भारत में इस साल पहाड़ी राज्यों ने काफी बरसात देखी है। समान से ज्यादा मानसून ने कई इलाकों में तबाही मचाई है। बादल फटने से लेकर फ्लैश फ्ल्ड तक, भूस्खलन से लेकर बाढ़ तक, मौसम की मार ने ना सिर्फ इंफ्रास्ट्रक्चर को भारी नुकसान पहुंचाया है, कई लोगों की जान भी चली गई है। लेकिन भारत के पहाड़ी राज्यों के लिए ये एक ऐसा ट्रेंड है जो अब साल दर साल ऐसे ही रिपीट हो रहा है। बारिश होती है, बादल फटते हैं, लोग फंसते हैं और कई जिंदगियां हमेशा के लिए उजड़ जाती हैं।

इस साल पहाड़ी राज्यों को बारिश से कितना नुकसान?

हिमाचल प्रदेश में इस साल जून 20 से लेकर अगस्त तक भारी बरसात की वजह से 310 लोगों की मौत हुई है, राज्य को 2450 करोड़ का भारी नुकसान भी उठाना पड़ा है। इसी तरह उत्तराखंड में भी मौसम की मार ने कोहराम मचाया है। सचिव, आपदा प्रबंधन एवं पुनर्वास विनोद कुमार सुमन के मुताबिक इस साल उत्तराखंड में भारी बारिश और लैंडस्लाइड की वजह से सड़कों को 1,163.84 करोड़ का नुकसान हुआ है। इसी तरह एक अप्रैल से 31 अगस्त के बीच उत्तराखंड में 79 लोगों की मौत हुई है, 115 जख्मी हुए हैं और 90 मिसिंग भी बताए जा रहे हैं। उत्तराखंड सरकार ने भारी नुकसान को देखते हुए केंद्र से 5,702.15 करोड़ की मांग की है।

पहाड़ी राज्यों में कितनी बरसात हुई?

जम्मू-कश्मीर को भी इस साल मानसून का भारी दंश झेलना पड़ा है। 14 अगस्त को किश्तवाड़ में बादल फटने की वजह से 68 लोगों की मौत हुई, 300 से अधिक घायल हुए और 38 लोग तो आज भी लापता बताए जा रहे हैं। इसी साल जम्मू के रियासी और डोडा जिले में भी मौसम की मार ने काफी नुकसान पहुंचाया है। नीचे दी गई टेबल से इसे समझने की कोशिश करते हैं-

राज्यवर्षा 2024 (मिमी)सामान्य वर्षा से अनुपात 2024वर्षा 2025 (मिमी)सामान्य वर्षा से अनुपात 2025
जम्मू-कश्मीर870.9-29%921.18+37.08%
हिमाचल प्रदेश600.9-18%1,010+46%
उत्तराखंड1,162.70+4%1,404.60+26%
सोर्स: Metrological Department

भूटान में भी पहाड़, लेकिन वो सुरक्षित

अब इन आंकड़ों से पता चलता है कि तीनों ही राज्यों में इस साल सामान्य से काफी ज्यादा बारिश हुई है, इसी वजह से ज्यादा नुकसान भी देखने को मिला। अब इन तीनों राज्यों के लिए तो ये हर साल की कहानी है, लेकिन एक ऐसा देश भी है जो पूरी तरह पहाड़ों में ही बसा हुआ है, जहां मौसम की मार भी देखने को मिलती है, लेकिन फिर भी वो खुद को ज्यादा बेहतर तरीके से मैनेज करता है, वो चुनौतियों को खुद पर हावी होने नहीं देता, समाधान पर उसका फोकस रहता है। यहां बात हो रही है भूटान की जिसने पिछले कुछ सालों में ऐसे सख्त नियम बनाए हैं कि जिस वजह से उसका पर्यावरण बचा हुआ है, पर्यटक सीमित हैं और इंफ्रास्ट्रक्चर भी सुरक्षित रहता है।

