भारत की दो ध्रुवीय राजनीति में एक तरफ राष्ट्रवाद है तो दूसरी तरफ अति राष्ट्रवाद। इनके बीच एक मध्यमार्गी चेहरा है जो उदारवादी-लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष है। मगर इस द्वंद्व में समरसता की भावना कहीं न कहीं सूख रही है। आज सत्ता और विपक्ष के बीच जो कटुता है, वह पहले कभी नहीं थी। अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के समय भी नहीं। अलबत्ता उससे पहले जनता पार्टी के राज में जरूर कड़वाहट दिखी थी। प्रतिस्पर्धा की भावना का त्याग कर देश में जिस तरह प्रतिशोध की राजनीति शुरू हुई, उसने मनमोहन सरकार के अच्छे कार्यों और योजनाओं को भुला कर एक नया आख्यान रचा गया, वह था पिछले दस साल में ही सब कुछ हुआ। गोया बीते पचास सालों में कुछ हुआ ही नहीं।

टकराव और बदले की राजनीति को चरम पर ले जाकर देश को कांग्रेस मुक्त करने की राजनीतिक घोषणा की गई। एक सतत अभियान चलाया गया। इस दौरान संसद में हर चुनाव के बाद घट रही कांग्रेस सांसदों की संख्या से एकबारगी लगा कि इस पार्टी की राजनीतिक मृत्यु हो जाएगी। मगर ऐसा नहीं हुआ। वैसे भी किसी भी देश में जहां एक पार्टी का वचस्व है, वहां नागरिक अधिकारों का कितना हनन हुआ, यह दुनिया यह देख चुकी है।

भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में यह असंभव है। यहां वैसे भी अब दो दलीय नहीं, बल्कि बहुदलीय राजनीति हो रही है। गठबंधन की सरकार बनती है। सब कुछ ‘एक रंग’ में कर देने वाली पार्टी भी बहुदलीय राजनीति करने और क्षेत्रीय दलों के साथ मिल कर सरकार बनाने के लिए बाध्य है। इस बार तो वह एक-एक सांसद वाली पार्टी के बूते सत्ता में टिकी है।

छवि बिगाड़ने का लगातार अभियान
अति आत्मविश्वास के कारण जो गलतियां आज भाजपा कर रही है, वही गलती कभी कांग्रेस करती थी। नतीजा सामने है। हालांकि इंदिरा युग के अवसान और फिर राजीव गांधी की असामयिक मौत के बाद यह सोनिया गांधी ही थीं जिन्होंने कांग्रेस को एकजुट करने की कोशिश की। मगर राहुल गांधी की आक्रामक राजनीति से कांग्रेस को नुकसान हुआ और उसकी लंंबे समय तक भरपाई नहीं हुई। इसमें उनके राजनीतिक विरोधियों का ही नहीं, उनकी बनाई कोटरी के युवा नेताओं ने भी कम भूमिका नहीं निभाई। इनमें तो कई सत्ता पक्ष का दामन थाम चुके हैं।

इस बीच राहुल भी पार्टी में बड़ी जिम्मेदारी लेने से बचते रहे। जन प्रतिनिधि प्रतिनिधित्व कानून के खिलाफ अध्यादेश की प्रति फाड़ना उनकी बड़ी गलती थी। इससे उनके विरोधियों को तो जैसे मौका ही मिल गया। एक तरफ प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को ‘रिमोट वाला पीएम’ बता दिया गया, तो वहीं राहुल की छवि बिगाड़ने में विरोधी पक्ष के जमीनी कार्यकर्ता से लेकर शीर्ष नेता भी जुट गए।

इसी दौर में हमने एक शीर्ष नेता की छवि को महिमामंडित किए जाते देखा तो दूसरी ओर जिस नेता की छवि को ‘अपरिपक्व’ और ‘बालक बुद्धि’ बताते हुए लगातार उनकी छवि बिगाड़ी गई, वे थे-राहुल गांधी। उनके प्रति कटुता-द्वेष राजनीतिक विरोधियों में ही नहीं था, मीडिया ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी। सेंट स्टीफन कालेज से लेकर हार्वर्ड और कैम्ब्रिज से पढ़े तथा अपने परदादा, दादी और पिता की समृद्ध राजनीतिक विरासत को आगे ले जा रहे राहुल पर चौतरफा हमले किए गए।

भारतीय राजनीति के महाभारत में राहुल गांधी को अभिमन्यु तरह की घेर कर उन्हें राजनीतिक रूप से खत्म कर देने की तमाम कोशिश अब भी हो रही है। मगर हर बार वे विरोधियों के राजनीतिक चक्रव्यूह से निकलने में कामयाब रहे। उन्होंने नफरत का जवाब मोहब्बत से दिया।

नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार के आखिरी दो सालों में राहुल गांधी जमीन पर उतर आए। इससे सबसे पहले तो उन्हें पैराशूट वाली राजनीति के आरोप से मुक्ति मिली। इसी के साथ उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष पद छोड़ कर वंशवाद की राजनीति से भी मुक्त होने की यथासंभव कोशिश की। मजदूरों और आमजनों से उनके सीधे जुड़ाव और संवाद को पूरे देश ने देखा तथा वे एक-एक कदम आगे बढ़ते हुए समरसता का संदेश देने लगे।

‘कांग्रेस मुक्त’ नारा ‘राहुल मुक्त’ में तब्दील
राहुल गांधी की इसी विकास यात्रा का लेखक-पत्रकार एवं संपादक मुकेश भारद्वाज ने जो दस्तावेजीकरण किया है, वह उनकी पुस्तक ‘नेता मोहब्बत वाला’ में सामने आया। श्री भारद्वाज राजनीति को समाज की परखनली में रख कर देखते हैं। राजनीति और समाज में बदलाव कोई रातों-रात नहीं होता। लिहाजा इसके विश्लेषण में संयम और तार्किक अध्ययन की आवश्यकता होती है।

लेखक अपनी पुस्तक के आमुख में लिखते हैं- 2014 में सत्ता परिवर्तन करने वाली भाजपा ने बहुत सोच समझ कर ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ बनाने का वादा किया था। उसको अहसास था कि अगर उसके खिलाफ कोई अखिल भारतीय शक्ति उभरेगी तो वह कांग्रेस ही होगी। ‘कांग्रेस मुक्त’ का नारा किस तरह शब्दार्थ में ‘राहुल’ मुक्त में तब्दील हुआ और बार-बार हार कर भी राहुल का कहना, मैं कांग्रेस हूं…यह पिछले दस साल की राजनीति का लब्बोलुबाब है।

कोई नौ साल पहले जब अधिकतर राजनीतिक विश्लेषक कांग्रेस के खत्म होने का दावा कर रहे थे तब मुकेश भारद्वाज बेबाकी से कांग्रेस मुक्त नारे को भाजपा का डर बता रहे थे। साल 2014 में सत्ता बदलते ही जब टीना (यानी कोई विकल्प वहीं) का जाप चल रहा था, तब श्री भारद्वाज ने लिखा कि विपक्ष का उदय ही लोकतंत्र की नियति है।

मुकेश भारद्वाज की क‍िताब ‘नेता मोहब्‍बत वाला’ का कवर पेज और क‍िताब में ल‍िखी एक पंक्‍त‍ि।

सत्ता पक्ष के खिलाफ जब कोई विकल्प दूर-दूर तक नहीं दिख रहा था तब यह लेखक बिखरे हुए विपक्ष के तेवर को भी एक जगह देख रहा था कि अगर कहीं कोई नहीं तो विकल्प का संकल्प जनता के पास रहेगा। इस साल लोकसभा चुनाव में यह दिखा भी, जब यह कहा गया कि इस बार तो जनता मैदान में उतरी है। इसी के साथ मोहब्बत का पैगाम लेकर उतरे राहुल के ललाट पर वंशवाद के मणि से रिसते घाव को जनता ने अपनी समानुभूति के ‘इरेजर’ से मिटा दिया।

पदयात्राओं से बनी एक नई छवि
राहुल गांधी ने अपनी न्याय यात्रा से अपनी एक नई छवि गढ़ी। महात्मा गांधी, विनोबा भावे और जयप्रकाश नारायण के आंदोलन और पदयात्राओं के बरक्स राहुल की न्याय यात्रा ने देश-दुनिया का ध्यान खींचा। उनकी छवि को बिगाड़ने में चौबीस घंटे लगे नेता आज स्वयं हाशिए पर चले गए या फिर मौन उपवास पर हैं।

राहुल को यह शक्ति कहां से मिली? दरअसल, खोने का डर खत्म होते ही उनके पास सिर्फ पाने का विकल्प बचा था। यही कारण था कि उनके तमाम विरोधियों और खासकर सत्ताधारी पार्टी ने भविष्य बनाने की कोशिश को ही खत्म करने में ताकत झोंक दी। उनके लिए नया नाम गढ़ा। मगर राहुल को तो ‘नेता मोहब्बत वाला’ बनना था। वे बने और हिट भी हुए।

मुकेश भारद्वाज ने अपनी सद्य प्रकाशित पुस्तक में कांग्रेस की ही नहीं, राहुल की कमियों को भी टटोला है। उन्होंने कांग्रेस को आगाह किया है कि सांगठनिक ढांचा मजबूत करना आज के समय में उसके लिए बड़ी चुनौती है। इसके साथ ही आगे की राह के बारे में भी पूछा है कि वैचारिक रूप से कांग्रेस मुख्यधारा के पूंजीवादी दलों से अलग नहीं बल्कि उसकी जननी है। पूंजीवाद परस्त विरासत होने के बाद भी अंबानी-अडानी के विरोध को अपना हथियार बना लेंगे तो आगे किस राह जाएंगे। यह सचमुच बड़ा सवाल है।

