बिहार चुनावों में नीतीश–भाजपा गठबंधन की बढ़त साफ इशारा देती है कि नीतीश कुमार एक बार फिर सत्ता की बागडोर थामने को तैयार हैं-और इसके साथ ही वे सबसे लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहने का अपना रिकॉर्ड और आगे बढ़ा सकते हैं। बिहार की राजनीति की कथा हमेशा दिलचस्प रही है, और जनसत्ता की इस विशेष श्रृंखला का यह अध्याय उसी कहानी का वह मोड़ है, जहां नीतीश कुमार का सफर पिछले दो दशकों में बार-बार सत्ता की दिशा बदलता दिखता है।
हरनौत से मिली शुरुआती दो हारें मानो उन्हें राजनीति से दूर करने पर आमादा थीं, मगर नीतीश ने ठोकर को ही रास्ता बना लिया। गांव की पगडंडी से निकला यह इंजीनियरिंग छात्र जब सत्ता की दहलीज तक पहुंचा, तो ‘लालू के छोटे भाई’ की छवि पीछे छूट गई और कुर्मी नेतृत्व, ओबीसी–ईबीसी समीकरण और निरंतर कमबैक की कला ने उन्हें बिहार की राजनीति का सबसे टिकाऊ चेहरा बना दिया – एक ऐसा नेता, जिसे हटाना कठिन और जिसकी वापसी रोकना लगभग नामुमकिन साबित हुआ।
एक इंजीनियर से समाजवादी, और समाजवादी से सत्ता के सबसे स्थिर चेहरों में बदलने की यह कहानी उन दुर्लभ यात्राओं में से है, जहां शुरुआती हारें आगे आने वाली जीतों की नींव बनती हैं। यही वजह है कि बिहार के सत्ता गलियारों में उनके कदमों की आहट सिर्फ चुनावी आंकड़ों से नहीं मापी जाती, बल्कि उस जिद्दी अनुशासन से जिसे उन्होंने सालों की असफलताओं, कठिन फैसलों और बार-बार लौटकर आने की क्षमता से अर्जित किया।
लालू का दौर और परिवर्तन की शुरुआत
1990 से शुरू होकर लालू प्रसाद यादव सात वर्षों से अधिक समय तक मुख्यमंत्री रहे। उनके कार्यकाल ने राज्य में एक अनोखी राजनीतिक स्थिरता दिखाई और साथ ही यह पहली बार था जब एक पिछड़ी जाति का नेता इतनी लंबी अवधि तक सत्ता में रहा। बाद में चारा घोटाले के आरोपों ने माहौल बदल दिया और लालू की अनुपस्थिति में राबड़ी देवी के नेतृत्व ने परिवार की राजनीतिक पकड़ को मजबूत किया।
इसी समय इंजीनियरिंग से राजनीति में आए नीतीश कुमार, जो कभी लालू के विश्वसनीय साथी माने जाते थे, यादव जाति के प्रभाव के खिलाफ चुपचाप ओबीसी कुर्मी और अत्यंत पिछड़ी जातियों का आधार खड़ा करते रहे। 2005 के चुनावों में भाजपा के साथ गठबंधन उनकी सबसे बड़ी राजनीतिक छलांग बन गया, जिसने लालू के वर्षों पुराने प्रभुत्व को चुनौती दी और आने वाले दशकों में बिहार की राजनीति का चेहरा बदल दिया।
शुरुआती संघर्ष और राजनीति में कदम
नीतीश और लालू दोनों ही समाजवादी नेता कर्पूरी ठाकुर के शिष्य रहे, जो 1970 के दशक के अंतिम वर्षों में ओबीसी आरक्षण लागू करने के लिए जाने जाते हैं। 1951 में नालंदा जिले के कल्याण बिगहा में जन्मे नीतीश पर राजनीति का संस्कार बचपन से था; उनके पिता स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े थे और वे डॉ. राम मनोहर लोहिया के विचारों से प्रभावित हुए।
Exclusive: क्या भाजपा जदयू के बिना भी अन्य पार्टनर के साथ बना सकती है सरकार?
