उत्तर प्रदेश के चुनावी रण में इस बार मुकाबला भाजपा और INDIA गठबंधन के बीच है। भाजपा जहां 75 सीटों पर चुनाव लड़ेगी वहीं, INDIA गठबंधन से सपा 63 और कांग्रेस 17 सीटों पर मैदान में है। उत्तर प्रदेश में भी यादव एकता की इस बार के आम चुनाव की रणभूमि में कड़ी परीक्षा है। भाजपा हर हाल में सपा का आधार माने जाने वाले यादव वोट बैंक को अपने पाले में लाने की पुरजोर कोशिश में जुटी है।

2019 के चुनाव में सपा को 18.11 फीसदी वोट के साथ पांच सीटें म‍िली थीं, जबक‍ि 2014 में सपा की सीटें तो पांच ही थीं लेक‍िन वोट का प्रत‍िशत 22.35 था। इसके उलट बीजेपी को 2019 में केवल यादवों के 23 फीसदी वोट म‍िले थे। इस बार पार्टी इसे 30-35 फीसदी तक ले जाने का टारगेट लेकर चल रही है। इस टारगेट के साथ भाजपा अपना वोट शेयर 50 फीसदी के पार ले जाने और सीटों का आंकड़ा कम से कम 2014 के बराबर करने का लक्ष्‍य हास‍िल करना चाहती है। प‍िछली बार भाजपा इस आंकड़े से थोड़ा पीछे रह गई थी। 2019 में बीजेपी का वोट शेयर 49.98% (62 सीटें जीतीं) था और 2014 में यह 42.63% (71 सीटों पर जीत) था।

यादवों का समर्थन किसे?

सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज की एक रिपोर्ट के अनुसार, 2019 के लोकसभा चुनावों में 60% यादवों ने एसपी-बीएसपी का समर्थन किया, 23% ने बीजेपी का समर्थन किया और 5% ने कांग्रेस का समर्थन किया। 2001 में सोशल जस्टिस कमेटी की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि उत्तर प्रदेश में पिछड़े समुदाय में यादवों की हिस्सेदारी 19.40% है।

समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव की मृत्यु (10 अक्‍तूबर, 2022) के बाद यह पहला लोकसभा चुनाव है। बीजेपी यादव वोट बैंक में सेंध लगाने के ल‍िए कई स्‍तर पर कदम उठा रहा है। मोहन यादव को पड़ोसी मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री बनाया गया तो यह संदेश यूपी के यादव मतदाताओं तक भी पहुंचाया जा रहा है। उन्‍हें यूपी का दौरा भी करवाया जा रहा है।

यादवों पर डोरे डालने के ल‍िए बीजेपी क्‍या-क्‍या कर रही है

दिसंबर 2023 में शपथ लेने के बाद से एमपी के सीएम मोहन यादव ने तीन बार उत्तर प्रदेश का दौरा किया है। अपनी यात्राओं के दौरान उन्होंने इस बात पर पूरा फोकस किया है कि उनकी जड़ें आजमगढ़ से हैं और उनका ससुराल सुल्तानपुर में है। यादवों में अपनी पहुंच को मजबूत करने के लिए भाजपा ने हाल ही में फर्रुखाबाद जिले के मोहम्मदाबाद क्षेत्र से समाजवादी पार्टी के नेता, पूर्व मंत्री नरेंद्र सिंह यादव को शामिल किया है।

अखिल भारतीय यादव महासभा में हाल में हुए व‍िभाजन को भी भाजपा अवसर के रूप में देख रही है। इस संगठन ने दशकों तक मुलायम सिंह के साथ काम किया था। लेक‍िन, अब एक धड़े का झुकाव भाजपा की ओर हो गया है। पूर्व राज्यसभा सदस्य उदय प्रताप सिंह ने स्वास्थ्य और उम्र संबंधी मुद्दों का हवाला देते हुए हाल ही में संगठन के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया।

यूपी चुनाव और यादव मतदाता

उत्तर प्रदेश के 12 जिलों में यादव आबादी 20% से अधिक है। अन्य 10 जिलों में जनसंख्या लगभग 15% है। मैनपुरी, एटा, आजमगढ़, देवरिया, गोरखपुर, बलिया, ग़ाज़ीपुर, जौनपुर, बदांयू, इटावा, कन्नौज और फर्रुखाबाद में यादव मतदाता अहम हैं।

