हफ्तेभर की राजनीति में तमिलनाडु, बिहार और पंजाब-हरियाणा से खबरें जोरदार रहीं। अन्ना द्रमुक में ईपीएस और ओपीएस के बीच खींचतान ने भाजपा की चिंता बढ़ाई। बिहार में बसपा और महागठबंधन के सीट बंटवारे को लेकर हलचल जारी है। पंजाब और हरियाणा की बाढ़ में राजनीतिक रंग दिखा। नेताओं की रणनीतियां और गुटबाजी जनता और चुनावी हालात पर असर डालती दिख रही हैं।
तमिलनाडु में पलानीस्वामी और पनीरसेल्वम टकराव
अन्ना द्रमुक की गुटबाजी ने भाजपा की चिंता बढ़ा दी है। अभी अन्ना द्रमुक राजग में भाजपा की सहयोगी है। पार्टी पर वर्चस्व पूर्व मुख्यमंत्री ई पलानीस्वामी का है। जिन्हें आम बोलचाल में ईपीएस कहते हैं। उनकी ओ पनीरसेल्वम से कतई नहीं पटती। पनीरसेल्वम जयललिता के जीवन काल में दो बार तमिलनाडु के मुख्यमंत्री रहे हैं। वे ओपीएस नाम से मशहूर हैं। भाजपा का तमिलनाडु में अपना खास जनाधार नहीं है। हालांकि 1998 में जब भाजपा का अन्ना द्रमुक से तालमेल था तो उसने तमिलनाडु में लोकसभा चुनाव में कुछ सीटें जीती थी।
पिछले कुछ वर्षों में प्रधानमंत्री और गृहमंत्री का तमिलनाडु पर विशेष ध्यान रहा है। अब उपराष्ट्रपति पद भी भाजपा ने तमिलनाडु को दे दिया है। अन्ना द्रमुक से तालमेल कायम रखने के फेर में पार्टी ने अन्ना मलाई को हटाकर नयनार नागदेव को सूबेदार बनाया था। फिर भी अन्ना द्रमुक के नेता अलग-अलग सुरों में बोल रहे हैं। ओपीएस ने पार्टी छोड़ दी है तो शशिकला के भतीजे दिनाकरण ने अपनी अलग पार्टी बना रखी है। दोनों ने शर्त रख दी है कि वे भाजपा के साथ तभी रहेंगे जब पार्टी वादा करेगी कि ईपीएस राजग के मुख्यमंत्री पद के दावेदार नहीं होंगे। पलानीस्वामी खेमा मानता है कि ओपीएस और दिनाकरण भाजपा के इशारे पर यह शर्त लगा रहे हैं। पलानीस्वामी गुट खुद भी शर्त लगा रहा है कि बहुमत मिला तो सरकार राजग की नहीं, अन्ना द्रमुक की बनेगी।
बिहार के लिए तैयार
बहुजन समाज पार्टी की प्रमुख मायावती ने बिहार विधानसभा का चुनाव अकेले लड़ने का एलान किया है। क्या बसपा की सांगठनिक ताकत बिहार में चुनाव लड़ने लायक है? इस सवाल का जवाब देने के लिए बसपा ने पार्टी के संस्थापक मान्यवर कांशीराम की पुण्यतिथि पर नौ अक्तूबर को लखनऊ में पार्टी का सम्मेलन करने की घोषणा की है।
इसके जरिए मायावती बसपा को फिर से अपने पैरों पर खड़ा करने की कोशिश करेंगी। अन्यथा 2022 के विधानसभा और 2024 के लोकसभा चुनाव के सिफर प्रदर्शन के बाद तो बसपा पस्त ही पड़ी है। पार्टी के कार्यकर्ताओं में कोई जोश नहीं दिखता। उन्होंने अपने भतीजे आकाश आनंद ही नहीं उनके ससुर अशोक सिद्धार्थ को भी माफ कर दिया है। वैसे बिहार में विधानसभा चुनाव में उतरने के उनके फैसले को भाजपा की मदद करने का खेल मानने वालों की भी कमी नहीं है।
रार बढ़ाती ‘मधुशाला’
