मोदी सरकार जबसे सत्ता पर काबिज़ हुई है, तबसे ही मुसलमानों के अलावा जिन लोगों के खिलाफ सबसे ज़्यादा दुष्प्रचार किया गया है, उसमें से एक हैं कम्युनिस्ट। कम्युनिस्टों के खिलाफ तो “अर्बन नक्सल” शब्द तक गढ़े गए। JNU जैसे बड़े शिक्षा संस्थानों को यह कहकर टारगेट किया जा रहा है, कि यह कम्युनिस्टों के गढ़ हैं। वामपंथ को बदनाम करने के लिए प्रोपेगेंडा फिल्में भी बनाई गईं हैं।

सुधा भारद्वाज, गौतम नवलखा, आनंद टेलतूमबड़े तथा अन्य मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को “अर्बन नक्सल” घोषित करके UAPA के तहत जेलों में बंद किया गया। खुद प्रधानमंत्री मोदी ने ANI के एक इंटरव्यू में कम्युनिस्ट विचारधारा को खतरनाक कहा तथा संसद में उन्हें व अन्य सामाजिक कार्यकर्ताओं को “आन्दोलनजीवी” की उपाधि दी।

यह सभी बातें साबित करती हैं कि आज बीजेपी सरकार द्वारा कम्युनिस्टों को देशद्रोही के तौर पर दर्शाने के प्रयास जारी हैं। ऐसे माहौल में जब इस हफ्ते देश अपना 77 वां स्वाधीनता दिवस मनाने जा रहा है, तब इस लेख के माध्यम से कम्युनिस्टों के आज़ादी के आंदोलन में योगदान पर कुछ रोशनी डालने का प्रयास किया गया है।

Bhagat Singh

मोहम्मद शफीक थे CPI के पहले सचिव

रूसी क्रांति से प्रेरणा लेते हुए व कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की रज़ामंदी से उस समय के सोवियत यूनियन के ताशकंद में 17 अक्टूबर 1920 की एक मीटिंग में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (CPI) की स्थापना हुई थी। इस मीटिंग में सात लोग मौजूद थे- एम एन रॉय, एवलिन ट्रेंट-रॉय, अबानी मुखर्जी, रोज़ा फिटिंगोव, मोहम्मद अली, मोहम्मद शफीक और एमपीबीटी आचार्य। मोहम्मद शफीक को पार्टी का पहला सचिव चुना गया।

हमें याद रखना चाहिए कि 1921 में कांग्रेस के अहमदाबाद अधिवेशन में दो कम्युनिस्ट नेताओं स्वामी कुमारानंद व हसरत मोहानी ने ही पहली बार अंग्रेज़ी हुकूमत से पूर्ण आज़ादी का प्रस्ताव रखा था, जिसे उस समय के कांग्रेस नेतृत्व ने अस्वीकार कर दिया था। इन लोगों में गांधी जी भी शामिल थे।

अंग्रेज कम्युनिस्ट आंदोलन की शुरुआत से ही इतना डर गए थे कि उन्होंने कम्युनिस्टों पर कई गंभीर मुकदमे दर्ज करके आंदोलन को दबाने का प्रयास किया। वामपंथी अखबार People’s Democracy के लेखों (जिनमें ज़्यादातर आर अरुण कुमार ने लिखे हैं) पर आधारित किताब A history of the party 1920-1964 के मुताबिक “उन्होंने (अंग्रेज़ों ने) सोवियत संघ से भारत में प्रवेश करने वाले कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों को गिरफ्तार करके पेशावर जेल में बंद कर दिया। इन क्रांतिकारियों पर राजद्रोह का आरोप लगाया गया था। 1923 में, उनमें से अधिकांश को एक से दस साल तक के कठोर कारावास की सजा सुनाई गई। सज़ा पाने वालों में मोहम्मद शफी भी शामिल थे, जिन्हें ताशकंद में सीपीआई का सचिव चुना गया था। पेशावर षडयंत्र मामले, कुल पाँच थे, वास्तव में भारत में पहला कम्युनिस्ट षडयंत्र मामला था।’’

