ओम थानवी 

पर्यावरण के मामले में हाल तक अमेरिका दुनिया में सबसे ज्यादा प्रदूषण फैलाने वाला देश था। अब चीन ने उसे पीछे छोड़ दिया है। अमेरिका दूसरे नंबर पर है, चीन अव्वल। मजा यह है कि चीन के औद्योगिक विकास में अमेरिका की बड़ी भूमिका है। अमेरिका का माल चीन में बनता है।
भारत के अलावा ब्राजील और दक्षिणी अफ्रीका के साथ मिलकर चीन ने 2005 में औद्योगिक देशों का ‘बेसिक’ समूह बनाने में भूमिका निभाई थी। समूह वहीं है, पर पर्यावरण की कूटनीति में अमेरिका ने चीन को तोड़ लिया है। अमेरिका जो जलवायु परिवर्तन संबंधी किसी करार में कभी शरीक नहीं था, अचानक चीन के साथ मिलकर उसने उत्सर्जन नियंत्रण के लक्ष्य तय कर लिए हैं। जाहिर है, मकसद यह है कि क्योतो करार की जगह नया करार इन दोनों मुल्कों की मरजी के मुताबिक बने। ऐसे में भारत की भूमिका क्या होगी?

पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर, जो लीमा में उच्चस्तरीय मंत्रणा में मशगूल हैं, का रुख साफ है कि भारत अब तक के रवैये को बदलने वाला नहीं है। पर वे जयराम रमेश के कोपेनहेगन और कानकुन (मेक्सिको) के वक्तव्यों पर अपनी खीज दिल्ली में सार्वजनिक कर आए हैं, जिसकी गूंज यहां आ पहुंची है। बांग्लादेश के एक पर्यावरणचेता पत्रकार ने ठीक ही कहा कि दलगत मतभेदों का इजहार बड़े फलक पर भारत की नेतृत्वकर्ता की छवि को आहत करेगा।
जहां तक मुझे याद है, जयराम रमेश ने बड़ा कूटनीतिक वक्तव्य दिया था। पर विपक्ष ने उस पर हल्ला ज्यादा किया। उत्सर्जन नियंत्रण के उपाय अगर भारत बढ़ाता है तो उसका हासिल सामने रखने में गुरेज कैसा। कोई आपकी नीयत पर शुबहा करे, उससे पहले आपने खुद पारदर्शिता का दावा -सच्चा हो चाहे कूटनीतिक – रख दिया। इसके बाद बड़ी शान से कानकुन में जा कहा कि तमाम देश राष्ट्र संघ को अपने ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन और उस पर काबू पाने के उपायों की रिपोर्ट दिया करें; भारत हर तीसरे वर्ष ऐसी रिपोर्ट देने को तैयार है। इससे महासम्मेलन की चर्चाओं में आया गतिरोध टूटा था।
इतना ही नहीं, जयराम रमेश ने कोपेनहेगन में मेजबान देश डेनमार्क की ओर से अचानक गुपचुप रूप से लाए गए चालाकी भरे ‘डेनिश समझौते’ के मसविदे की अपनी प्रेस वार्ता में सरेआम खिल्ली उड़ाई थी। जबकि सरदार मनमोहन सिंह वहां ढीले पड़ गए थे। उस मसविदे में कहा गया था कि क्योतो संधि के अनेक प्रावधानों पर नए सिरे से विचार और किसी कानूनी करार की जगह ‘राजनीतिक सहमति’ काफी समझी जाए। रमेश ने अपने मंत्रालय में भी पर्यावरण मंजूरियों पर नकेल कसी थी। अंतत: उन्हें हटा (या हटवा) दिया गया। कमजोर मंत्री जयंती नटराजन लाई गईं।

अमेरिका और चीन का समझौता भी फिलहाल कूटनीति से अधिक क्या है? क्या चीन सचमुच वैकल्पिक ऊर्जा की खपत 2030 तक 20 प्रतिशत तक ले आएगा? क्या अमेरिका 2025 तक कार्बन उत्सर्जन का स्तर घटाकर 2005 के स्तर पर ले आएगा? समझौते के दावे यही हैं, लेकिन भरोसे के नहीं हैं। लेकिन इस कूटनीति में भारत को सतर्क रहना होगा। भारत कभी विकासशील देशों की रहनुमाई करता था। अब अपनी जवाबदेहियां बढ़ा रहा है।

निस्संदेह मौजूदा भाजपा सरकार पर्यावरण मंजूरियों में कांग्रेस से कहीं ज्यादा उदार है। सरकार बनते ही अस्सी हजार करोड़ के रुके प्रस्तावों को मंजूरी दे दी गई थी। जबकि पर्यावरण संरक्षण अधिनियम और वन संरक्षण अधिनियम के तहत मंजूरी की अपनी प्रक्रिया है। पर्यावरण को ताक पर रखकर चुनिंदा उद्योगपतियों का भला मोदी सरकार को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संदेह के घेरे में रखता है। दो महीने पहले केंद्र ने प्रधानमंत्री मोदी के चुनावी दानवीर गौतम अडानी के महाराष्ट्र में अटके पड़े 1980 मेगावाट के बिजली कारखाने को मंजूरी दी थी, जो 370 एकड़ वन-भूमि को लीलते हुए कोयले से बिजली बनाएगा।

अडानी पर पर्यावरण की बरबादी के आरोप एक जांच में पहले ही सामने आ चुके हैं। फिर भी सुदूर आॅस्ट्रेलिया में कोयले से बिजली बनाने के अडानी समूह के एक अन्य विराट कारखाने के लिए प्रधानमंत्री की मौजूदगी में भारतीय सरकारी बैंक की अध्यक्षा ने 6000 करोड़ रुपए का कर्ज घोषित किया, जिसके लिए अनेक बैंक इनकार कर चुके थे। अडानी पांच वर्षों के भीतर महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश और राजस्थान सहित अपने कारखानों में कोयले से बीस हजार मेगावाट बिजली के उत्पादन का लक्ष्य तय करे बैठे हैं।

ऐसे में मोदी सरकार की साख जलवायु संरक्षण के मामले में अंतरराष्ट्रीय मंचों पर कमजोर पड़ जाती है, भले ही उन्होंने पर्यावरण और वन मंत्रालय के नाम में जलवायु परिवर्तन का नाम भी जोड़ दिया हो। सच्चाई यह है कि दुनिया अमेरिका और चीन की दादागीरी के बीच भारत की ओर देखती है और भारत अपनी जमीन खुद पोली कर रहा है। वरना यह अकारण तो नहीं कि ब्राजील, जो औद्योगिक प्रदूषण में सयाना नहीं, एकाएक राष्ट्र संघ सम्मलेन की चर्चाओं में भारत से ज्यादा सक्रिय और असरदार नजर आने लगा है।

पर्यावरण और जलवायु में बिगाड़ रोकने के उपायों में बढ़ोतरी और प्राकृतिक संसाधनों का विनाश करने वाले मुनाफाखोरों से दूरी ही भारत को तीसरी दुनिया के देशों का नेतृत्व फिर दे सकती है। रियो में मनमोहन सिंह ने कहा था कि विकास और पर्यावरण दोनों चाहिए। इस दलील से कॉरपोरेट को कितना फायदा पहुंचाया गया, यह कोयला कांड से जाहिर हो चुका है। मोदी यह काम ज्यादा तेजी से कर रहे हैं। कहीं पेरिस में उन्हें दुनिया के सामने नीचा न देखना पड़े।