अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव करीब हैं और वहां रहने वाले लाखों भारतीयों की भी अहमियत बढ़ गई है। डोनाल्ड ट्रंप और जो बाइडन दोनों ही भारतीयों को लुभाने की कोशिश में हैं। दूसरी तरफ अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में भारतीयों की भूमिका जितनी अहम है उतना ही भारत के लिए राष्ट्रपति चुनाव भी महत्वपूर्ण हैं। इंडियन एक्सप्रेस में छपे अपने लेख में राजनीतिक जानकार और विदेश मामलों के एक्सपर्ट अमिताभ मट्टू ने बताया कि चीन से तनातनी के बीच पिछले कुछ सालों में भारत और अमेरिका के बीच द्विपक्षीय संबंध मजबूत हुए हैं। राष्ट्रपति डेमोक्रैट हो या रिपब्लिकन थोड़े बहुत उतार चढ़ाव के साथ दोनों देशों में आपसी समझौते भी होते रहे हैं।
भारत के लिए क्यों अहम है अमेरिका का यह चुनाव?
अर्थव्यवस्ता, रणनीति और सामाजिक कारणों से भी भारत और अमेरिका के संबंध किसी औऱ देश की तुलना में ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। मुख्यधारा के राजनीतिक विचारक भी इन दोनों देशों के मजबूत संबंधों के पक्ष में ही दिखाई देते हैं। अमेरिका में रहने वाले भारतीयों के भी राजनीतिक विचारक अलग-अलग हो सकते हैं लेकिन वे पितृभूमि और जन्मभूमि या कर्मभूमि के बीच में अच्छे रिलेशन ही देखना चाहते हैं। पहले तो 1971 में हुई इंडो-सोवियत ट्रीटी अमेरिका के पाकिस्तान की ओर झुकाव का ही जवाब था। लेकिन 2020 में चीन से तनातनी के बीच भारत और अमेरिका के बीच संबंध लगातार मजबूत हो रहे हैं। वहीं चीन और अमेरेका के बीच वाक्युद्ध औऱ तनाव जारी है।
क्या चुनाव परिणाम से भारत और चीन के बीच समझौते होंगे प्रभावित?
राष्ट्रपति पद के दोनों ही कैंडिडेट चीन की चुनौती को समझते हैं। अगर ट्रंप को दूसरा कार्यकाल मिलता है तो हो सकता है वह और ज्यादा अग्रेसिव तरीके से चीन को काउंटर करें। वहीं जो बाइडन थोड़ा नरम रुख जरूर अपना सकते हैं।
भारत जैसी उभरती हुई महाशक्ति के लिए तीन विकल्प हैं, बचाव, संतुलन या फिर सिर झुका लेना। पहला विकल्प कहता है कि चीन के साथ आपसी हितों के लिए सहयोग जारी रखा जाए। अगर बिडेन की सरकार बनती है तो ज्यादा संभावना है कि भारत को भी इसी रास्ते पर चलना होगा। अगर भारत
चुपचाप चीन के सामने घुटने टेक देता है तो अमेरिका के साथ संबंध खराब हो सकते हैं औऱ यह स्वाभिमान के भी खिलाफ है। चीन के साथ संतुलन बनाना बहुत ही चुनौतीपूर्ण काम है और यह ट्रंप शासन की मांग भी हो सकती है। ऐसे में भारत को अमेरिका के साथ और भी ज्यादा मजबूत संबंध बनाने होंगे।
क्या डेमोक्रैट से ज्यादा रिपब्लिकन राष्ट्रपति भारत के पक्ष में रहते हैं?
रिपब्लिकन राष्ट्रपतियों के शासन में भले ही बहुत सारे विवाद होते रहे हों लेकिन भारत के साथ संबंध हमेशा मजबूत हुए हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अगर हम जॉन एफ कैनडी और जॉर्ज बुश का भी उदाहरण लेते हैं तो दोनों ही दिल्ली पहुंचे थे और भारत के साथ उत्साह से रिश्ते मजबूत करने के पक्ष में दिखाई दिए। कैनडी ने हार्वर्ड के एक प्रोफेसर को भारत में अपना राजदूत बनाया था जिसके माध्यम से तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और राष्ट्रपति कैनडी के बीच वैचारिक आदान-प्रदान लगातार होते रहते थे। बाद में यूएस की फर्स्ट लेडी जैकलीना भी भारत आईं। नेहरू जैकी से बहुत प्रभावित हुए थे। कैनडी के शासनकाल में भारत को कई आर्थिक सहायताएं मिलीं और 1962 के युद्ध में भी सैन्य सहायता मिली। अगर 1963 में ही कैनडी की हत्या न हुई होती और 1964 में नेहरू का निधन न हुआ होता तो भारत और अमेरिका के बीच रिश्ते और मजबूत हो गए होते।
जॉर्ज बुश जब दिल्ली आए तो पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने कहा था, ‘भारत के लोग आपसे वास्तव में बहुत प्रेम करते हैं। आपने दोनों देशों के संबंधों के लिए जो कुछ किया है वह ऐतिहासिक है।’ मनमोहन सिंह उनसे मुलाकात के दौरान भावुक भी हुए थे। बुश ने भी कहा था कि भारत में 15 करोड़ मुसलमान हैं फिर भी अलकायदा नहीं है। गजब! दोनों देशों के बीच परमाणु समझौते में भी बुश की ही भूमिका थी।
भारत और अमेरिका के संबंधों का बुरा दौर यूएस में रिपब्लिकन रिचर्ज निक्सन और बिल क्लिंटन के शासनकाल को कहा जा सकता है। निक्सन के कार्यकाल में अमेरिका का रुख पाकिस्तान की तरफ मुड़ गया था। निक्सन को भारत और भारतीयों के साथ पूर्वाग्रह था। 1990 के बाद क्लिंटन के शासनकाल में भी परमाणु समझौता रद्द कर दिया गया और कश्मीर को अलग करने की बातें होने लगीं। हालांकि 1998 के परमाणु परीक्षण के बाद अमेरिका के साथ उस समय के विदेश मंत्री जसवंत सिंह ने फिर से संवाद स्थापित किया और संतुलन बनाने का काम किया।