…प्लेग की तरह उसका खात्मा  

अंग्रेज़ों के कम्युनिस्ट विरोधी विचार उनके गृह विभाग द्वारा सरकारी अधिकारियों को दिए गए इस आदेश में साफ दिखता है, जो कहता है “जहाँ भी साम्यवाद प्रकट होता है, उसका मुकाबला किया जाना चाहिए और प्लेग की तरह उसका खात्मा किया जाना चाहिए।’’

इसके सिर्फ एक साल बाद 1924 में कम्युनिस्टों पर कानपुर बोलशेविक षडयंत्र केस चलाया गया। इसमें एम एन रॉय, मुज़फ्फर अहमद, एस ए डांगे, शौकत उस्मानी, नलिनी गुप्ता, सिंगारवेलु चेट्टियार और गुलाम हुसैन को आरोपी बनाया गया था।

कम्युनिस्टों पर तीसरा बड़ा मुकदमा मेरठ षडयंत्र मामले के नाम से जाना जाता है। इस पर इतिहासकार इरफान हबीब अपने लेख “The left and the national movement” में लिखते हैं, “20 मार्च 1929 को व्यावहारिक रूप से सभी महत्वपूर्ण कम्युनिस्ट और वामपंथी ट्रेड-यूनियन नेताओं सहित इकत्तीस लोगों को देश के विभिन्न हिस्सों से गिरफ्तार किया गया और “ब्रिटिश भारत की संप्रभुता से इंग्लैंड के राजा को वंचित करने की साजिश” के आरोप में मुकदमा चलाने के लिए मेरठ लाया गया।’’ वे आगे बताते हैं कि कई नेताओं को बड़ी सजाएं दी गयीं, लेकिन “1933 अगस्त में अपील पर भारी सज़ाएं कम कर दी गईं; लेकिन 1933 के अंत तक, अहमद, डांगे, स्प्रैट और उस्मानी जेल में ही रहे थे।

कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता को किया अपराध घोषित

23 जुलाई 1934 को, ब्रिटिश सरकार ने कम्युनिस्ट पार्टी और उसके सभी संगठनों को “गैरकानूनी” घोषित कर दिया, और उनकी सदस्यता को एक अपराध घोषित कर दिया।’’ इरफान हबीब के मुताबिक इस दौर में “कम्युनिस्ट होना ही अपने आप में “सविनय अवज्ञा” का कार्य था’’। मेरठ के इन मुकदमों के खिलाफ भगत सिंह, सुभाष चंद्र बोस, जवाहर लाल नेहरू, पेरियार व कई अंतर्राष्ट्रीय हस्तियों जैसे अल्बर्ट आइन्स्टाइन और जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ने अपना विरोध ज़ाहिर किया था।

इसी दमन के दौर में कानपुर शहर में दिसंबर 1925 में कम्युनिस्ट पार्टी का पहला सम्मेलन हुआ। हरकिशन सिंह सुरजीत, ज्योति बसु तथा कम्युनिस्ट इतिहास के कई जानकारों द्वारा दस्तावेज़ों के आधार पर लिखी गई किताब History of the Communist Movement in India, Vol. 1: The Formative Years, 1920-1933 के मुताबिक एक स्थानीय कम्युनिस्ट सत्यभक्त का इस सम्मेलन को आयोजित करने में मुख्य योगदान था। इस सम्मेलन में एम सिंगारवेलु को पार्टी का अध्यक्ष, जानकी प्रसाद और एस वी घटे को महासचिव चुना गया। मुजफ्फर अहमद, सत्यभक्त तथा अन्य को अलग अलग क्षेत्रों का सचिव बनाया गया। सम्मेलन में देश भर से आए क्रांतिकारी व मज़दूर-किसान मौजूद थे। इन लोगों की कुल संख्या 500 थी। 

