प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 22 जनवरी को अयोध्या में राम मंदिर का उद्घाटन करेंगे। तिहत्तर साल पहले भारत के राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने भी एक भव्य समारोह में शामिल होकर एक मंदिर का उद्घाटन किया गया था। हालांकि तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इसका (राष्ट्रपति के कार्यक्रम में शामिल होने का) विरोध किया था। उनका मानना था कि सरकार को एक धार्मिक आयोजन से नहीं जुड़ना चाहिए।
यह कहानी अब आम है कि प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद द्वारा सोमनाथ मंदिर के उद्घाटन समारोह में शामिल होने पर आपत्ति जताई थी। लेकिन नेहरू ने इसके लिए जो कारण बताए थे, उस पर बहुत कम बात हुई है। सोमनाथ मंदिर को अंग्रेजों ने जिस तरह मुसलमानों द्वारा हिंदुओं के उत्पीड़न का प्रतीक बताया गया, उसे भी नजरअंदाज कर दिया जाता है।
अकबर ने सोमनाथ मंदिर में लिंग की पूजा की दी थी अनुमति
गुजरात में सोमनाथ एक महत्वपूर्ण हिंदू तीर्थ स्थल है। मंदिर की वेबसाइट के अनुसार, यह “प्रथम आदि ज्योतिर्लिंग श्री सोमनाथ महादेव का पवित्र स्थान और वह पवित्र मिट्टी है जहां भगवान श्री कृष्ण ने अपनी अंतिम यात्रा की थी…”
अधिकांश ऐतिहासिक वृत्तांतों के अनुसार, मंदिर को हमलावरों के कई हमलों का सामना करना पड़ा। मंदिर को सबसे अधिक नुकसान 1026 ईस्वी में महमूद गजनवी द्वारा पहुंचाया गया।
हालांकि यह भी सही है कि सभी मुस्लिम शासकों ने सोमनाथ मंदिर को नुकसान नहीं पहुंचाया। इतिहासकार रोमिला थापर ने अपनी पुस्तक सोमनाथ: द मेनी वॉयस ऑफ हिस्ट्री में लिखा है कि “सोलहवीं शताब्दी में अकबर ने सोमनाथ मंदिर में लिंग की पूजा की अनुमति दी और इसके प्रशासन के लिए देसाई/अधिकारियों को नियुक्त किया।”
औरंगजेब ने सोमनाथ मंदिर को मस्जिद में बदलने का दिया था आदेश
अकबर के तीन पीढ़ी बाद औरंगजेब ने मंदिर को तोड़ने का आदेश दिया। थापर लिखती हैं, “अपनी मृत्यु से ठीक पहले साल 1706 में औरंगजेब इसे (सोमनाथ मंदिर) को नष्ट करने और मस्जिद का रूप देने का आदेश जारी किया।”
धीरे-धीरे मंदिर अनुपयोगी और जीर्ण-शीर्ण हो गया। मंदिर की वेबसाइट के अनुसार, 1782 में मराठा रानी अहिल्याबाई होल्कर ने इस स्थान पर एक छोटा मंदिर बनवाया था।
अंग्रेजों ने बताया हिंदुओं पर इस्लाम के अत्याचार का प्रतीक
इस मंदिर को सबसे पहले ब्रिटिश गवर्नर जनरल लॉर्ड एलेनबरो ने हिंदुओं पर इस्लाम की ज्यादतियों के प्रतीक के रूप में उजागर किया था। 1842 में ब्रिटिश सेना को अफगानिस्तान में भारी नुकसान हुआ था। अंग्रेजी सेना को काबुल से वापस लौटना पड़ा था। बाद में अंग्रेजों ने जवाबी हमला किया। इस दौरान उन्हें कथित तौर पर महमूद गजनवी द्वारा ले जाया गया सोमनाथ का दरवाजा मिला! अंग्रेज अपने साथ चंदन की लकड़ी से बना वह दरवाजा वापस लाए। उनका दावा था कि वे आक्रमणकारी द्वारा लूटकर ले जाया गया सोमनाथ का मूल द्वार वापस लाए हैं। हालांकि बाद में यह स्पष्ट हो गया कि उस दरवाजे का मंदिर से कोई संबंध नहीं था।
हालांकि यह साबित होने से पहले काबुल से लौटकर अंग्रेजी सेना ने दरवाजा वापस लाने को “अपमान का बदला” कहकर प्रचारित किया था। 16 नवंबर, 1842 को एलेनबरो ने सभी राजकुमारों, प्रमुखों और भारत के लोगों के लिए एक उद्घोषणा जारी किया, जिसमें लिखा था: “हमारी विजयी सेना अफगानिस्तान से जीत में सोमनाथ के मंदिर का दरवाजा लेकर आई है… आठ सौ वर्षों के अपमान का आखिरकार बदला ले लिया गया।”
