राजनीति में अचानक हलचल देखने को मिल रही है। वसुंधरा राजे ने निष्क्रियता छोड़कर सक्रिय होना शुरू कर दिया है और अपने साथ-साथ बेटे के लिए भी बड़े राजनीतिक लक्ष्य रख रही हैं। वहीं बिहार में कुछ राजपूत नेता भाजपा से नाराज हैं, जो पार्टी के अंदरूनी समीकरणों को चुनौती दे रहे हैं। इसी बीच, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के 100 साल पूरे होने पर जारी सिक्के ने भाजपा और कांग्रेस के बीच नई बयानबाजी को जन्म दिया है। जम्मू-कश्मीर में उमर अब्दुल्ला निराश हैं क्योंकि पूर्ण राज्य का दर्जा अभी नहीं मिल पाया, जबकि हरियाणा में भूपिंदर सिंह हुड्डा ने विधायक दल की नेता की कुर्सी अपने पक्ष में पक्की कर ली है। इन घटनाओं से देश की राजनीति में नया रंग और बदलाव की संभावना बन रही है।

सक्रिय समय

वसुंधरा राजे अचानक सक्रिय हो गई हैं। उनके सक्रिय और निष्क्रिय रहने का क्रम चलते रहता है। सक्रिय अवस्था में होते ही पहला सवाल उठता है कि राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री चाहती क्या हैं? पार्टी आलाकमान ने उन्हें 2023 से ही हाशिये पर धकेल रखा है। वे खुद भी निष्क्रिय ही चल रही थीं। जहां तक उनकी ख्वाहिश का सवाल है, वह किसी से छिपी नहीं है। पहली तो यही कि मुख्यमंत्री उन्हें बनाया जाए। दूसरी, बेटे को केंद्र में मंत्री बनवाना। पिछले लोकसभा चुनाव में राजस्थान में भाजपा का प्रदर्शन खराब रहा था। फिर भी झालावाड़ में उनके बेटे दुष्यंत पौने चार लाख वोट से जीते थे। वे लगातार पांचवी बार सांसद हैं।

वसुंधरा की उम्र 72 साल है। इशारों में कह रही हैं कि वे राम की तरह वनवास भोग रही हैं। उनके समर्थकों ने राग शुरू किया था कि वे उपराष्ट्रपति बनेंगी। फिर अटकलें लगाई गईं कि वे भारतीय जनता पार्टी की पहली महिला अध्यक्ष होंगी। यह भी मुमकिन नहीं लगता। रही सक्रियता की बात तो मानसून सत्र के दौरान वे दिल्ली आकर मोदी और शाह से मिली थीं। जोधपुर में आरएसएस की बैठक के दौरान उनकी मोहन भागवत से मंत्रणा हुई थी। पिछले हफ्ते मोदी बांसवाड़ा गए थे तो मंच पर वसुंधरा से गुफ्तगू की थी। सारी कवायद के बावजूद उनका मुख्यमंत्री बन पाना मुश्किल है। हां, उनके कुछ समर्थक राज्य में मंत्री जरूर बन सकते हैं।

अब बिहार में नाराज

पिछले साल लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में भाजपा को झटका लगा था। अखिलेश यादव ने इसे पीडीए समीकरण की कामयाबी बताया, तो भाजपा ने जनता के विपक्ष के संविधान खत्म होने के झूठे प्रचार में आ जाने की आशंका को वजह बताया था। लेकिन राजपूत मतदाताओं की नाराजगी की वजह भी अहम थी। चुनाव हारने वाले भाजपा के कई उम्मीदवारों ने खुद राजपूत नेताओं पर भीतरघात के आरोप लगाए थे।

बहरहाल राजपूतों की वैसी ही नाराजगी बिहार विधानसभा चुनाव में भी दिख रही है। भाजपा के नाराज राजपूत नेताओं में आरके सिंह और राजीव प्रताप रूडी के नाम प्रमुख हैं। दोनों ही पूर्व में केंद्र में मंत्री रह चुके हैं। आरके सिंह तो केंद्र में गृह सचिव भी रहे। उन्होंने बागी तेवर अपना रखे हैं। भले ही बिहार में राजपूत तादाद में ज्यादा न हों, पर अंदरूनी फूट का विपक्ष को तो लाभ मिलता ही है।