पार्टी के संविधान में लिखा गया कि, कम्युनिस्ट पार्टी मज़दूरों –किसानों का गणराज्य स्थापित करने के लिए काम करेगी, जिसका आधार उत्पादन व वितरण का समाजीकरण होगा। इस राज्य की स्थापना भारत को ब्रिटिश साम्राज्यवाद से आज़ाद करा कर ही होगी। यह भी तय किया गया कि पार्टी का कोई भी सदस्य किसी सांप्रदायिक संगठन का सदस्य नहीं हो सकता। इतिहासकार इफान हबीब लिखते हैं “कम्युनिस्ट पार्टी शायद पहली महत्वपूर्ण राजनीतिक पार्टी थी जिसने सांप्रदायिक संगठनों से जुड़े लोगों को अपने दल से बाहर रखा।’’

इसी तरह 1931 में पार्टी के महत्वपूर्ण दस्तावेज़ Draft platform for action में लिखा गया था “भारत की कम्युनिस्ट पार्टी गुलामी, जाति व्यवस्था और जाति असमानता के सभी रूपों (सामाजिक, सांस्कृतिक, आदि) के सम्पूर्ण खात्मे के लिए लड़ती है।’’ पी सुन्दरैया, आर बी मोरे, पी. जीवानंदम, पी कृष्ण पिल्लई, ई एम एस नंबूदरीपाद, ए के गोपालन, बी श्रीनिवास राओ जैसे कई कम्युनिस्ट नेता जातिवाद के खिलाफ संघर्षों का हिस्सा रहे थे।

मार्क्सवाद से आकर्षित हुए थे भगत सिंह

इसी दौर में भगत सिंह व उनके साथी भी मार्क्सवाद की ओर आकर्षित हो रहे थे। भगत सिंह की विचारधारा 2 फरवरी 1931 को छपे उनके महत्वपूर्ण दस्तावेज़ “To Young political workers” में साफ दिखाई देती है। इसमें वे लिखते हैं “क्रांति का अर्थ है मौजूदा सामाजिक व्यवस्था को पूरी तरह से उखाड़ फेंकना और उसके स्थान पर समाजवादी व्यवस्था स्थापित करना। उसके लिए सत्ता की प्राप्ति ही हमारा तात्कालिक लक्ष्य है। असल में राज्य, सरकारी मशीनरी शासक वर्ग के हाथों में अपने हितों को आगे बढ़ाने और सुरक्षित रखने का एक हथियार मात्र है। हम इसे छीनना और संभालना चाहते हैं ताकि अपने आदर्श, यानी नए मार्क्सवादी आधार पर सामाजिक परिवर्तन की पूर्ति के लिए इसका उपयोग किया जा सके।’’ उनकी शहादत के बाद हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA), अनुशीलन समिति तथा गदर पार्टी के कई क्रांतिकारी कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े।

1936 में ब्रिटिश कम्युनिस्ट पार्टी के पाल्मे दत्त और बेन ब्रैडले द्वारा लिखी गई दत्त ब्रैडली थीसिस के प्रभाव में कम्युनिस्टों ने यह तय किया कि वे अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद के खिलाफ पॉपुलर फ्रन्ट की नीति के तहत कांग्रेस के भीतर ही काम करेंगे। 1934 में कांग्रेस के भीतर जब कांग्रेस समाजवादी पार्टी का गठन हुआ तो ईएमएस नंबूदरीपाद तथा अन्य कम्युनिस्टों ने इस प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

लेखक विजय प्रसाद के मुताबिक इस दौर में कम्युनिस्ट गतिविधि के परिणामस्वरूप, 1937 में पूरे भारत में मजदूर वर्ग की हड़तालों की लहर चली, जिसमें 6,06,000 श्रमिक शामिल हुए। 

