिर और दरगाह के बीच क्या विवाद था?
रिहैबिलिटेशन कार्यक्रमों के बावजूद, लौटे हुए लोगों के लिए नई जगहों में बसना आसान नहीं था। उन्हें ऐसे माहौल और संस्कृति में ढलना पड़ा जो म्यांमार से बिल्कुल अलग था। इसलिए, कई लोगों ने म्यांमार वापस लौटने की कोशिश की। लेकिन बॉर्डर की सुरक्षा होने के कारण वे पार नहीं जा सके। ऐसे में, वे मोरेह में बस गए – वह शहर जहां पहले से कई लौटे हुए म्यांमार-भारतीय आश्रय पा चुके थे।
ओसाडा ने अपने काम में अब्दुल हासिम का उदाहरण दिया है – 1953 में यांगून में जन्मे एक तमिल मुस्लिम। ने विन शासन की मुश्किलों के कारण वे 1964 में चेन्नई भेजे गए और वहां एक कैंप में रहे। म्यांमार में वे एक शिपिंग कंपनी में अच्छी सैलरी पर काम करते थे, इसलिए चेन्नई की कठिन जिंदगी उन्हें रास नहीं आई। 1967 में उन्होंने वापस म्यांमार जाने की कोशिश की, लेकिन बॉर्डर पार न कर पाने के कारण वे मोरेह में बस गए। हासिम जैसे कई लोगों के अनुसार, मोरेह को म्यांमार-भारतीयों ने ही बसाया।
जब हासिम मोरेह पहुंचे, तब वहां कुछ ही घर थे – जिनमें ज्यादातर तमिल परिवार रहते थे। बढ़ती आबादी और परस्पर सहयोग के लिए उन्होंने 1986-87 में मोरेह तमिल संगम की स्थापना की। समय के साथ, म्यांमार से लौटे बंगाली, मारवाड़ी, तेलुगु, बिहारी और अन्य समुदायों के लोग भी मोरेह में आकर बस गए। अपने नए नॉर्थ-ईस्ट घर में, उन्होंने आपसी संवाद और बॉर्डर पार समुदायों से जुड़ने के लिए बर्मी भाषा का इस्तेमाल किया और यहीं अपनी नई जिंदगी की शुरुआत की।
