भारत के पूर्व रेल मंत्री और बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू यादव का जन्म 11 जून, 1948 को गोपालगंज जिले के फुलवरिया गांव में हुआ था। वे कुंदन राय और मरछिया देवी की आठ संतानों में छठे थे। लालू यादव के पिता के पास मुश्किल से एक बीघा जमीन थी और कुछ मवेशी थे। लालू यादव का परिवार गांव के एक किनारे पर घास-फूस और मिट्टी से बनी झोपड़ी में रहता था। पैसों की हमेशा कमी होती थी। लालू और उनके भाई-बहनों को अक्सर एक बार खाना खाकर रहना पड़ता था। लालू के परिवार में लोग अधिक और साधन कम थे।
गांव और जातिवाद का दंश
पत्रकार संकर्षण ठाकुर ने अपनी किताब ‘बंधु बिहारी’ में लालू यादव के सबसे बड़े भाई मंगरू राय के हवाले से गांव का हाल बताया है। मंगरू राय कहते हैं, “जब हम बच्चे थे, ये बाबू साहेब लोग राजा थे और हम किस्मतवाले होते थे, अगर वे लोग हमें अपनी प्रजा समझते थे। मुझे याद है कि मेरे पिताजी गांव में निकलते थे तो सम्मान और डर से उनका सिर हमेशा झुका रहता था। क्या पता कब कोई साहेब कहीं से प्रकट हो जाए। हम बच्चे तो कभी बाबू साहेब लोग को देख भी नहीं पाते थे। गांव के कुछ हिस्से हमारे लिए प्रतिबंधित थे। हम अपने खेतों और अपने ग्वालटोला तक ही सीमित रहते थे। हमें कभी कारण पूछने का खयाल भी नहीं आया। पूछने का मतलब होता विद्रोह करना।”
हालांकि लालू यादव कभी किसी सीमा में बंधकर नहीं रहे। लालू के एक अन्य बड़े भाई महावीर राय बताते हैं, “वह हम सब से में अकेला था, जो हिम्मत करके बाबू साहेब लोगों के खेतों में घुस जाता था और उनसे बात भी कर आता था। वह उनके बच्चों के साथ खेल भी आता था। वहीं हम अपने जैसों के साथ ही अटके रहते थे। अजीब बात यह थी कि जितना वह सामाजिक सीमाओं का उल्लंघन करता था, उतनी ही उसकी पहुंच बढ़ती जाती थी।”
गांव से कैसे निकले लालू यादव?
लालू यादव 6 साल की उम्र में ही गांव से निकल पटना पहुंच गए थे। उनकी पढ़ाई लिखी पटना में ही हुई। लालू यादव के पटना पहुंचे की कहानी दिलचस्प है। मंगरू राय बताते हैं, “एक सुबह, छोटे से लालू अपने घर में स्लेट पर कुछ चित्रकारी कर रहे थे। तभी वहां से फुलवरिया के एक जमींदार गुजरे। उन्होंने लालू को देखकर चलते-चलते तंज किया, ‘ओहो, देखा हो एही है कलजुग। अब ई गंवार का बच्चा भी पढ़ाई-लिखाई करी। बैरिस्टर बनाबे के बा का’
लालू के चाचा यदुनंद राय, जो उस समय पटना से आए हुए थे, वह इस टिप्पणी से इतने तिलमिला गए कि उन्होंने अपने भतीजे को तुरंत पटना ले जाकर उसकी शिक्षा का प्रबंध करने का निर्णय ले लिया। यदुनंद राय पटना पशु चिकित्सा महाविद्यालय में ग्वाले का काम करते थे, जिससे उनकी प्रतिदिन कुछ आने की कमाई हो जाती थी। उनके पास महाविद्यालय के परिसर में रहने की जगह भी थी। वे लालू को अगले ही दिन अपने साथ लेकर चले गए।”
इस कहानी का एक दूसरा वर्जन भी है जो महावीर राय सुनाते हैं। चाचा यदुनंद की तरह उन्हें भी पटना के पशु चिकित्सा महाविद्यालय में काम मिल गया था। वह लालू यादव के पटना लाए जाने की कहानी को कुछ इस तरह बताते हैं, “फुलवरिया में रहना हमारे लिए मुश्किल होता जा रहा था। हमारा परिवार बहुत बड़ा था और सबका पेट भरना संभव नहीं हो पा रहा था। हमारे चाचाजी को पशु चिकित्सा महाविद्यालय में नौकरी मिल गई थी, इसलिए हम भी अपनी किस्तम आजमाने आ गए। हमें कुछ महीने इंतजार करना पड़ा, लेकिन चाचाजी ने बहुत मदद की और हमें नौकरी मिल गई। जब हम महाविद्यालय में ठीक-ठाक तरीके से जम गए तो हमने सोचा, लालू को गांव से लाकर यहां के स्कूल में पढ़ाया जाए।”
लालू में कुछ खास था- महावीर राय
लालू यादव के बचपन का किस्सा बताते हुए महावीर राय कहते हैं, “हम सब भाई-बहनों में वह शुरू से कुछ खास था। वह एक लोकप्रिय बच्चा था। वह हम सब में होशियार समझा जाता था। उसने गांव में अपने लिए बहुत जल्दी नाम कमा लिया था। वह त्योहारों और शादी-ब्याह में नाचता-गाता था और सबसे घुल-मिल जाता था। हमने सोचा, हमारे परिवार में कोई तो पढ़ा-लिखा होना चाहिए और लालू हमारी स्वाभाविक पसंद था। हम सब शुरू से जानते थे कि उसमें कोई ऐसी बात थी, जो हममें से किसी में नहीं थी। हालांकि हममें से किसी ने यह नहीं सोचा था कि वह एक दिन मुख्यमंत्री बन जाएगा। छोटी-छोटी अजीब सी बातें उसे खास बनाती थीं। उसमें एक अलग सा आकर्षण था, जिसका इस्तेमाल वह बचपन में भी करता था।”
बचपन में लालू यादव द्वारा लड़कियों को गाना सुनाने का एक किस्सा सुनाते हुए महावीर राय कहते हैं, “गर्मी की एक दोपहर में मैंने उसे गांव की बहुत सी लड़कियों के सामने गाना गाते देखा। उनमें से कई ऊंची जाति की थीं; लेकिन न उन्हें इस बात की कोई परवाह थी, न लालू को।”
‘लालू राय’ नहीं ‘लालू यादव’
महावीर राय बताते हैं, “हम सब में से वह अकेला था, जो परिवार के नाम ‘राय’ का इस्तेमाल नहीं करता था। वह हमेशा ‘लालू राय’ की जगह ‘लालू यादव’ लिखता था। यह सब उसके स्कूल के शुरुआती दिनों की बात है। हमारा इस ओर ध्यान भी नहीं गया, जब तक कि उसने राजनीति में नाम कमाना शुरू नहीं कर दिया। वह जाति का नाम ‘यादव’ हमेशा अपने नाम के आगे लगाता था।”