छवि प्रबंधन का खेल
इस पुस्तक के तीन अध्याय ‘नेता मोहब्बत वाला’, ‘यात्रा ददति विनयं’ और ‘किं आश्चर्यं’ बेहद दिलचस्प है। आलेख ‘नी मैं आपे पप्पू होई’ में उन्होंने सवाल किया है कि राहुल गांधी का सरकार के खिलाफ संघर्ष बड़ा था या मीडिया के खिलाफ। यह तय है कि उनकी राह में दोहरा संघर्ष था। श्री भारद्वाज ने लिखा है कि भारतीय राजनीति में विरोधाभास के चेहरे को कोई शक्ल देने की कोशिश की जाएगी तो उसमें एक केंद्रीय चेहरा राहुल गांधी का निकलेगा।

मीडिया ने अपनी छवि गंवा दी
आज के समय को छवि प्रबंधन युग की संज्ञा दी गई है, तो इसके उलट राहुल खड़े हैं। … आजाद भारत की राजनीति छवि मोह से शुरू हुई थी। पंडित जवाहर लाल नेहरू तक यह मोह दिखा। मगर इंदिरा गांधी की एक बड़ी छवि होते हुए भी उनसे जनता का मोह भंग हुआ। हालांकि श्री भारद्वाज लिखते हैं कि आजादी के 75 साल बाद भी हमारे पास दूसरी प्रधानमंत्री का नाम नहीं है। तो छवि प्रबंधन खुद जनता करती रही है, मगर जब मीडिया ने यह काम संभाला तो उसने बड़ी चतुराई से किसी को ‘नायक’ तो किसी को ‘खलनायक’ बनाना शुरू कर दिया। राहुल इसके उदाहरण हैं। वैसे उन्होंने मीडिया की पहरवाह नहीं की। मगर उनकी छवि पर एकतरफा वार कर मीडिया ने अपनी छवि गंवा दी है। हालांकि यह भी रोचक है कि राहुल को अपरिपक्व नेता मानने वाला मीडिया उन्हें प्रधानमंत्री का प्रतिद्वंद्वी मानता है। इसमें कोई दो राय नहीं कि मुख्यधारा का मीडिया विपक्ष को एक तरह से नकारात्मक शब्द मानता है। यह निश्चित रूप से यह लोकतंत्र की भावना के खिलाफ है।

लेखक ने अपनी 208 पृष्ठों की पुस्तक में पिछले दस साल की राजनीतिक यात्रा में अरसे से सोई कांग्रेस की तीखी आलोचना की है। उन्होंने ‘नेता मोहब्बत वाला’ से उनके संगठन और बिखरती हुई विचारधारा पर कई सवाल रखे हैं, साथ ही यह दर्ज भी किया है कि राहुल गांधी ने मैदान में लगातार डटे रह कर बहुत कुछ खत्म होने से बचा लिया है।

पुस्तक में सम्मिलित आलेखों का सार यह भी है कि पिछले एक दशक की राजनीतिक कथा के नायक अकेले नरेंद्र मोदी नहीं है। संगठन से शून्य हो चुकी कांग्रेस के सत्ता से दूर होने पर भी राहुल गांधी ने न केवल खुद के लिए बल्कि कांग्रेस के अस्तित्व के लिए लगातार संघर्ष किया है। आप इस दृष्टि से देखें तो पाएंगे कि पुस्तक ‘नेता मोहब्बत वाला’ सत्ता पक्ष की ‘कुछ नहीं है’ क्रिया को लेकर राहुल गांधी की प्रतिक्रिया जो उन्हें ‘बहुत कुछ बना रहा’ का दस्तावेजीकरण है।

देश के नागरिकों ने रील और मीम्स से अलग राहुल गांधी को अपने बीच पिछले दो सालों में देखा है। अपनी एक नई छवि खुद गढ़ते हुए वे मोहब्बत की दुकान खोलने सड़कों पर निकले और आमजनों को गले लगाते हुए हजारों किलोमीटर पैदल भी चले। मगर जिस तरह से उनकी पीठ पर एक पर्ची चिपकाई गई थी, ठीक उसी तरह उन्होंने अपने सीने पर खुद एक पर्ची लगाई ‘नेता मोहब्बत वाले’ की। इसी नेता को इस पुस्तक के माध्यम से सामने रखने की कोशिश की है मुकेश भारद्वाज ने।

जनता की पाठशाला में पासिंग मार्क्स लेकर राहुल अब सदन में विपक्ष के नेता बन चुके हैं। लोकतंत्र के पिछले दस साल की यात्रा को समझने के लिए यह पुस्तक पढ़ी जा सकती है। वाणी प्रकाशन के उपक्रम ‘यात्रा बुक्स’ से प्रकाशित इस किताब का मूल्य 395 रुपए है।