बिहार भारत के सबसे दिलचस्प राजनीतिक इतिहासों में से एक रहा है। राज्य में इस समय विधानसभा चुनाव हो रहे हैं। राज्य के आठवें मुख्यमंत्री भोला पासवान शास्त्री ने 4 जुलाई 1969 को जब पद से इस्तीफा दिया, तब देश की राजनीति में बड़ा बदलाव आया था — कांग्रेस पार्टी दो हिस्सों में बंट गई। एक गुट इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस (आर) बना, जबकि दूसरा गुट कामराज के नेतृत्व में कांग्रेस (ओ) कहलाया।
इसके बाद बिहार में एक बार फिर राष्ट्रपति शासन लागू हुआ और विधानसभा को निलंबित कर दिया गया। पूर्व सीएम हरिहर सिंह कांग्रेस (ओ) के साथ बने रहे और कांग्रेस विधायक दल (सीएलपी) के नेता के रूप में अपनी भूमिका निभाते रहे।
राष्ट्रपति शासन छह महीने से अधिक चला। इस दौरान दो जांच आयोगों ने अपनी रिपोर्टें पेश कीं — अय्यर आयोग (जिसे महामाया प्रसाद सिन्हा की सरकार ने गठित किया था) और मुधोलकर आयोग (जो बी.पी. मंडल की सरकार ने बनाया था)। दोनों आयोगों ने पूर्ववर्ती सरकारों के कई मंत्रियों को पक्षपात और पद के दुरुपयोग का दोषी ठहराया। इससे राज्य की राजनीति में अविश्वास और अस्थिरता का माहौल और गहराता गया। साथ ही, कई कांग्रेस नेता एक गुट से दूसरे गुट में आते-जाते रहे, जिससे राजनीतिक समीकरण लगातार बदलते रहे।
जनवरी 1970 की शुरुआत में कई कांग्रेस विधायकों ने राज्यपाल को एक ज्ञापन सौंपा, जिसमें उन्होंने हरिहर सिंह के नेतृत्व वाली कांग्रेस (ओ) को अस्वीकार करते हुए कांग्रेस (आर) के साथ रहने का निर्णय लिया और दरोगा प्रसाद राय को अपना नेता चुना।
संयुक्त विधायक दल (एसवीडी) द्वारा वैकल्पिक सरकार बनाने का प्रयास असफल रहा। दरोगा प्रसाद राय ने बहुमत का समर्थन प्रस्तुत किया और उन्हें सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया गया। अंततः उन्होंने 16 फरवरी 1970 को मुख्यमंत्री पद की शपथ ली।
गठबंधन सरकार का नेतृत्व
दरोगा प्रसाद राय ने जिस गठबंधन सरकार का नेतृत्व किया, उसमें शुरुआती छह सहयोगी दल शामिल थे — कांग्रेस (आर), प्रजा सोशलिस्ट पार्टी (पीएसपी) का एक गुट, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई), शोषित दल, हुल झारखंड और भारतीय क्रांति दल (बीकेडी)। बाद में पूर्व मुख्यमंत्री बिनोदानंद झा का लोकतांत्रिक कांग्रेस दल (एलसीडी) भी इसमें शामिल हो गया। विपक्ष में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (एसएसपी), भारतीय जनसंघ (बीजेएस), पीएसपी का एक गुट, राजा कामाख्या नारायण सिंह की जनता पार्टी, कांग्रेस (ओ), स्वतंत्र पार्टी और बी.पी. मंडल के नेतृत्व वाला शोषित दल का एक गुट शामिल था।
महामाया प्रसाद सिन्हा के समय से चली आ रही राजनीतिक अस्थिरता इस दौर में भी बनी रही। एसएसपी नेता रामानंद तिवारी ने 15 दिसंबर 1970 को अविश्वास प्रस्ताव पेश किया, जिस पर 18 दिसंबर को बहस हुई। सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच लंबी बहस के बाद मतदान हुआ, जिसमें 164 विधायकों ने अविश्वास प्रस्ताव के पक्ष में और 146 ने विरोध में मतदान किया। कुछ विधायकों ने सदन में विरोध भी दर्ज कराया। इस तरह राय सरकार बहुमत खो बैठी और उन्होंने उसी दिन इस्तीफा दे दिया। उनका कार्यकाल लगभग दस महीने का रहा।
राय ने गठबंधन सहयोगियों को एकजुट रखने के लिए छह बार मंत्रिमंडल का विस्तार किया, लेकिन आंतरिक कलह थम नहीं सकी।
इस बीच, राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर हुए राजनीतिक परिवर्तनों ने कांग्रेस के ढांचे को बदल दिया। पुराने नेताओं की तिकड़ी — के.बी. सहाय, महेश प्रसाद सिन्हा और सत्येंद्र नारायण सिन्हा — कमजोर पड़ चुकी थी। वहीं, नए प्रभावशाली चेहरे उभर रहे थे — केंद्रीय मंत्री ललित नारायण मिश्र और राम लखन सिंह यादव। इन्हीं दोनों ने राय के पतन की रणनीति तैयार की। जब वे कांग्रेस विधायक दल के नेता नहीं बन सके, तो अविश्वास प्रस्ताव लाया गया।
1967 और 1969 के विधानसभा चुनावों ने यह स्पष्ट कर दिया कि बिहार में गठबंधन शासन कितना चुनौतीपूर्ण है। बार-बार बदलती सरकारें, दलबदल और सत्ता संघर्ष उस दौर की राजनीति की पहचान बन गए।
दरोगा प्रसाद राय का जीवन और लालू प्रसाद से रिश्ता
1922 में सारण जिले के एक यादव परिवार में जन्मे दरोगा प्रसाद राय 1952 में पहली बार परसा विधानसभा क्षेत्र से कांग्रेस के टिकट पर विधायक बने। उन्होंने 1957, 1962, 1967 (कांग्रेस विरोधी लहर के बावजूद), 1969 के मध्यावधि चुनाव और 1972 में भी लगातार जीत दर्ज की। उन्होंने यह सीट केवल 1977 में जनता पार्टी की लहर के दौरान गंवाई, लेकिन 1980 में फिर से जीतकर विधानसभा लौट आए।
दरोगा प्रसाद राय का अप्रैल 1981 में निधन हो गया। उनका परिवार आज भी राजनीति में सक्रिय है। उनके पुत्र चंद्रिका राय राष्ट्रीय जनता दल (राजद) की सरकारों में मंत्री रह चुके हैं। चंद्रिका राय की बेटी ऐश्वर्या का विवाह लालू प्रसाद यादव के बड़े बेटे तेज प्रताप यादव से हुआ था। वैवाहिक विवाद के बाद चंद्रिका राय 2020 में जनता दल (यूनाइटेड) में शामिल हो गए।
