रूस में रविवार को होने वाले राष्ट्रपति चुनाव में व्लादिमीर पुतिन के जीतने पर किसी को संदेह नहीं है। बस देखने वाली बात यह है कि वह इस बार कितने बड़े अंतर से चुनाव जीतते हैं। ब्रिटेन में एक पूर्व जासूस पर जानलेवा हमले के बाद यूरोप के साथ रूस का टकराव और बढ़ गया है। यूरोप की दुविधा यह है कि वह सत्ता पर पकड़ मजबूत करते पुतिन से कैसे निबटे। राष्ट्रपति चुनावों में पुतिन के खिलाफ मैदान में सात उम्मीदवार हैं जिनमें करोड़पति कम्युनिस्ट नेता पावेल ग्रुडिनिन और पूर्व टीवी होस्ट क्नेसिया सोबचाक शामिल हैं। लेकिन वे भी जानते हैं कि पुतिन के सामने कोई चांस नहीं है। पुतिन को थोड़ी बहुत टक्कर उनके कट्टर आलोचक एलेक्सी नवालनी दे सकते थे, लेकिन उन्हें भ्रष्टाचार के आरोपों में दोषी साबित होने की वजह चुनाव नहीं लड़ने दिया गया। जब नतीजा तय हो तो फिर मैच देखने का कोई मजा नहीं रहता। इसलिए रूस के राष्ट्रपति चुनाव में किसी की कोई खास दिलचस्पी नहीं है।
पुतिन के आलोचक कहते हैं कि उनके लिए यह चुनाव अपनी सत्ता पर जनता की मुहर लगवाने का सिर्फ एक जरिया है। यानी रूस वैसे ही चलता रहेगा और जैसे पुतिन चाहेंगे। लेकिन पुतिन की चाहतों का दायरा सिर्फ रूस तक सीमित नहीं है। रूस के राष्ट्रपति पुतिन की ताकत लगातार बढ़ रही है और वे यूरोप से लेकर मध्य पूर्व और एशिया तक रणनीतिक समीकरणों को उलट पुलट कर रहे हैं। यूक्रेन संकट के बाद यूरोप और खासकर बाल्टिक देश अपनी सुरक्षा को लेकर फ्रिकमंद हैं तो सीरिया में राष्ट्रपति बशर असद का साथ देकर रूस ने मध्यपूर्व में पांसा ही पलट दिया। दक्षिण एशिया में अफगानिस्तान में रूस की सक्रियता बढ़ रही है तो पाकिस्तान के साथ परवान चढ़ती रूस की दोस्ती पारंपरिक मित्र देश भारत के लिए चिंता का सबब है। इसके अलावा चीन के साथ मिलकर रूस विश्व मंच पर अमेरिका को घेरने का कोई मौका नहीं गंवाता।
रूस के आक्रामक रवैये को देखते हुए कई विशेषज्ञ शीत युद्ध के दिनों की वापसी की बात करने लगे हैं। ब्रिटेन में रह रहे रूस के एक पूर्व रूसी जासूस सेर्गेई स्क्रिपाल और उनकी बेटी पर बेहद जहरीले पदार्थ से किया गया हमला यूरोप और रूस के बीच विवाद की ताजा वजह है। ब्रिटेन ने इस हमले के लिए रूस को जिम्मेदार बताया है। फ्रांस, जर्मनी और अमेरिका ने भी एक स्वर में ब्रिटेन का साथ दिया। ब्रिटेन ने इस मुद्दे पर न सिर्फ संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की आपात बैठक बुलवाई, बल्कि उसने अपने यहां 23 रूसी राजनयिकों को भी निकाल दिया। नाटो ने भी इस हमले की निंदा की और कहा कि उसे इसके “नतीजे भुगतने होंगे।” लेकिन अगली ही सांस में नाटो महासचिव येंस स्टोल्टेनबर्ग ने यह भी कहा कि वह शीत युद्ध के दिनों की वापसी नहीं चाहते हैं। साथ ही उन्होंने रूस को पड़ोसी बताते हुए उसके साथ रिश्ते बेहतर करने पर जोर दिया।
दूसरी तरफ, रूस ने भी जैसे को तैसा की तर्ज पर अपने यहां से ब्रिटिश राजनयिकों को निकालने का फैसला किया। रूसी विदेश मंत्री सेर्गेई लावरोव ने स्क्रिपाल और उनकी बेटी पर हुए हमले में रूस की भूमिका होने से इनकार किया, बल्कि उनकी दलील है कि यह काम ऐसे तत्वों का हो सकता है जो इस साल रूस में होने फुटबॉल विश्व कप में बाधा पहुंचाने चाहते हैं। लेकिन रूस के पूर्व जासूसों और पुतिन आलोचकों की ऐसी पूरी लिस्ट है, जिन पर इस तरह के रासायनिक हमले हुए हैं। 2006 में केजीबी के पू्र्व जासूस एलेक्जेंडर लितविनेंको को लंदन में जहर दिया गया। आरोप लगते हैं कि यह हत्या खुद रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के कहने पर हुई थी। यूक्रेन के पश्चिम समर्थक पूर्व राष्ट्रपति विक्टर युशचेंकों पर चुनाव प्रचार के दौरान जहरीला पदार्थ फेंका गया, जिसके निशान उनके चेहरे और शरीर पर आज तक मौजूद है जबकि वह दर्जनों बार सर्जरी करा चुके हैं।