भूटान की जनसंख्या भारत के पहाड़ी राज्यों से कम

यहां पर समझने वाली बात यह है कि भूटान की जनसंख्या कम है, इस पहाड़ी मुल्क में पॉपुलेशन कंट्रोल काफी बेहतरीन रहा है। वहीं जब हम भूटान की जनसंख्या की तुलना सिर्फ भारत के तीन राज्यों से करते हैं- यानी कि उत्तराखंड, हिमाचल और जम्मू-कश्मीर, पता चलता है कि अंतर काफी ज्यादा है। भारत के पहाड़ी राज्य जनसंख्या विस्फोट से जूझ रहे हैं, वहां शहरीकरण काफी ज्यादा है, वहीं भूटान इस मामले में बेहतर स्थिति में दिखाई देता है। नीचे दी गई टेबल से इसे आसानी से समझा जा सकता है-

क्षेत्रअनुमानित जनसंख्या
हिमाचल प्रदेश75.18 लाख
उत्तराखंड1.23 करोड़
जम्मू और कश्मीर1.58 करोड़
भूटान0.79 करोड़
सोर्स:2011 जनगणना, Statistics Times और Worldometers

अब ऊपर दी गई टेबल से पता चलता है कि उत्तराखंड की जनसंख्या भूटान से लगभग 1.5 गुना अधिक है। वही जम्मू और कश्मीर की जनसंख्या भूटान से लगभग 1.6 गुना ज्यादा बैठती है। ऐसे में बढ़ती जनसंख्या एक बड़ा कारण है कि आखिर क्यों भारत के इन तीन पहाड़ी राज्यों में भूटान की तुलना में बारिश के मौसम में ज्यादा तबाही देखने को मिलती है।

हिमाचल-उत्तराखंड-कश्मीर, लगातार पेड़ों की कटाई

अब भारत के पहाड़ी राज्यों में ज्यादा तबाही का एक कारण पेड़ की ज्यादा होती कटाई भी है। जितने ज्यादा पेड़ काटे जाते हैं, पहाड़ उतने ही कमजोर होते चले जाते हैं। कभी निर्माण के नाम पर, कभी विकास के नाम पर उत्तराखंड, हिमाचल और जम्मू-कश्मीर में पेड़ काटे जाते हैं। लेकिन इस मामले में भी भूटान की नीति भारत की तुलना में ज्यादा मजबूत और असरदार है। सबसे पहले जानते हैं कि भारत के इन तीनों ही पहाड़ी राज्यों में कितने पेड़ काटे जा रहे हैं।

ग्लोबल फॉरेस्ट वॉच के मुताबिक हिमाचल प्रदेश के पास 2020 तक राज्य के पास 1.59 Mha के करीब नेचुरल फॉरेस्ट था, इसे कुल लैंड एरिया का 29 फीसदी कहा जा सकता है। लेकिन 2024 आते-आते हिमाचल प्रदेश ने अपना 572 ha नेचुरल फॉरेस्ट गंवा दिया, इसे 181 किलो टन CO₂ उत्सर्जन के बराबर माना जा सकता है।

उत्तराखंड की बात करें तो 2020 तक उसके पास 1.66 Mha के करीब नेचुरल फॉरेस्ट था, इसे कुल क्षेत्र का 32 फीसदी कहा जाएगा। लेकिन 2024 आते-आते 998 ha के करीब वन क्षेत्र को उत्तराखंड ने गंवा दिया, इसे 412 किलो टन CO₂ उत्सर्जन के बराबर माना जाएगा। जम्मू-कश्मीर को लेकर एक दूसरी रिपोर्ट बताती है कि 2020 तक यहां 0.15 लाख हेक्टेयर वन क्षेत्र था, लेकिन 2023 तक 112 हेक्टेयर जंगल नष्ट हो गया। इसे 68.8 किलोटन कार्बन डाइऑक्साइड निकलने के समान माना जा सकता है।