30 के दशक में वामपंथी छात्र आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी पर विजय प्रसाद अपनी किताब “No Free left” में लिखते हैं “All India students federation(AISF) ने एक छात्रा समिति की स्थापना की, जिसमें गीता बनर्जी, नरगिस बाटलीवाला, पेरिन भरूचा, कनक मुखर्जी, शांता गांधी, कल्याणी कुमारमंगलम , विश्वनाथ मुखर्जी, सोवा मजूमदार, अनिम मजूमदार और रेनू चक्रवर्ती जैसी युवा महिलाएं शामिल हुईं। इन युवतियों ने बंदी मुक्ति आंदोलन का नेतृत्व किया।

1941 में दिल्ली विश्वविद्यालय के बीस हजार छात्रों ने इनके आह्वान का अनुसरण करते हुए अंडमान कैदियों की रिहाई की मांग के लिए अपनी कक्षाओं से बाहर निकल कर मार्च निकाला।’’

1939 में जब द्वितीय विश्व युद्ध की शुरुआत हुई तो रोज़मर्रा की चीज़ों की बढ़ती कीमतों और जंग के खिलाफ कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में 90,000 मजदूरों ने मुंबई में जंग विरोधी हड़ताल की। लगातार अंग्रेज़ों के खिलाफ संघर्ष के चलते जून 1941 में कम्युनिस्टों के मुख पत्र पर पाबंदी लगाई गई व defence of India act 1939 के तहत जिन 700 लोगों को गिरफ्तार किया गया, उनमें से 480 कम्युनिस्ट थे!

22 जून 1941 को हिटलर की नाज़ी सेना ने जब सोवित रूस पर हमला किया तो दुनिया भर में बढ़ते फासीवादी खतरे के खिलाफ कम्युनिस्ट पार्टियों ने मित्र राष्ट्रों के साथ एकजुट होकर लड़ने का फैसला किया। भारत के कम्युनिस्टों को जापानी सेना के भारत की सीमाओं के करीब आ जाने से फासीवादी खतरा मंडराता दिख रहा था। इसीलिए उन्होंने मित्र देशों, जिनमें अंग्रेज़ भी थे, के साथ मिलकर बर्बर फासीवाद के खिलाफ संघर्ष करने की नीति पर मुहर लगाई। भारत में उस समय तक कांग्रेस और अंग्रेज़ों की वार्ता विफल हो चुकी थी और गांधी जी ने भारत छोड़ो आंदोलन का ऐलान कर दिया था। इसके बाद कांग्रेस के मुख्य नेताओं को अंग्रेज़ों ने गिरफ्तार कर लिया। इसके खिलाफ देश भर में अंग्रेज़ों के खिलाफ आंदोलन खड़ा हो गया। 

A history of the party 1920-1964

किताब A history of the party 1920-1964 के मुताबिक “पार्टी का यह रुख जनता के बीच विकसित हो रहे साम्राज्यवाद-विरोधी मूड के खिलाफ था।’’ किताब में आगे दर्ज है “जनयुद्ध की राजनीतिक लाइन आम तौर पर सही थी, लेकिन पार्टी ने कुछ गंभीर गलतियां कीं, जिसकी वजह से उसे भारी कीमत चुकानी पड़ी। जनयुद्ध का सही ढंग से समर्थन करते हुए भी यह अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र के अंतर्विरोध को राष्ट्रीय स्तर के अंतर्विरोध के साथ एकीकृत करने में विफल रही। जहां अंतरराष्‍ट्रीय क्षेत्र पर फासीवाद के खिलाफ संघर्ष मुख्य अंतर्विरोध था, राष्ट्रीय स्तर पर जनता और ब्रिटिश साम्राज्यवाद के बीच अंतर्विरोध प्रमुख था। इसलिए भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध करना पार्टी की गलती थी ।’’

इस गलती के बावजूद कम्युनिस्टों ने कभी अंग्रेज़ों का सहयोग नहीं किया। जबक‍ि, हिन्दू महसभा व आरएसएस से जुड़े कई संदर्भ इत‍िहास में दर्ज हैं जो बताते हैं क‍ि इन्‍होंने ब्र‍िट‍िश हुकूमत का सहयोग क‍िया था। 