आम आदमी पार्टी की आबकारी नीति के खिलाफ लड़ाई लड़कर सत्ता में पहुंची भाजपा अब शराब की दरों को कम करने का रास्ता तलाश रही है। मसले पर अंदरखाने में ही रार शुरू हो गई है। दिल्ली सरकार मामले में पहले ही एक विशेष समूह का गठन कर चुकी है। इस समूह के एक सदस्य ने ही उम्र कम करने का सूत्र सामने रखा है। बताया जा रहा कि इस कदम पर आगे बढ़ने से पहले ही नाराजगियों का दौर शुरू हो गया है। इसमें जहां एक तरफ भाजपा की चुनावी रणनीति है, वहीं दूसरी ओर यह विभाग संबंधित मंत्री का विभाग नहीं होना माना जा रहा है। यह विभाग सीधे तौर पर मुख्यमंत्री के अधिकार क्षेत्र में आता है और माना जा रहा है कि इस पर अंतिम निर्णय भी मुख्यमंत्री का ही होना चाहिए।
मुश्किल बंटवारा
बिहार में महागठबंधन के बीच सीटों के बंटवारे का पेच अभी फंसा है। इसकी वजह गठबंधन में कुछ नए दलों का शामिल होना भी है। राजद और कांग्रेस के अलावा तीनों वामदल तो पहले भी गठबंधन में थे ही। अब मुकेश सहनी की पार्टी वीआइपी भी साथ आई है। जो पिछले चुनाव में राजग का हिस्सा थी। इसके अलावा झारखंड मुक्ति मोर्चा को भी इस बार बिहार में सीट चाहिए। इसके नेता हेमंत सोरेन राहुल गांधी और तेजस्वी यादव की वोट अधिकार यात्रा में भी शामिल हुए थे। झारखंड में झामुमो, राजद और कांगे्रस पहले से ही साथ हैं।
रामविलास पासवान के भाई पशुपति कुमार पारस महागठबंधन के नए साथी होंगे, यह घोषणा खुद तेजस्वी यादव ने की है। सूबे की 243 सीटों में पिछली बार कांग्रेस को 70 सीटें मिली थीं। पर राजद की तुलना में उसकी जीत का ‘स्ट्राइक रेट’ काफी कम रहा था। कांग्रेस से कहीं बेहतर प्रदर्शन तो वाम दलों का था। तभी यह धारणा बनी थी कि अगर राजद ने कांग्रेस को कम सीटें दी होती तो महागठबंधन की सरकार भी बन सकती थी। बहरहाल इस बार कांग्रेस और राजद दोनों को ही झुकना पड़ेगा। झामुमो को दो न सही, एक सीट तो जरूर देनी होगी। सहनी की वीआइपी भी 30 सीटें मांग रही है। उसे 15 से कम पर संतोष होने से रहा। पशुपति पारस भी दो-तीन सीट जरूर चाहेंगे। यदि महागठबंधन को बचाना है तो पिछली बार की तरह न राजद 144 ले पाएगा और न 70 कांग्रेस।
सैलाब में सियासत
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नौ सितंबर को बाढ़ग्रस्त पंजाब और हरियाणा का दौरा किया। पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान उनसे नहीं मिले। जबकि हरियाणा के कांग्रेसी मुख्यमंत्री सुक्खू ने प्रधानमंत्री की अगवानी की। आम आदमी पार्टी का कहना है कि मान की तबीयत खराब थी और उन्हें आठ सितंबर को ही अस्पताल में भर्ती होना पड़ा था। अस्पताल में ही उन्होंने मंत्रिमंडल की बैठक बुलाई थी। कुछ जानकार उनकी बीमारी को सियासी बता रहे हैं क्योंकि पहले भी प्रधानमंत्री जब पंजाब गए तो मान उनसे नहीं मिले।
पिछले दिनों गृहमंत्री अमित शाह पंजाब के दौरे पर गए थे तो कोई बाढ़ पीड़ित उनसे मिलने नहीं पहुंचा। एक वीडियो भी वायरल हुआ था जिसमें अमित शाह किसी से कह रहे थे कि दो-चार आदमी तो ले आओ। मान को लगता है कि पंजाब के लोग केंद्र सरकार और भाजपा से बेहद नाराज हैं। इसलिए वे जानबूझकर दूरी बना रहे हैं। पर इससे तो सूबे का नुकसान ही हुआ। छोटे से हिमाचल प्रदेश को तो प्रधानमंत्री ने 1500 करोड़ की सहायता घोषित कर दी पर बाढ़ से प्रभावित 23 जिलों वाले पंजाब के लिए महज 1600 करोड़ ही दिए।
संकलन : मृणाल वल्लरी