अख‍िलेश यादव की परीक्षा

प‍िता मुलायम की मौत के बाद अख‍िलेश यादव के ल‍िए बतौर पार्टी अध्‍यक्ष यह पहला लोकसभा चुनाव है। वह चुनाव पीडीए – पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक के नारे के साथ लड़ रहें हैं। यानी ओबीसी, दलितों और मुसलमानों के वोट को इकट्ठा करने के लिए उनकी लड़ाई है। लेक‍िन, अख‍िलेश के ल‍िए चुनौती बड़ी है। उम्‍मीदवार तय करने तक में चुनौती है। कई जगह कई-कई बार उम्‍मीदवार बदलने के उदहारण भी सामने आ चुके हैं।

पश्चिम यूपी की 24 में से जिन 18 सीटों पर सपा चुनाव लड़ रही है, उनमें से 14 पर उसने पीडीए समुदायों से उम्मीदवार बनाए हैं। इनमें तीन मुस्लिम, सात ओबीसी और चार दलित हैं। वहीं, अन्य छह सीटों पर कांग्रेस लड़ रही है। इन 42 सीटों पर बेहद खराब रहा है बीजेपी का रिकॉर्ड, बढ़‍िया कर ले तो म‍िशन 370 में म‍िलेगी भारी मदद, पढ़ें पूरी खबर

दलित समुदाय को लुभाने के लिए सपा का प्रयोग

1977 के बाद से पिछले 12 चुनावों में 10 बार मुस्लिम उम्मीदवार द्वारा जीते गए मोरादाबाद में, सपा ने अपने मौजूदा सांसद टी. हसन को हटाकर एक बड़ा जुआ खेला। हसन और उनकी जगह रुचि वीरा को मैदान में उतारा है, जो बनिया समुदाय से आने वाली बिजनौर की पूर्व विधायक हैं। इससे मुसलमानों के एक वर्ग में नाराजगी पैदा हो गई है, जिनका मानना है कि सत्ता में उनके गिरते प्रतिनिधित्व के बीच पार्टी को उनके समुदाय से किसी को मैदान में उतारना चाहिए था। मेरठ में भी जहां विपक्षी गठबंधन ने 2019 में एक मुस्लिम को मैदान में उतारा था, इस बार सपा ने दलित समुदाय को लुभाने के एक प्रयोग के तहत एक दलित सुनीता वर्मा को मैदान में उतारा है।

आरएलडी के एनडीए में जाने से विपक्षी गठबंधन को अपने जातिगत गणित पर फिर से विचार करने के लिए मजबूर होना पड़ा है। चौधरी जयंत सिंह की आरएलडी को जाटों के बड़े वर्ग का समर्थन प्राप्त है और उनके स्विच के बाद, विपक्ष अन्य कम प्रभावशाली ओबीसी के समर्थन पर भरोसा कर रहा है।

Source- Indian Express

INDIA गठबंधन में केवल एक जाट उम्मीदवार है, मुजफ्फरनगर से हरेंद्र मलिक। गठबंधन ने गौतम बुद्ध नगर में केवल एक गुर्जर को मैदान में उतारा है। एनडीए का जातिगत गणित मुख्य रूप से गैर-यादव ओबीसी और यूसी के एकीकरण पर आधारित है। जिन 24 सीटों का विश्लेषण किया गया, उनमें बीजेपी के आधे उम्मीदवार गैर-यादव ओबीसी समुदाय से हैं. अन्य आठ ऊंची जातियों से हैं जबकि चार दलित हैं (सभी आरक्षित सीटों पर)। भाजपा ने अपनी बहुसंख्यक हिंदुत्व की राजनीति के अनुरूप, एक भी मुस्लिम को नामांकित नहीं किया है।

भाजपा-रालोद के उम्मीदवार चयन के जाति-वार वितरण से पता चलता है कि उनके गठबंधन ने चार जाटों, दो गुर्जर, लोध और शाक्य/सैनी समुदायों से और एक उम्मीदवार कुर्मी और कश्यप जातियों से मैदान में उतारा है।

2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा का वोट शेयर (37.6%), 2009 (18.6%) से लगभग दोगुना था। इसका मुख्य कारण यह था कि पार्टी ने आदिवासियों और दलितों के साथ-साथ अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के बीच अपनी पैठ बनाई, जबकि उच्च जातियों के बीच अपनी पकड़ बरकरार रखी। वहीं, 2014 के लोकसभा चुनावों में, भाजपा (34%) ने ओबीसी वोट में कांग्रेस (15%) से कहीं अधिक हिस्सेदारी हासिल की।

Source- Indian Express