संसद में ऑपरेशन सिंदूर पर दो दिन तक चर्चा हुई। सरकार और विपक्ष के नेताओं ने इस चर्चा में हिस्सा लिया। मंगलवार को गृहमंत्री अमित शाह ने चर्चा में हिस्सा लेते हुए कांग्रेस को घेरा। उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की कई टिप्पणियों का जिक्र किया। गृह मंत्री अमित शाह ने पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू पर 1962 के युद्ध के दौरान ‘असम को अलविदा’ (Bye Bye to Assam) कहने का आरोप लगाया।

अमित शाह ने क्या कहा?

ऑपरेशन सिंदूर पर चर्चा के दौरान लोकसभा में बोलते हुए अमित शाह ने असम के कांग्रेस सांसद गौरव गोगोई का जिक्र करते हुए कहा, “गोगोई जी बहुत कुछ कहते रहे हैं। क्या आप जानते हैं कि उन्होंने (नेहरू) असम के साथ क्या किया? उन्होंने आकाशवाणी पर असम को अलविदा कहा। इसकी रिकॉर्डिंग मौजूद है।”

यह पहली बार नहीं है जब भाजपा ने नेहरू के 1962 के रेडियो संबोधन का इस्तेमाल यह दावा करने के लिए किया है कि नेहरू ने युद्ध के दौरान असम को लगभग चीन के हवाले कर दिया था। पिछले साल लखीमपुर में एक चुनावी रैली में अमित शाह ने कहा था, “1962 के चीनी आक्रमण के दौरान नेहरू ने असम और अरुणाचल प्रदेश को ‘अलविदा’ कह दिया था। इन राज्यों के लोग इसे कभी नहीं भूल सकते।”

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मार्च 2024 में असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने द इंडियन एक्सप्रेस में लिखा था, “जब जवाहरलाल नेहरू, एक प्रधानमंत्री के रूप में, 1962 के भारत-चीन युद्ध के बीच असम को छोड़कर चले गए और दावा किया कि उनका दिल असम के लोगों के लिए है, तब प्रधानमंत्री मोदी ने बार-बार इस क्षेत्र को अष्टलक्ष्मी और भारत का विकास इंजन कहा।” नेहरू ने रेडियो संबोधन में वास्तव में क्या कहा था और क्या उन्होंने असम को ‘अलविदा’ कह दिया था? उन्होंने संसद में 1962 के युद्ध के बारे में क्या कहा था? अक्साई चीन में घास का एक तिनका भी नहीं उगने के बारे में उनकी क्या टिप्पणी थी? आइए बताते हैं।

भारत-चीन युद्ध के दौरान नेहरू का आकाशवाणी भाषण

1962 का युद्ध मुश्किल से एक महीने 20 अक्टूबर से 21 नवंबर तक चला। चीन ने भारत पर दो तरफ से आक्रमण किया। पश्चिम में लद्दाख क्षेत्र के आसपास और पूर्व में पूर्वोत्तर सीमांत एजेंसी (आज का अरुणाचल प्रदेश और असम के कुछ हिस्से) में आक्रमण किया। दोनों मोर्चों पर उसकी जीत निर्णायक रही। वह रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण तवांग (वर्तमान अरुणाचल प्रदेश में) पर कब्ज़ा करने में सफल रहा और आगे बढ़ा।

‘heart goes out to Assam’

इसी संदर्भ में नेहरू ने 19 नवंबर 1962 को राष्ट्र को हिंदी में संबोधित किया था। “heart goes out to Assam” पंक्ति इस प्रकार है। उन्होंने कहा था, “इस वक्त कुछ असम के ऊपर, असम के दरवाजे पर, दुश्मन है और असम खतरों में है। इस खास तौर से हमारा दिल जाता है हमारे भाई और बहिनों पर, जो असम में रहते हैं, उनकी हमदर्दी में, क्योंकि उनको तकलीफ उठनी पड़ रही है। हम उनकी पूरी मदद करने की कोशिश करेंगे और करेंगे, लेकिन कितनी भी हम मदद करें, हम उनको तकलीफ से नहीं बचा लेंगे इस वक्त, एक बात का हम पक्का इरादा रखते हैं। हम इस बात को आखिरी दम तक चलाएंगे जब तक असम और सारा हिंदुस्तान बिलकुल दुश्मन से खाली न हो जाए।”

