भारत के पूर्व उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने एक इंटरव्यू में बताया था कि 6 दिसंबर, 1992 को बाबरी मस्जिद पर चढ़े लोग मराठी बोल रहे थे। आडवाणी के मुताबिक, उन्होंने बाबरी को बचाने की कोशिश की थी। उन्होंने यह भी स्वीकार किया था कि बाबरी मस्जिद को गिराना बड़ी भूल थी।
साल 2000 में वरिष्ठ पत्रकार प्रणय रॉय ने जब आडवाणी से पूछा कि क्या उन्हें लगता है कि बाबरी विध्वंस एक बड़ी गलती थी? आडवाणी ने जवाब दिया, “इसमें कोई संदेह नहीं कि वह एक बड़ी गलती थी। मैंने तो उमा भारती को कहा था कि जाओ उन्हें नीचे उतारो (बाबरी से) और कहो कि ये सब न करें। उमा ने मेरे पास आकर बताया कि जो लोग सबसे ऊपर चढ़े हुए हैं, वो मराठी बोल रहे हैं। वो मेरी बात नहीं सुन रहे हैं। फिर मैंने प्रमोद (महाजन) को भेजा। वो भी निराश होकर वापस लौट आए। फिर मेरे साथ जो पुलिस ऑफिसर थे, उनसे कहा कि मैं वहां जाना चाहता हूं। लेकिन उन्होंने मुझे जाने नहीं दिया।”
जब आडवाणी से पूछा गया क्या उन्हें लगता है कि ये सब नेतृत्व की विफलता के कारण हुआ, आप आग से खेल रहे थे, जो आपके नियंत्रण से बाहर हो गया? आडवाणी ने कहा- मैं इससे इनकार नहीं करूंगा। ये हमारी विफलता थी।”
आडवाणी की रथ यात्रा और बाबरी विध्वंस
90 के दशक में अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए चलाए गए आंदोलन में लालकृष्ण आडवाणी की भूमिका प्रमुख थी। भारतीय जनता पार्टी (BJP) ने राम मंदिर को अपना मुद्दा आडवाणी की अध्यक्षता में ही बनाया था। एक वातानुकूलित टोयोटा गाड़ी को रथ का रूप देकर आडवाणी ने 25 सितंबर, 1990 (पंडित दीनदयाल उपाध्याय जयंती) को गुजरात के सोमनाथ से ‘राम रथ यात्रा’ निकाली थी।
रथ यात्रा का मकसद 10,000 किमी की यात्रा तय कर 30 अक्टूबर को अयोध्या पहुंचना था, जहां कारसेवक कारसेवा करते। रथ यात्रा के दौरान आडवाणी ने एक जगह भाषण देते हुए कहा था, “लोग कहते हैं कि आप अदालत का फैसला क्यों नहीं मानते। क्या अदालत इस बात का फैसला करेगी कि यहां पर राम का जन्म हुआ था या नहीं? आप से तो इतनी ही आशा है कि बीच में मत पड़ो, रास्ते में मत आओ, क्योंकि ये जो रथ है लोक रथ है, जनता का रथ है, जो सोमनाथ से चला है और जिसने मन में संकल्प किया हुआ है कि 30 अक्टूबर (1990) को वहां पर पहुंचकर कारसेवा करेंगे और मंदिर वहीं बनाएंगे। उसको कौन रोकेगा? कौन सी सरकार रोकने वाली है? यह मामला ऐसा है, जिसका समय पर सही निर्णय ले लेना चाहिए। मेरे साथ एक बार जोर से कहिए सियावर रामचंद्र की जय” जाहिर है आडवाणी उसी स्थान पर राम मंदिर का निर्माण चाहते थे जहां बाबरी मस्जिद खड़ी थी।
आडवाणी की यात्रा जिधर से भी निकली, उधर बड़े पैमाने पर हिंसा हुई। यात्रा के दौरान आडवाणी खुद जगह-जगह पर त्रिशूल, कुल्हाड़ी, तलवार और धनुष-बाण के साथ फोटो खिंचवा रहे थे।