भूटान की पर्यावरण नीति बहुत सॉलिड

अब भूटान में तो एक कठोर पर्यावरण नीति चलती है, दुनिया का यह पहला कॉर्बन नेगेटिव देश भी है। यहां तो कानून चलता है कि जिसकी वजह से हर कीमत पर 60 फीसदी क्षेत्र में हमेशा जंगल ही रहेगा। एक रिपोर्ट के मुताबिक वर्तमान में भूटान के पास 72 फीसदी क्षेत्र में जंगल है और यही जंगल हर साल लगभग 60 लाख टन CO₂ सोख

भूटान के कानून के मुताबिक, देश की कम से कम 60% जमीन हमेशा जंगल बनी रहेगी। अभी यह हिस्सा 72% है, और यही जंगल हर साल लगभग 60 लाख टन CO₂ सोखते हैं। इसके अलावा ज्यादा से ज्यादा पेड़ लगाने पर भी भूटान का फोकस रहता है। इस समय भूटान में Million Fruit Tree Plantation Project, De-Suung National Service: Million Fruit Trees Plantation, Green Bhutan प्रोजेक्ट सक्रिय रूप से चल रहे हैं। इन तीन योजनाओं की वजह से अकेले भूटान में 2,525,000 पेड़ लगाए जा चुके हैं। इसके अलावा Bhutan Ecological Society की तरफ से भी इस अभियान को गंभीरता से लिया गया है और नियमित रूप से पेड़ लगाए जा रहे हैं।

भूटान का विकास मॉडल उसे कैसे बचा रहा?

समझने वाली बात यह भी है कि भूटान का विकास मॉडल भी पर्यावरण को पूरी तवज्जो देता है, भारत में तो विकास का मतलब ही बड़े निर्माण, अच्छी सड़कें माना गया है, लेकिन शहरीकरण के इस युग में भूटान अब तक इस ट्रैप में नहीं फंसा है। भूटान का विकास मॉडल “ग्रॉस नेशनल हैप्पीनेस” (GNH) पर आधारित है। ऐसे में यहां पर सिर्फ आर्थिक वृद्धि पर जोर नहीं दिया जाता है, इसके अलावा सामाजिक, सांस्कृतिक और पर्यावरणीय कल्याण को भी महत्व मिलता है।

भूटान में पर्यटकों की सीमित संख्या क्यों?

भूटान की एक खास बात यह भी है कि यहां पर पर्यटकों को सीमित रखा जाता है, भारत में तो गर्मी की छुट्टियां आते ही लोग हिल स्टेशन की ओर भागते हैं, लंबे ट्रैफिक जाम तक देखने को मिल जाते हैं, लेकिन भूटान के केस में ऐसा नहीं है। भूटान तो अपने हर पर्यटक से रोज की एक Sustainable Development Fee चार्ज करता है। भारत के लिए यह फीस 1200 रुपये होती है, वहीं दूसरे मुल्कों के पर्यटकों के लिए यह 8,300 रखी गई है। अब इस एक योजना से दो चीजें हो रही हैं- पहली इस फीस की वजह से पर्यटक सीमित संख्या में ही भूटान पहुंचते हैं। दूसरी बात यह है कि इस फीस के कारण भूटान को पर्यटकों से अच्छा राजस्व भी मिल जाता है। इसे भूटान की High Value, Low Volume पर्यटन नीति के रूप में जाना जाता है।

अब इन्हीं कारणों से कहा जा सकता है कि पहाड़ों में तो भूटान भी बसा है, लेकिन अपनी नीति, अपने विजन और अपनी सख्ती की वजह से वहां पर मौसम की मार के बाद भी हिमाचल, उत्तराखंड या फिर जम्मू-कश्मीर जैसी तबाही देखने को नहीं मिलती है।

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