इसके अलावा रूसी मनी लॉन्ड्रिंग से जुड़ी छानबीन में मदद करने वाले एलेक्जेंडर पेरेपीलिछनी की अचानक मौत के बाद भी शक सबसे पहले रूस की तरफ ही गया। ऐसे में, स्क्रिपाल और उनकी बेटी पर हमले के पल्ला झाड़ने वाले लावरोव के बयान पर सहज विश्वास करना मुश्किल है। दूसरी तरफ, अमेरिका के राष्ट्रपति चुनावों में रूसी दखलंदाजी का मामला भी अब तक ठंडा नहीं पड़ा है। चुनावों के दौरान पुतिन के प्रति नरम रवैया रखने वाले अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के प्रशासन को भारी दबाव के बीच रूस के खिलाफ प्रतिबंध लगाने पड़े हैं। कुछ अमेरिकी अधिकारी कहते हैं कि ट्रंप को अब धीरे-धीरे रूस की असलियत पता चल रही है। व्हाइट हाउस की प्रवक्ता सारा सैंडर्स से पिछले दिनों जब एक प्रेस कांफ्रेंस में पूछा गया कि रूस अमेरिका का दोस्त है या फिर दुश्मन तो उनका जबाव था कि यह तो रूस को ही तय करना है। मॉस्को में बैठे रूसी अधिकारी भी इस बात को समझ रहे हैं कि ट्रंप और पुतिन की शुरुआती नजदीकियों का दौर खत्म हो चुका है और वे भी जबावी कदमों की तैयारी कर रहे हैं।
पिछले दिनों खबरें आईं कि रूस बाल्टिक सागर में कालिनिनग्राद में परमाणु क्षमता वाली इस्कांदेर मिसाइल तैनात कर रहा है। कालिनिनग्राद बाल्टिक सागर के पास रूसी इलाका है जिसकी सीमाएं पोलैंड और लिथुआनिया से मिलती हैं। वहां तैनात होने वाली मिसाइल की जद में पोलैंड, लिथुआनिया, लातविया और एस्टोनिया जैसे नाटो सदस्य होंगे। जाहिर है, ऐसी खबरें नाटो और खास कर यूरोप के लिए खतरे की घंटी है। इन हालात से निपटने का तरीका भी खुद यूरोप को निकालना होगा। नाटो और यूरोप के प्रति ट्रंप के डावांडोल रवैये से खिन्न यूरोप ने पेस्को नाम से एक सैन्य संगठन भी बनाया है। लेकिन यूरोप की प्राथमिकता सैन्य टकराव की बजाय बातचीत की मेज होगी, हालांकि इसके लिए हालात अभी साजगार नजर नहीं आते। नाटो देशों ने रूस पर हाल के सालों में कई तरह की पाबंदियां लगाई हैं और पूर्वी यूरोप में “बदली परिस्थितियों के मुताबिक” सैन्य तैनाती भी बढ़ा दी है।
बावजूद इसके नाटो महासचिव कहते हैं कि रूस को अलग थलग करना विकल्प नहीं है। उन्हें उम्मीद है कि कभी न कभी रूस को भी समझ आएगा कि फायदा टकराने में नहीं, बल्कि मिलकर चलने में है। लेकिन रूस को उस बिंदु तक लाने के लिए गहन कूटनीति वार्ताओं की जरूरत होगी। फिलहाल तो लगता है कि रूस टकराव को ही अपनी अहमियत और ताकत बढ़ाने का मंत्र समझ रहा है। नतीजे भी उसके सामने हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पुतिन पश्चिम के लिए लगातार मुश्किलें बढ़ा रहे हैं और घरेलू मोर्चे पर भी उनकी पकड़ लगातार मजबूत हो रही है। रूसी चुनाव का नतीजा पहले से ही तय होना इसकी एक बानगी है। ऐसे में, ब्रसेल्स में बैठे यूरोपीय संघ के अधिकारियों की नजर रूसी चुनाव के नतीजे पर नहीं, बल्कि उसके बाद उभरने वाले परिदृश्य पर है।