असम के लोगों की परेशानियों को नेहरू ने किया था स्वीकार

नेहरू ने आगे कहा, “विशाल चीनी सेनाएं उत्तर-पूर्व सीमांत एजेंसी के उत्तरी भाग में आगे बढ़ रही हैं और हमें सेला रिज पर वालोंग में हार का सामना करना पड़ा है और आज बोमडिला, नेफा का एक छोटा सा शहर भी गिर गया है। उत्तर में लद्दाख में भी चुशुल क्षेत्र में चीनी भीषण आक्रमण कर रहे हैं। हालांकि उन्हें पकड़ लिया गया है। अब जो कुछ हुआ है वह हमारे लिए बहुत गंभीर और दुखद है और मैं अच्छी तरह समझ सकता हूं कि असम में हमारे मित्र क्या महसूस कर रहे होंगे क्योंकि यह सब उनके दरवाजे पर हो रहा है, ऐसा कहा जा सकता है। मैं उन्हें बताना चाहता हूं कि हम उनके लिए बहुत दुखी हैं और हम अपनी पूरी क्षमता से उनकी मदद करेंगे। विभिन्न कारणों और चीनी सेनाओं की भारी संख्या के कारण हम अभी जो प्रयास कर रहे हैं, उसमें हम हमेशा सफल नहीं हो पाएंगे, लेकिन मैं अभी और यहीं उनसे यह वचन लेना चाहता हूं कि हम इस मामले को अंत तक देखेंगे और अंत में भारत की विजय ही होगी।” इस प्रकार भाषण में यह दावा किया गया है कि सरकार दुश्मन को असम से खदेड़ देगी और जब प्रधानमंत्री ने अपने हृदय से दुःख व्यक्त करने की बात कही, तो वे असम के लोगों को होने वाली परेशानियों को स्वीकार कर रहे थे।

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रिटायर्ड प्रोफेसर और जवाहरलाल नेहरू इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडी के निदेशक आदित्य मुखर्जी ने द इंडियन एक्सप्रेस को बताया, “नेहरू के 1962 के आकाशवाणी भाषण को असम को अलविदा कहना के रूप में पढ़ना उचित नहीं है। हालांकि मेरा हृदय दुःखी है को असम को त्यागना कहना थोड़ा गलत है, लेकिन भाषण का अगला भाग स्पष्ट करता है कि नेहरू भारत की एक-एक इंच ज़मीन के लिए लड़ने के लिए दृढ़ थे। भाषण में आत्मसमर्पण करने का कोई इरादा नहीं दिखता, बल्कि एक कठिन लड़ाई लड़ते रहने का संकल्प दिखाई देता है।”

युद्ध पर नेहरू की अन्य टिप्पणियां

नेहरू ने संसद में 1962 के युद्ध के बारे में कई बार बात की, युद्ध जारी रहने के दौरान भी जानकारी दी और विपक्ष के सवालों के जवाब दिए। उनके भाषणों का एक ही विषय था कि दुश्मन के सामने आत्मसमर्पण न करें। उदाहरण के लिए 19 नवंबर, 1962 को संसद में भारतीय सेना की पराजय का विवरण देने के बाद नेहरू ने कहा, “मैं यह जोड़ना जोड़ना कि हमें मिली पराजय के बावजूद, हम किसी भी तरह से हार नहीं मानने के लिए दृढ़ हैं और हम दुश्मन से लड़ेंगे, चाहे उसे पीछे हटाने और उसे हमारे देश से खदेड़ने में कितना भी समय लगे।”

नेहरू और अक्साई चीन में घास के तिनके

अमित शाह ने मंगलवार को यह भी कहा कि नेहरू ने संसद में जवाब दिए। उदाहरण के तौर पर अक्साई चिन में घास का एक तिनका भी न उगने वाली नेहरू की टिप्पणी का हवाला दिया। नेहरू की अक्साई चिन वाली टिप्पणी अगस्त 1959 में भारत-चीन युद्ध से पहले की गई थी और उन्होंने संसद में इस पर स्पष्टीकरण दिया था।

लद्दाख में चीनी घुसपैठ के बारे में बोलते हुए नेहरू ने लोकसभा में कहा था, “जब हमें 1958 में एक साल से भी ज़्यादा समय पहले, पता चला कि लद्दाख के उत्तर-पूर्वी कोने में येहचेंग के पार एक सड़क बनाई गई है, तो हम चिंतित हो गए। हमें नहीं पता था कि वह कहां है। माननीय सदस्यों ने पूछा कि हमें पहले क्यों नहीं पता था। यह एक प्रासंगिक प्रश्न है, लेकिन तथ्य यह है कि यह एक निर्जन क्षेत्र है, 17,000 फीट ऊंचा। इस पर किसी भी प्रकार का प्रशासन नहीं था। वहां कोई भी मौजूद नहीं था। यह एक ऐसा क्षेत्र है जहां घास का एक तिनका भी नहीं उगता। यह सिंकियांग से सटा हुआ है।”

जसवंत सिंह ने उठाए थे सवाल

जसवंत सिंह ने बाद में कहा, “प्रधानमंत्री ने कुछ देर पहले कहा था कि लद्दाख का यह हिस्सा बिल्कुल उजाड़ और बंजर है और वहां घास का एक तिनका भी नहीं उगता। फिर भी, चीन इस क्षेत्र को महत्व दे रहा है और वहां सड़क बना रहा है। मैं जानना चाहता हूं कि जब चीन इस उजाड़ ज़मीन को इतना महत्व दे रहा है, तो जब यह क्षेत्र हमारा है या विवादित है, तब भी हम इसे महत्व क्यों नहीं देते?”

तब नेहरू ने उत्तर दिया, “मैंने सिर्फ़ येहचेंग क्षेत्र के बारे में बात की थी, पूरे लद्दाख के बारे में नही। संभवतः चीनी इस क्षेत्र को इसलिए महत्व देते हैं क्योंकि यह मार्ग चीनी तुर्किस्तान के एक हिस्से को गरटोक-येहचेंग से जोड़ता है।”