20 सितंबर, 1943 को कम्युनिस्टों पर एक गोपनीय आकलन में खुद ब्रिटिश सरकार ने माना कि “यह (सीपीआई) मुख्य रूप से एक राष्ट्रवादी पार्टी है जो भारतीय स्वतंत्रता के लिए काम कर रही है, हालांकि यह अंतरराष्ट्रीयता के लिए दिखावटी बातें करती है, इसके सदस्यों का एक बड़ा हिस्सा इसके साथ में इसलिए है क्योंकि यह ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकने के लिए खड़ी है।”

जब पार्टी पर से पाबंदी हटी तो 1943 में पार्टी का महासम्मेलन मुंबई में हुआ। सीपीआई की जहां 1933 में सदस्यता सिर्फ 150 थी, वहीं 1943 के मई दिवस तक यह संख्या 15,563 तक पहुंच गई थी। पार्टी से जुड़े महिला, छात्र, किसान व ट्रेड यूनियन की सदस्यता मिला कर संख्‍या लाखों में थी। इस सम्मेलन के दौरान भी पार्टी के 695 कार्यकर्ता जेलों में थे, जिनमें से 105 को आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई गई थी। अंग्रेज़ों के खिलाफ संघर्ष का इससे बड़ा सबूत और क्या होगा!

हड़ताल और विद्रोह में शामिल थी सीपीआई

40 के दशक में कम्युनिस्ट आंदोलन पर पत्रकार प्रफुल बिदवई अपनी किताब “The Phoenix Moment” में लिखते हैं, “सीपीआई(CPI) 1945-1947 के दौरान हुई हड़तालों, विद्रोहों और सशस्त्र विद्रोहों की बड़ी लहर में मज़बूती से शामिल थी और कई मामलों में अग्रणी रही थी, जिनमें हैदराबाद राज्य में तेलंगाना किसान विद्रोह, बंगाल में तेलंगाना बटाईदार आंदोलन, त्रावणकोर में पुन्नपरा-वायलार विद्रोह, महाराष्ट्र के थाणे जिले में वारली आंदोलन और 1946 में बम्बई में रॉयल इंडियन नेवी का विद्रोह और सुभाष चंद्र बोस की भारतीय राष्ट्रीय सेना के सदस्यों की रिहाई के लिए राष्ट्रव्यापी अभियान शामिल थे।’’

प्रफुल बिदवई “The Phoenix Moment” में तेहभागा किसान आंदोलन पर लिखते हैं, “तेलंगाना भारत का सबसे लंबे समय तक चलने वाला कृषि विद्रोह था। यह संघर्ष काश्तकारों और भूमिहीनों को लालची ज़मींदारों के खिलाफ लामबंद करके शुरू हुआ, जो निज़ाम की राजस्व संग्रह प्रणाली का हिस्सा थे। इसके शुरुआती लक्ष्यों में से एक जबरन बिना वेतन के श्रम की प्रथा थी और दूसरी सूदखोरी थी, जिसने निर्दयी साहूकारों को गरीबों के खिलाफ खड़ा कर दिया था। लेकिन संघर्ष जल्द ही आंध्र महासभा के बैनर तले एक स्पष्ट रूप से राजनीतिक निज़ाम विरोधी आंदोलन में बदल गया।’’ वे लिखते हैं, “जब रियासत ने इसका क्रूरतापूर्वक दमन किया, तो आंदोलन ने जवाबी कार्रवाई में हथियार बद्ध संघर्ष किया।’’

