‘निष्प्रभावी’ सुरक्षा परिषद में तत्काल सुधार के लिए जोरदार तरीके से अपनी बात रखते हुए भारत ने कहा है कि संयुक्त राष्ट्र के इस निकाय के ठीक से काम नहीं करने से छह करोड़ से अधिक लोग प्रभावित हुए हैं। इसके फलस्वरूप युद्धों व संघर्ष के रूप में भारी मानवीय व आर्थिक कीमत चुकानी पड़ी है। संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि अशोक मुखर्जी ने शुक्रवार को यहां कहा, ‘हमारा कहना है कि निष्प्रभावी सुरक्षा परिषद का तात्पर्य युद्धों व संघर्षों के रूप में भारी मानवीय, आर्थिक और पर्यावरण कीमत चुकाना है जिसे अंतरराष्ट्रीय समुदाय सही नहीं ठहरा सकता।’
उन्होंने ‘सुरक्षा परिषद में समान प्रतिनिधित्व का सवाल एवं सदस्यता में वृद्धि’ विषय पर महासभा की आम बहस के दौरान कहा, ‘आंकड़े अपने आप ही बोलते हैं खासकर छह करोड़ से अधिक लोगों के सुरक्षा परिषद के ठीक से काम नहीं करने से प्रभावित होने का सबसे बड़ा आंकड़ा है।’ मुखर्जी ने इस बात पर बल दिया कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के सुधार पर अंतरराष्ट्रीय समुदाय के काम को किसी प्रकार के अकादमिक प्रयास के रूप में ‘अलग तौर पर’ नहीं देखा जा सकता है जिसका दुनिया से कोई संबंध न हो।
उन्होंने कहा, ‘यह बात कि हमारे नेताओं ने पृथ्वी से एक पीढ़ी के अंदर गरीबी हटाने के लिए सर्वसम्मति से अतिमहत्त्वाकांक्षी एजंडा 2030 अंगीकार किया है, एक संदर्भ और ढांचा प्रदान करती है।’ उन्होंने कहा, ‘सुरक्षा परिषद के सुधार में हम जितनी ही देरी करेंगे, हम एजंडा 2030 के सफल क्रियान्वयन के लिए विशेषकर विकासशील देशों पर उतना ही अधिक दबाव डालेंगे।’ संयुक्त महासभा (संरा महासभा) के अध्यक्ष मोगेंस लेककेटोफ ने इस बहस का आयोजन किया था जिसके कुछ दिन बाद नए अध्यक्ष लक्जमबर्ग की राजदूत सिल्वी लुकास की अध्यक्षता में ‘अंतर सरकारी वार्ता (आइजीएन)’ के अगले दौर की शुरुआत होगी।
संरा महासभा द्वारा पिछले महीने आम सहमति से वार्ता का मूल पाठ अंगीकार किए जाने के बाद आइजीएन वार्ता का यह पहला दौर होगा। यह मूलपाठ सुधार प्रक्रिया पर आगे की बातचीत का आधार होगा। सुधार व विस्तार के बाद जो नई सुरक्षा परिषद अस्तित्व में आएगी उसके स्थायी सदस्य के रूप में भारत की उम्मीदवारी का स्थायी सदस्य ब्रिटेन एवं फ्रांस ने भी समर्थन किया।
बहस के दौरान पाकिस्तान ने नई स्थायी सीटें सृजित करने का विरोध किया और कहा कि संयुक्त राष्ट्र सदस्यता में वृद्धि के मद्देनजर इस निकाय में निर्वाचित सदस्यों की श्रेणियों में विस्तार की जरूरत है क्योंकि परिषद में पिछला विस्तार पांच दशक पहले हुआ था। संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान की स्थायी प्रतिनिधि मलीहा लोधी ने कहा, ‘कुछ देश अपने लिए विशेषाधिकारप्राप्त दर्जे के आत्म घोषित अधिकार को बढ़ाने में जुटे हैं। और दो दशक पहले जब से यह प्रक्रिया शुरू हुई तब से उन्होंने यह अड़ियल रुख अपना रखा है।’