यह आख्यान लोगों के ज़हन में कायम रहा। जैसे-जैसे आजादी के बाद सांप्रदायिक विभाजन गहराता गया, कई हिंदुओं ने सोमनाथ की बहाली को हिंदू गौरव के लिए आवश्यक परियोजना के रूप में मानना शुरू कर दिया। ऐसे लोगों में सबसे ज्यादा मुखर थे कांग्रेस नेता केएम मुंशी।
आजादी के तीन महीने बाद पटेल ने की थी सोमनाथ मंदिर पुनर्निर्माण की घोषणा
आजादी के बाद जूनागढ़ रियासत के नवाब ने पाकिस्तान में शामिल होने का फैसला किया। सोमनाथ इसी रियासत में था। नवाब की अधिकांश प्रजा उनके फैसले का विरोध कर रही थी। विद्रोह के कारण जल्द ही नवाब को भागना पड़ा और 12 नवंबर, 1947 को भारत के तत्कालीन गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने जूनागढ़ का दौरा किया। एक विशाल सार्वजनिक सभा में उन्होंने सोमनाथ के पुनर्निर्माण के निर्णय की घोषणा की।
नेहरू की अध्यक्षता में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने इसका समर्थन किया था। हालांकि, जब पटेल, मुंशी और अन्य लोगों ने महात्मा गांधी को निर्णय के बारे में बताया, तो उन्होंने सुझाव दिया कि मंदिर को सरकारी पैसों से नहीं बल्कि लोगों से पैसों से बनवाना चाहिए। गांधी के सुझाव से सभी सहमत हुए। मंदिर निर्माण के लिए मुंशी के नेतृत्व में एक ट्रस्ट की स्थापना की गई।
सोमनाथ पर राजेंद्र प्रसाद को नेहरू के पत्र
जब तक मंदिर बनकर तैयार हुआ, पटेल का निधन हो चुका था। मुंशी ने उद्घाटन के लिए प्रसाद से संपर्क किया। ये बात नेहरू को पसंद नहीं आई। उन्होंने प्रसाद को सलाह दी कि वे सोमनाथ मंदिर के भव्य उद्घाटन समारोह में हिस्सा न लें। मार्च 1951 में प्रसाद को लिखे एक पत्र में उन्होंने स्पष्ट किया, “यह केवल एक मंदिर का दौरा करना नहीं है। दुर्भाग्यजनक रूप से कई मतलब निकाले जाएंगे। व्यक्तिगत रूप से मैं सोचता हूं कि सोमनाथ में विशाल मंदिर बनाने पर जोर देने का यह उचित समय नहीं है। इसे धीरे-धीरे किया जा सकता था और बाद में ज्यादा प्रभावपूर्ण ढंग से किया जा सकता था। फिर भी मैं सोचता हूं कि बेहतर यही होगा कि आप उस समारोह की अध्यक्षता न करें।”
हालांकि, प्रसाद ने नेहरू की सलाह नहीं मानी। उन्हें कार्यक्रम में शामिल होने में कुछ भी गलत नहीं लगा। एक महीने बाद नेहरू ने उन्हें फिर लिखा, “मेरे प्रिय राजेंद्र बाबू, मैं सोमनाथ मामले को लेकर बहुत चिंतित हूं। जैसा कि मुझे डर था, यह एक राजनीतिक रंग ले रहा है…इसका इस्तेमाल हमारी सरकार की आलोचना के लिए किया जाएगा, हमसे पूछा जाएगा कि हमारी जैसी धर्मनिरपेक्ष सरकार खुद को ऐसे समारोह से कैसे जोड़ सकती है।”
जब समाचार पत्रों में सौराष्ट्र सरकार द्वारा समारोह के लिए पांच लाख रुपये का योगदान देने की खबरें आईं, तो प्रसाद ने इसकी आलोचना की। उन्होंने देश की खराब अर्थव्यवस्था पर चिंता व्यक्त करते हुए लिखा कि “हमने शिक्षा, स्वास्थ्य और कई लाभकारी सेवाओं पर खर्च बंद कर दिया है क्योंकि हम कहते हैं कि हम इसे वहन नहीं कर सकते।”
उन्होंने 2 मई, 1951 को मुख्यमंत्रियों को भी लिखा, “यह स्पष्ट रूप से समझा जाना चाहिए कि यह कार्य सरकारी नहीं है और भारत सरकार का इससे कोई लेना-देना नहीं है… हमें ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहिए जो हमारे राज्य के धर्मनिरपेक्ष होने के रास्ते में आए।”
एक और बात है जिसका नेहरू ने विरोध किया था। जैसा कि थापर लिखती हैं, “भारतीय राजदूतों के लिए एक पत्र भेजा गया था, जिसमें उनसे उन देशों (जहां वे नियुक्त थे) की प्रमुख नदियों से पानी के कंटेनर इकट्ठा करने और उन्हें सोमनाथ में भेजने के लिए कहा गया था। साथ ही वहां के पहाड़ों की मिट्टी और पेड़ पौधों की टहनियां भी मंगाई गई थी। नेहरू ने विदेश मंत्रालय से इन अनुरोधों को नजरअंदाज करने को कहा।”