किसानों ने स्थापित किया ग्राम राज

आंदोलन के नेता रहे कम्युनिस्ट क्रांतिकारी पी सुन्दरियया जो बाद में CPI(M) के पहले महासचिव बने, ने अपनी किताब “Telangana people’s struggle and its lessons” में आंदोलन पर लिखा है “संघर्ष के दौरान, लगभग 3,000 गांवों में, लगभग 16,000 वर्ग मील के क्षेत्र में लगभग 30 लाख की आबादी वाले किसानों ने ग्राम पंचायतों के संघर्ष के आधार पर ग्राम राज स्थापित करने में सफलता प्राप्त की। इन गांवों में, ग्रामीण क्षेत्रों में निज़ाम की निरंकुशता के स्तंभों – घृणास्पद जमींदारों – को उनके किलेनुमा घरों से खदेड़ दिया गया और उनकी ज़मीनों पर किसानों ने कब्ज़ा कर लिया। जन समितियों के मार्गदर्शन में 10 लाख एकड़ ज़मीन किसानों के बीच फिर से वितरित की गई। सभी बेदखली रोक दी गई और जबरन मज़दूरी सेवा समाप्त कर दी गई ।’’

1948 में आज़ाद भारत की पहली सरकार ने इस इलाके को निज़ाम के राज्य से भारत का हिस्सा बनाने के लिए सेनाएं भेजीं। इतिहासकार सुमित सरकार का कहना है कि सेनाओं को भेजने का एक कारण कम्युनिस्टों की बढ़त को रोकना भी था! आंदोलन के दौरान कम्युनिस्टों और विद्रोही किसानों को पहले निज़ाम के रज़ाकारों और फिर भारतीय सेना के हाथों बर्बर दमन झेलना पड़ा। इस पर पी सुन्दरियया ने अपनी किताब “Telangana people’s struggle and its lessons” में लिखा है, “4000 से अधिक कम्युनिस्ट और किसान विद्रोही मारे गए; 10,000 से अधिक कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं और जन सेनानियों को 3-4 वर्षों की अवधि के लिए नज़रबंदी शिविरों और जेलों में डाल दिया गया; कम से कम 50,000 लोगों को समय-समय पर पुलिस और सैन्य शिविरों में घसीटा गया, जहां उन्हें हफ्तों और महीनों तक पीटा गया।’’

वे आगे लिखते हैं “हज़ारों महिलाओं के साथ छेड़छाड़ की गई और उन्हें हर तरह के अपमान से गुजरना पड़ा” वे आगे लिखते हैं “पूरे क्षेत्र को पांच वर्षों तक क्रूर पुलिस और सैन्य आतंक के शासन के अधीन किया गया1 शुरू में निज़ाम और उनके रज़ाकार सशस्त्र गिरोहों द्वारा और बाद में केंद्र सरकार और हैदराबाद की राज्य सरकार के संयुक्त सशस्त्र बलों द्वारा।’’

इसकी समाप्ति के बाद 1952 में भारत के पहले लोकसभा चुनावों में तेलंगाना की नलगोंडा लोकसभा क्षेत्र से आंदोलन के नायक कम्युनिस्ट नेता रवि नारायण रेड्डी देश में सबसे बड़े अंतर से चुनाव जीते। इसी साल हुए राज्य के चुनावों में भी नलगोंडा व वारंगल ज़िलों की सभी सीटों पर कम्युनिस्ट पार्टी की जीत हुई। पी सुन्दरियया ने लिखा है कि तेलंगाना विद्रोह की एक उपलब्धि ये भी थी कि इसकी वजह से ही कांग्रेस आधे-अधूरे कृषि सुधार, बेहद अनमने ढंग से ही सही, लेकिन लाने के लिए मजबूर हुई।

अफसोस की बात है कि कम्युनिस्टों के इस एतिहासक संघर्ष को मुख्यधारा के विमर्श से बिलकुल गायब कर दिया गया है। अंग्रेज़ों व सामंतों के खिलाफ उनके संघर्ष की ये दास्तान साबित करती है कि आरएसएस/बीजपी के द्वारा यह कहना कि “कम्युनिस्ट देशद्रोही हैं” कितना बड़ा झूठ है। आज उनके झूठ के इस साम्राज्य को चुनौती देना ज़रूरी है!