पहले दो चुनावों में नीतीश हरनौत से निर्दलीय उम्मीदवारों से हार गए। राजनीति छोड़ने का विचार भी आया, लेकिन 1985 में लोकदल के टिकट पर उन्होंने वही सीट जीतकर वापसी की। इसके बाद 1989 में वे बाढ़ से लोकसभा पहुँचे और वी.पी. सिंह सरकार में कृषि राज्य मंत्री बने। 1991 में उन्होंने जनता दल के टिकट पर यह सीट दोबारा जीती।
मुख्यमंत्री पद तक पहुंचने की राह
1994 में नीतीश ने जॉर्ज फर्नांडीस के साथ समता पार्टी बनाई, जो आगे चलकर जद(यू) बनी। 2004 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने दो सीटों से किस्मत आज़माई; बाढ़ हार गए, पर नालंदा जीत ली। केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में वे रेलवे और कृषि समेत कई मंत्रालयों के जिम्मेदार रहे।
मार्च 2000 में नीतीश पहली बार मुख्यमंत्री बने, लेकिन सदन में बहुमत न मिलने पर उन्हें एक सप्ताह में इस्तीफ़ा देना पड़ा, और राबड़ी देवी सरकार फिर लौट आई।
बड़ी करवट 2005 में ली – झारखंड अलग होने के बाद फरवरी में हुए चुनाव अधूरे रह गए और राष्ट्रपति शासन लगा। लेकिन अक्टूबर के चुनावों में जद(यू) 88 सीटों और भाजपा 55 सीटों पर पहुँच गई, जबकि राजद 54 पर सिमट गया। नीतीश ने मुख्यमंत्री पद संभाला, लोकसभा से इस्तीफा दिया और विधान परिषद के सदस्य बने, जहाँ वे आज तक बने हुए हैं।
नीतीश मॉडल: गठबंधनों के बीच अडिग पकड़
2005 से अब तक नीतीश बिहार की राजनीति में लगभग स्थायी केंद्र बने हुए हैं। उन्होंने कभी भाजपा तो कभी राजद के साथ गठबंधन बदला, लेकिन सत्ता पर पकड़ ढीली नहीं होने दी।
इस मजबूती का बड़ा कारण ओबीसी-ईबीसी का वह सामाजिक संतुलन है, जिसे उन्होंने कुर्मी नेतृत्व के साथ खड़ा किया। कुर्मी समुदाय – जिसे “पीपुल्स ऑफ इंडिया” में प्रगतिशील कृषक बताया गया है – बिहार से लेकर उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र तक राजनीतिक प्रभाव रखता है। ऐतिहासिक रूप से 1937 के चुनावों में त्रिवेणी संघ (यादव-कुर्मी-कोइरी गठबंधन) ने इसी शक्ति का प्रतीक प्रस्तुत किया था।
बिहार चुनाव: पीएम नरेंद्र मोदी ने 111 उम्मीदवारों का किया प्रचार, 81 जीते, जानिए योगी का आंकड़ा
नीतीश ने इसी संरचना को भाजपा के उच्च जातियों के समर्थन के साथ जोड़कर यादव-प्रधान ओबीसी राजनीति की दीवार में सेंध लगाई, जिसे पहले बी.पी. मंडल और दरोगा प्रसाद राय जैसे नेताओं ने मजबूत किया था।
सुशासन का दौर और ‘जंगल राज’ की तुलना
मुख्यमंत्री बनने के बाद नीतीश ने विकास और प्रशासनिक सुधार पर जोर दिया। सड़कों का विस्तार, लड़कियों की शिक्षा में सुधार और कानून-व्यवस्था पर पकड़ जैसे कदमों ने उन्हें “सुशासन बाबू” की उपाधि दिलाई। यह वही समय था जब राजद शासन को विपक्ष “जंगल राज” कहकर निशाना बनाता था।
2010 के चुनावों में जद(यू) 115 और भाजपा 81 सीटों के साथ मजबूत होकर लौटी, जबकि राजद 22 पर सिमट गई। लेकिन 2013 में नरेंद्र मोदी को भाजपा की ओर से प्रमुख भूमिका मिलने के बाद नीतीश ने दूरी बना ली और गठबंधन तोड़ दिया। इसके परिणामस्वरूप 2014 लोकसभा चुनाव में जद(यू) केवल दो सीटें जीत पाई। नीतीश ने नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफा दिया और जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बनाया।फिर लालू के साथ महागठबंधन बना और 2015 में राजद 80, जद(यू) 71 और भाजपा 53 सीटों पर रुकी। नीतीश ने फरवरी 2015 में एक बार फिर शपथ ली, तेजस्वी यादव उपमुख्यमंत्री बने।
लगातार उतार-चढ़ाव और गठबंधन परिवर्तनों के बाद, आज नीतीश भाजपा के साथ मिलकर फिर मुख्यमंत्री हैं – और बिहार की राजनीतिक कहानी में उनका अध्याय अभी भी जारी है।
