Netflix Osama Bin Laden Series: अमेरिकन मैनहंट: ओसामा बिन लादेन नामक एक नई नेटफ्लिक्स डॉक्यूमेंट्री सीरीज याद दिलाती है कि कैसे अमेरिकी सरकार ने 9/11 के हमलों के बाद दुनिया के “मोस्ट वांटेड” आतंकवादी को पकड़ लिया था। तीन भागों वाली यह श्रृंखला 2001 के हमलों और 2011 में पाकिस्तान के एबटाबाद में अमेरिकी सेना के हाथों लादेन की हत्या के बीच के दशक को कवर करती है।

इसमें सीआईए अधिकारियों और अमेरिकी राष्ट्रपतियों जॉर्ज डब्ल्यू बुश और बराक ओबामा के प्रशासन के प्रमुख व्यक्तियों के बारे में बताया गया है। इसमें इस बात का भी संक्षेप में उल्लेख किया गया है कि ओबामा ने 2 मई, 2011 की रात को लादेन के संदिग्ध आवास पर छापा मारने के अपने निर्णय के बारे में पाकिस्तान सरकार को सचेत क्यों नहीं किया।

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लादेन तक कैसे पहुंचा अमेरिका

अमेरिका ने ट्विन टावर्स और पेंटागन पर 11 सितंबर के हमलों से पहले ही लादेन को खोजने का अभियान शुरू कर दिया था। अमेरिकी धरती पर हुए इस सबसे बड़े आतंकी हमले में करीब 3,000 अमेरिकी मारे गए थे। सऊदी अरब से ताल्लुक रखने वाले बिन लादेन को अमेरिकी खुफिया एजेंसियों द्वारा मुजाहिदीन को फंड देने के अपने संबंधों के कारण जाना जाता था। 1996 में ही सीआईए के आतंकवाद निरोधी केंद्र (सीटीसी) ने मध्य पूर्व और अफ्रीका में उसकी गतिविधियों का विश्लेषण करने के लिए एक विशेष इकाई की स्थापना की थी।

1990 के दशक की ही हुई शुरुआत

1990 के दशक के अंत में उसने अपना आधार अफ़गानिस्तान में स्थानांतरित कर लिया और वैश्विक जिहाद छेड़ने के इरादे से अल-कायदा का गठन किया। अमेरिकी सरकार ने पहले सोवियत उपस्थिति (1979-89) को पीछे धकेलने के लिए देश में मुजाहिदीनों का समर्थन किया था। हालाकि, बिन लादेन का मानना ​​था कि संयुक्त राज्य अमेरिका ही असली दुश्मन है, जिसे मध्य पूर्व में उसके हस्तक्षेप और इस्लामी मूल्यों के साथ उसकी कथित असंगति के लिए निशाना बनाया जाना चाहिए।

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2001 के बाद से अमेरिका ही तलाशी अभियान तेज हो गया था, क्योंकि अमेरिकी अधिकारियों का मानना ​​था कि अफगानिस्तान में तालिबान सरकार अल-कायदा और बिन लादेन को पनाह दे रही थी और अंततः उसे सत्ता से बेदखल कर दिया। हालांकि, बिन लादेन फरार रहा। आखिरकार, 2000 के दशक के अंत में, कूरियर मूवमेंट और सैटेलाइट इमेजरी सहित कई सुरागों के माध्यम से पाकिस्तान में उसकी मौजूदगी का पता लगाया गया।

एबटाबाद में एक तीन फ्लोर की बिल्डिंग पर थी यूएस की नजर

इस सूचना के आधार पर अमेरिकी खुफिया अधिकारी एबटाबाद में एक तीन मंजिला सफेद हवेली तक पहुंचे, जिसमें दो परिवार आते-जाते थे लेकिन ऐसा लगता था कि वहां एक तीसरा परिवार भी रहता था। इसकी ऊंची दीवारें और एक ढकी हुई बालकनी थी, जो पहाड़ों के सुंदर दृश्यों के लिए मशहूर शहर में अलग से दिखाई देती थी।

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ओबामा ने लिया था फैसला

अमेरिकी एजेंसियों के पास अभी भी पुख्ता सबूत नहीं थे। इस तरह अमेरिकी सील टीम 6 का अफगानिस्तान के रास्ते एबटाबाद पहुंचने और पाकिस्तान सरकार को सूचित न करने का फैसला और भी जटिल हो गया। ओबामा के युद्ध मंत्रिमंडल ने बिना ठोस सबूत के इस प्रस्ताव पर मिली-जुली राय दी थी। तत्कालीन विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने इसका समर्थन किया, जबकि उपराष्ट्रपति जो बाइडेन ने इसका विरोध किया। अंततः ओबामा ने इसके पक्ष में फैसला किया।

पाकिस्तान को न बताने का लिया था फैसला

मिशन के दौरान ओबामा के मुख्य आतंकरोधी सलाहकार जॉन ब्रेनन ने कहा कि राष्ट्रपति ओबामा इस बात पर स्पष्ट थे कि हम पाकिस्तानियों को सूचित नहीं करेंगे, क्योंकि पाकिस्तानी खुफिया एजेंसियां ​​कई वर्षों से दोनों तरफ काम कर रही हैं, और उनके अल-कायदा सहित, उस क्षेत्र के कई उग्रवादी और आतंकवादी समूहों के साथ संबंध थे।

अपनी किताब ए प्रॉमिस्ड लैंड (2020) में ओबामा ने इस दृष्टिकोण को विस्तार से बताया है। 2008 के राष्ट्रपति चुनाव अभियान के दौरान भी उन्होंने एक सार्वजनिक बहस में कहा था कि अगर मैं पाकिस्तानी क्षेत्र में ओसामा बिन लादेन को देखूं और पाकिस्तानी सरकार उसे पकड़ने या मारने में अनिच्छुक या असमर्थ हो, तो मैं गोली चलाऊंगा।

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ओबामा को नहीं था पाकिस्तान पर भरोसा

ओबामा इस बात पर स्पष्ट थे कि बिन लादेन मिशन के लिए कहमने जो भी विकल्प चुना, उसमें पाकिस्तानियों को शामिल नहीं किया जा सकता था। पाकिस्तान की सरकार ने आतंकवाद विरोधी कई अभियानों में हमारा साथ दिया। यह एक खुला रहस्य था कि देश की सेना और विशेष रूप से इसकी खुफिया सेवाओं के अंदर कुछ तत्व तालिबान और शायद अल-कायदा से भी संबंध बनाए हुए थे।

कई टिप्पणीकारों ने इस संभावना पर सवाल उठाया है कि पाकिस्तान सरकार को इस बारे में पूरी तरह से जानकारी नहीं थी। 2014 में द न्यूयॉर्क टाइम्स की एक रिपोर्ट में दावा किया गया था कि समय के साथ अमेरिकी अधिकारी पत्रकारों के सामने पाकिस्तान सरकार की किसी भी तरह की गलती से इनकार करते रहे। इसमें कहा गया था कि ऐसा लगता था कि दोनों सरकारों के बीच संबंधों को होने वाले नुकसान को रोकने के लिए यह फैसला लिया गया था।