इन सब के बावजूद आडवाणी अपनी रथ के साथ अयोध्या नहीं पहुंच पाए। उन्हें पहले ही बिहार में गिरफ्तार कर लिया गया। लेकिन उनके समर्थक अयोध्या पहुंचे। कर्फ्यू के बाद भी शहर में दाखिल होने की कोशिश की। कुछ ने बाबरी के ऊपर भगवा भी फहरा दिया। भीड़ को नियंत्रित करने और बाबरी को बचाने के लिए राज्य की मुलायम सिंह यादव सरकार ने गोली चलाने का आदेश दिया, जिसमें कुछ कारसेवक मारे गए। बाबरी बच गई। लेकिन 6 दिसंबर 1992 को लालकृष्ण आडवाणी समेत तमाम वरिष्ठ भाजपा नेताओं और साधु-संतों की मौजूदगी में बाबरी मस्जिद को अवैध तरीके से ढाह दिया गया।
उस वक्त के कई नेताओं की जीवनी और आत्मकथा से पता चलता है कि विजयाराजे सिंधिया, आडवाणी, अशोक सिंघल आदि ने प्रधानमंत्री नरसिंह राव से वादा किया था कि बाबरी को कोई क्षति नहीं होगी। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और भाजपा नेता कल्याण सिंह ने तो सुप्रीम कोर्ट में बाबरी की सुरक्षा की गारंटी दी थी। लेकिन न कोई वादे पर खड़ा उतरा, न गारंटी सही साबित हुई।
क्या आडवाणी कारसेवकों को उकसा रहे थे?
6 दिसंबर, 1992 को बाबरी से 200 मीटर दूर स्थित मंच पर आडवाणी तमाम अन्य नेताओं के साथ बैठे थे। द वायर की एक रिपोर्ट के मुताबिक, उस दिन आडवाणी के साथ गए एक पुलिस अधिकारी ने सीबीआई अदालत को बताया, “6 दिसंबर, 1992 को आडवाणी ने विवादित स्थल से बमुश्किल 150-200 मीटर की दूरी पर राम कथा कुंज मंच से एक जोशीला भाषण दिया। उन्होंने बार-बार कहा कि मंदिर का निर्माण उसी स्थान पर किया जाएगा।”
सीबीआई की चार्जशीट के मुताबिक, “5 दिसंबर, 1992 को विनय कटियार के घर पर हुई एक गुप्त बैठक में आडवाणी भी मौजूद थे, वहीं पर मस्जिद गिराने का आखिरी फैसला लिया गया था।”
बाबरी विध्वंस की जांच के लिए बनाई गई भारत सरकार ने लिब्रहान आयोग ने आडवाणी को व्यक्तिगत रूप से दोषी ठहराया था। दोषियों की लिस्ट में 68 लोग शामिल थे। इस आयोग का नेतृत्व न्यायमूर्ति एमएस लिब्रहान ने किया था। आयोग ने अपनी रिपोर्ट 17 साल बाद जून 2009 में सौंपी थी।
रिपोर्ट में लिखा था, “एक पल के लिए भी यह नहीं माना जा सकता कि लालकृष्ण आडवाणी, अटल बिहारी वाजपेयी या मुरली मनोहर जोशी को संघ परिवार के मंसूबों की जानकारी नहीं थी। भले ही इन नेताओं को संघ ने सतर्क जनता को आश्वस्त करने के लिए इस्तेमाल किया हो, लेकिन ये सभी वास्तव में लिए गए निर्णयों में शामिल थे।”
हालांकि द इंडियन एक्सप्रेस के विकास पाठक ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया है कि आडवाणी कारसेवकों को बाबरी से उतारने के लिए माइक्रोफोन से आवाज लगा रहे थे। जहां तक सीबीआई की चार्जशीट की बात है तो 30 सितंबर, 2020 को विशेष सीबीआई कोर्ट के जज एसके यादव ने बाबरी विध्वंस के सभी 32 आरोपियों को बरी कर दिया था, इसमें आडवाणी भी शामिल थे।