उन्होंने कहा कि इसी अड़ियल और अंध इच्छा की वजह से हम ज्यादा लोकतांत्रिक, जवाबदेह, पारदर्शी और ज्यादा प्रभावी सुरक्षा परिषद के अपने लक्ष्य को पाने में विफल रहे हैं। उन्होंने कहा कि इस दलील के पक्ष में कोई सबूत नहीं है कि अधिक स्थायी सीटों से परिषद की वैधानिकता बढ़ेगी और सदस्य राष्ट्रों को इस पर विचार करना चाहिए कि क्या स्थायी सदस्यों की सीटें बढ़ना तथाकथित वर्तमान राजनीतिक हकीकतों का हल है। मुखर्जी ने अगले महीने से शुरू हो रही आइजीएन की बैठकों के निर्धारित कार्यक्रम की घोषणा की मांग की और कहा कि विषय की तात्कालिकता को ध्यान में रखकर सप्ताह में कम से कम एक बार इस विषय पर बैठक हो।
भारत ने संयुक्त राष्ट्र से कहा है कि वह नस्ल के आधार पर बहिष्कार और अन्य तमाम तरह की असहिष्णुता के सभी सिद्धांतों को खारिज करता है और वह लोगों व धर्मों के बीच समझ विकसित करने के प्रयास का समर्थन करता है।
संयुक्त राष्ट्र में भारतीय मिशन के प्रथम सचिव मयंक जोशी ने महासभा की तीसरी समिति में मानवाधिकार पर आयोजित एक सत्र में कहा, ‘बहुधार्मिक, बहुजातीय, बहुसांस्कृतिक देश होने के नाते हमें हमारी ‘विविधता में एकता’ पर बहुत नाज है और हम राष्ट्रों, लोगों, धर्मों व संस्कृतियों के बीच समझ बढ़ाने के तमाम प्रयासों का समर्थन करते हैं।’
उन्होंने कहा कि भारत असहिष्णुता, नकारात्मक विचारधाराओं, दोषारोपण और धर्म या मान्यता के आधार पर लोगों के खिलाफ भेदभाव व हिंसा से निपटने को लेकर महासचिव बान की मून की रिपोर्ट को लेकर गंभीर है। उन्होंने कहा, ‘नस्लवाद, नस्लीय भेदभाव, जीनोफोबिया (विदेशियों या अनजान लोगों से भय की प्रवृत्ति) और असहिष्णुता के संबंधित सिद्धांत को हम दृढ़ता से खारिज करते हैं।’ दादरी कांड, गोमांस और अन्य घटनाओं के बाद ‘बढ़ती कथित असहिष्णुता’ के खिलाफ भारतीय कलाकारों, लेखकों और वैज्ञानिकों के विरोध जताने की पृष्ठभूमि में जोशी की यह टिप्पणी सामने आई है।
जोशी ने इस बात पर बल दिया कि मानवाधिकार के मुद्दे को अलग थलग करके नहीं रखा जा सकता और न ही इसे राजनीतिक औजार के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है। उन्होंने चयनात्मक नामकरण और देशों को शर्मसार करने के खिलाफ आगाह करते हुए लोगों और देशों के बीच बातचीत को बढ़ावा देने की जरूरत पर जोर दिया।
उन्होंने कहा, ‘मानवाधिकार को निश्चित तौर पर राजनीतिक औजार के रूप में नहीं इस्तेमाल किया जाना चाहिए। चयनित नामकरण, देश को शर्मसार करना और अनुचित तरीके से निगरानी करना ना केवल निष्पक्षता, तटस्थता और असहिष्णुता के खिलाफ है बल्कि इससे संबंधित देश से सहयोग भी प्रभावित होता है।’
इस बात का जिक्र करते हुए कि आतंकवाद लगातार गंभीर चुनौती बना हुआ है। उन्होंने कहा कि आतंकवाद और उसके स्वरूप की निंदा करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है और उन्हें बिल्कुल बर्दाश्त नहीं किया जा सकता।
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