पेशवा बाजीराव भारत के इतिहास में एक ऐसा नाम रहा जो जीवन में 40 लड़ाई लड़ा, उनमें से एक भी नहीं हारा। पिता बालाजी विश्वनाथ की मौत के बाद वो 20 साल की उम्र में शाहूजी महाराज का पेशवा बना था। उसके बाद का दौर बाजीराव का ही रहा। उसने जीवन का पहला और आखिरी उद्देश्य मराठा साम्राज्य के साथ हिंदूओं को सर्वोपरि बनाना था। लेकिन एक वाकया ऐसा भी रहा जिसमें बाजीराव की वजह से दिल्ली लुट गई। ऐसी लुटी कि आज भी उसे याद करके लोग सिहर उठते हैं। नादिर शाह ने दिल्ली के कोने कोने में जाकर आतंक मचाया और सरेआम कत्लेआम किया।
कहानी तब शुरू होती है जब बाजीराव पेशवा अपनी ताकत के चरम पर था। सारा हिंदुस्तान उसके नाम से भी थर्राता था। पेशवा की ताकत थी उसकी रफ्तार। इससे मुकाबला करना हर किसी के वश में नहीं था। निजाम हो या मुगल बादशाह सभी उसकी ताकत और रणनीति के सामने नतमस्तक थे। ये कहानी शुरू होती है 1735 के आसपास। बाजीराव कुछ ऐसे इलाकों में चौथ वसूल करने का अधिकार मुगल बादशाह से मांग रहा था जो सीधे उनके नियंत्रण में थे। उस वक्त दिल्ली के तख्त पर मोहम्मद शाह बैठा था। मुगलों की ताकत आहिस्ता आहिस्ता कमजोर पड़ रही थी। लेकिन इसका अंदाजा दूसरे मुल्कों के बादशाहों को नहीं था। उधर बाजीराव की बात को मुगल बादशाह ने तवज्जो नहीं दी तो उसको गुस्सा आ गया। उसने मुगल बादशाह को सबक सिखाने की ठान ली। हालांकि उसके इरादों का पता दिल्ली के दरबार को लग गया था लेकिन बाजीराव उस वक्त ग्वालियर में था। ये 1736 में नवंबर का महीना था।
70 मील रोजाना की रफ्तार से दौड़ी बाजीराव की सेना
मुगलों को लगता था कि बाजीराव कैसे भी सेना के साथ आगे बढ़ेगा वो 15 से 20 दिन में ही दिल्ली आ पाएगा। लेकिन पेशवा के दिमाग में कुछ और ही चल रहा था। उसने मुगल बादशाह को भौचक कर सबक सिखाने की ठान ली। वो बिजली की रफ्तार से दिल्ली की तरफ बढ़ा। इतिहासकार लिखते हैं कि बाजीराव ने अपनी सेना के साथ 70 मील की दूरी रोजाना तय की। आगरा को उसने 14-15 किमी पूर्व में रखा। आगरा मुगलों का गढ़ था। बाजीराव को पता था कि भनक लगते ही मुगल अलर्ट हो जाएंगे। वो तूफानी रफ्तार से दिल्ली में घुसा और अपनी सेना के सामने तालकटोरा स्टेडियम (आज का) के सामने जाकर जम गया। मराठा सेना तीन दिनों तक वहीं बैठी रही। मुगल बादशाह को पता चला तो वो तहखाने में जाकर छिप गया।
मीर हसन कोका लड़ने आया पर मार खार निकल भागा
मुगल बादशाह के कहने पर मीर हसन कोका ने बाजीराव से दो-दो हाथ करने की ठानी। वो एक सेना को लेकर तालकटोरा स्टेडियम की तरफ बढ़ा। लेकिन मराठों के हाथों मार खाकर ऐसा भागा कि फिर कहीं नहीं दिखा। उधर मुगल बादशाह के कहने पर आगरा से एक बड़ी सेना ने दिल्ली की तरफ मार्च शुरू कर दिया। लेकिन उसके आने से पहले ही बाजीराव वहां से निकल गया। बाजीराव ने दिखा दिया था कि वो किसी के बस का नहीं है। खास बात है कि बाजीराव ने दिल्ली में घुसने के लिए उन रास्तों का इस्तेमाल किया जहां पर मुगलों की कोई भी चौकी नहीं बनी थी। वो कैलकुलेटिव था। उसे पता था कि किन रास्तों का इस्तेमाल करके दिल्ली में घुसना है। वो दिल्ली में जा घुसा और मुगलों को भनक तक भी नहीं लग सकी।
पेशवा अपनी सेना को लेकर वापस पुणे की तरफ लौट गया। अपने छोटे भाई चिमाजी अप्पा को लिखी एक चिट्ठी में बाजीराव ने दिल्ली हमले का पूरा वारया बयान किया। इसमें बताया गया कि कैसे मल्हारराव होल्कर की छोटी सी सेना को हराकर मुगल खुश हो रहा थे। बाजीराव ने लिखा कि उसका इरादा दिल्ली को तबाह करने का था। जलाने का था। लेकिन उसके मन में दिल्ली की आन बान शान का एक अक्स भी था। उसने लिखा कि दिल्ली की शान न तबाह हो इसी वजह से वो मुगल सेना के आने से पहले ही पुणे की तरफ निकल पड़ा। लेकिन मुगलों को सबक सिखाना जरूरी था।
नादिर शाह को दिख गई मुगल सल्तनत की कमजोरी
लेकिन बाजीराव ने जो कुछ किया वो भारत की सीमाओं को पार करके दूसरे मुल्कों तक भी पहुंच गया। नादिर शाह काबुल का बेहद मजबूत बादशाह था। उसके मन में दिल्ली को लूटने की ख्वाहिश हिलोरे मारती थी। लेकिन मुगल बादशाह की ताकत से वो डरता था। उसने देखा कि बाजीराव ने पुणे से दिल्ली आकर मुगलों को पानी पिला दिया तो वो एक बड़ी सेना लेकर 1739-40 में दिल्ली आ धमका। मुगल सहमे हुए थे। बाजीराव ने दिल्ली हमले के बाद उनको भोपाल के युद्ध में करारी शिकस्त दी थी। नादिर शाह आया तो मुगल भाग खड़े हुए। उसके बाद शुरू हुआ दिल्ली के लुटने का सिलसिला। दिल्ली कई दिनों तक लूटी गई। कत्लेआम होता रहा। इतिहासकार मानते हैं कि बाजीराव दिल्ली न आता तो नादिर शाह यहां आने की जुर्रत न करता।