सियासत में संघ का सिक्का

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सौ साल पूरे होने पर देश को पहली बार सौ रुपए का सिक्का मिला है। सौ साल के हुए संघ को समर्पित सिक्के के जारी होते ही भाजपा-कांग्रेस के बीच बयानबाजी शुरू हो गई। जहां भाजपा इसे भारत माता के स्वाभिमान का प्रतीक बता रही है तो दूसरी ओर कांग्रेस ने इसकी तुलना ब्रितानी राज में मिलने वाली साठ रुपए की तनख्वाह से कर दी। कांग्रेस का कहना है कि पहले सत्तापक्ष ने पाठ्यक्रम में एक नई विचारधारा का प्रवेश कराया। अब सिक्कों के जरिए इस विचारधारा को पूरे देश में प्रचारित किया जा रहा है। इसी बीच सत्ता समर्थक मंचों से तंज कसा गया कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी भी सौ बरस की हुई है, लेकिन अभी देश में उसकी स्थिति क्या है?

निराश उमर

उमर अब्दुल्ला निराश हो रहे हैं। उन्होंने मान लिया है कि केंद्र सरकार जम्मू-कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं देगी। अनुच्छेद-370 हटे पांच साल हो चुके हैं। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के कारण विधानसभा चुनाव तो जरूर करा दिए गए। जाहिर है कि राज्य में अपनी सरकार बनाने का उसका सपना पूरा नहीं हुआ लिहाजा उसने पूर्ण राज्य के फैसले को ठंडे बस्ते में डाल दिया। हालांकि प्रधानमंत्री और गृहमंत्री यह आश्वासन कई बार दे चुके हैं कि सही समय पर पूर्ण राज्य का दर्जा दे दिया जाएगा। यह बात अलग है कि उमर अब्दुल्ला सरकार ने विधानसभा से इसका प्रस्ताव पारित कर शुरू में ही केंद्र को भेज दिया था। उपराज्यपाल ने भी अपनी सहमति दी थी। अब तो केंद्र को बहाना भी मिल गया है लद्दाख की हिंसा का।

वहां पूर्ण राज्य के लिए ही आंदोलन हुआ था, जो बाद में हिंसक हो गया। जम्मू कश्मीर के नेता बयान दे रहे हैं कि केंद्र को पूर्ण राज्य की उनकी मांग की अहमियत समझनी चाहिए। अगर लद्दाख के लोग इतने उद्वेलित हैं तो कश्मीरी कितने होंगे। पर केंद्र तो आसानी से कह देगा कि खुफिया एजंसियों की राय सुरक्षा के मद्देनजर पक्ष में नहीं है। उमर अब्दुल्ला ने पिछले लंबे समय से अपनी राजनीतिक छवि को संतुलित रखने की कोशिश की है। चाहे पहलगाम हमला हो और उसके बाद शुरू हुआ आपरेशन सिंदूर, वे केंद्र को लेकर ज्यादा तल्ख नहीं होते। उन्हें अभी तक उम्मीद थी कि सूबे का सियासी हाल बदलेगा।

एक साल लटकी ‘मर्जी’

मुराद पूरी हो गई भूपिंदर सिंह हुड्डा की। हरियाणा प्रदेश विधायक दल के नेता बन गए। पार्टी का सूबेदार भी अपनी पसंद का बनवा लिया। हुड्डा अब आधिकारिक तौर पर नेता प्रतिपक्ष बन गए हैं। न केवल मंत्री पद का दर्जा पा जाएंगे बल्कि चंडीगढ़ का उनका बंगला भी उनके पास ही बना रहेगा। हुड्डा ने साबित कर दिखाया कि हरियाणा में कांग्रेस में उनके बिना पत्ता भी नहीं हिल सकता। पिछले साल अक्तूबर में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा ने जीत की हैट्रिक लगाई थी तो कांग्रेस की हार के लिए हर किसी ने हुड्डा को दोषी माना था। चुनाव पूर्व सर्वे कांग्रेस को बहुमत दिखा रहे थे पर कांग्रेस 37 सीटों पर अटक गई थी। राहुल गांधी हरियाणा में पार्टी को हुड्डा की गिरफ्त से मुक्त कराने के फेर में थे। इसी चक्कर में विधायक दल के नेता का फैसला एक साल लटकाए रखा। हां, राहुल की किसी यादव को पार्टी अध्यक्ष बनाने की बात हुड्डा ने मान ली। भले कैप्टन अजय यादव को बनाने की राहुल की चाहत अधूरी रख अपने चहेते राव नरेंद्र सिंह को बनवाया। राहुल बताएं कि हुड्डा की मर्जी चलनी थी तो फैसला एक साल लटकाया क्यों?