शास्त्री कोसलेन्द्रदास

योग भारतीय संस्कृति की संसार को अनुपम देन है। योग का अर्थ है-जुड़ना। भीतर की शक्ति से जुड़ना। मन और बुद्धि को चिन्मयी-सत्ता से जोड़ना। योग ऋषियों से प्रवर्तित अनादि परंपरा है, जिसका इतिहास किसी से पूछने की जरूरत नहीं है। यह सनातन है, ठीक उसी तरह जैसे सनातन धर्म है। योग सिर्फ शारीरिक या मानसिक लाभ के लिए शरीर को हिलाने-ढुलाने की प्रक्रिया नहीं है। यह स्वयं को जागृत करने का मार्ग है। योग स्व-शासन की वैज्ञानिक कला है। यह आसन और प्राणायाम तक ही सीमित नहीं है, बल्कि योग उन पद्धतियों की शिक्षा देता है, जिनका अभ्यास मनुष्य के व्यक्तित्व को सुंदरता प्रदान करता है और उसे उत्कृष्ट बनाता है।

पतंजलि ने दिया योग दर्शन:

योग अपरिपक्व और अज्ञानी मस्तिष्क की उपज नहीं है। ऋषियों ने इसका पहले अपने जीवन में प्रयोग किया, फिर विश्व कल्याण की व्यापक भावना से लोगों के लिए सुलभ बनाया। यह महर्षि पतंजलि के चिंतन से निकला सर्वोपरि विज्ञान है, जिन्होंने चार भागों में योग शास्त्र लिखकर इसे सूत्रात्मक रूप से प्रकट किया। दर्शन शास्त्र के इतिहासकार पतंजलि के ईसा से दो-तीन शताब्दियों पूर्व होने का दावा करते हैं।

अनेक विद्वानों ने योग शास्त्र पर अपनी कलम चलाई है। पतंजलि के योगसूत्र पर व्यास मुनि ने व्यास भाष्य लिखा। हठप्रदीपिका और घेरंड संहिता योग दर्शन के महत्वपूर्ण ग्रंथ हैं। योग परंपरा के विद्वान बताते हैं कि योग दर्शन का उपदेश सृष्टि के आदि में भगवान ब्रह्मा ने सूर्य को किया था। सूर्य से देवर्षि नारद और नारद से यह मनु के पास आया। मनु से योग की ज्ञानधारा पृथ्वी पर फैली। दूसरे विद्वानों का मानना है कि विश्व साहित्य में ऋग्वेद सबसे पुराना ग्रंथ है, जिसमें योग का संकेत है। अत: योग भी उतना ही पुराना है, जितना वैदिक साहित्य। जॉन मार्शल की पुस्तक मोहेन्जोदड़ो से पता चलता है कि सिन्धु घाटी की सभ्यता के समय के एक चित्र में एक योगी के चतुर्दिक हाथी, व्याघ्र, गैंडा व भैंसा हैं। साफ है कि योग का प्रसार पुराना है।

प्राणवायु है योग:

ऐसा नहीं है कि योग सिर्फ भारत या वैदिक सनातन लोगों के लिए ही आवश्यक है, बल्कि यह ऐसा चिंतन है, जो सभी के लिए उपयोगी है। रामानंद संप्रदाय के प्रधान स्वामी रामनरेशाचार्य लिखते हैं कि संसार में जितनी कठिनाइयां हैं, उनके मूल में मन की चंचलता है। चित्त चंचल है।
योग से चंचल चित्त के भटकाव का निरोध संभव है। जब योग से चित्त-वृत्तियां निरुद्ध हो जाती हैं तो अनेक समस्याएं समाप्त हो जाती हैं। संपूर्ण जीवन जीने का आनंद मिलने लगता है। मन सारे संकल्प-विकल्पों का केंद्र है। सारी इच्छाओं की जड़ मन है। जब ये इच्छाएं पूरी नहीं होती तो अवसाद होता है। मन के भटकाव को रोकने के लिए पतंजलि ने आठ साधन सुझाए हैं- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। इन्हें अष्टांग योग कहते हैं।

यम और नियम से योग:

योग समाधि है, सिर्फ आसन नहीं। योग मात्र व्यायाम नहीं, बल्कि स्व की स्वतंत्रता को जानने का माध्यम है। मात्र आसन कर लेने से चित्त-वृत्तियां रुक नहीं सकतीं। आसन से पहले यम और नियम को अपनाना होगा। आज जो योग का प्रचार कर रहे हैं, वे यह भूल करते हैं कि लोगों का यम-नियम से परिचय नहीं करवा रहे। वे उन्हें सीधे आसन करवा रहे हैं। यह योग-जिज्ञासुओं के साथ बड़ा धोखा है। योग शिक्षा के साथ बड़ी विडंबना है। समाज के साथ घातक प्रयोग है। योग का उद्देश्य यदि घुटनों का दर्द कम करना ही है तो फिर उसे योग समझ लेना भूल है। अत: जरूरी है कि योग के वास्तविक स्वरूप की स्थापना समाज में हो, विकृत स्वरूप की नहीं।

योग से टूटता है भ्रम:

योग दर्शन के पांच भाग हैं- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य। योग साधना इन पांचों के साथ सफल होती है। यदि इनमें कोई एक भी छूटता है तो योग के आसनों की संपूर्ण सिद्धि प्राप्त होने में कठिनाई होती है। अत: इन पांचों को अपने जीवन में उतारने से योग वरदायी होगा। जिस व्यक्ति को अपने जीवन को संपूर्ण रीति से जीना है, उसे पतंजलि के योग का मार्ग अपनाना होगा। यम से लेकर समाधि पर्यंत योग क्रिया का संपादन करना होगा। प्रत्येक व्यक्ति चाहता है कि वह अपने चित्त को अधिक से अधिक फैलाए परंतु वास्तव में यह चित्त का नहीं, बल्कि अज्ञानता का विस्तार है। चित्त जितना बढ़ेगा, संसार में उतनी ही अशांति बढ़ेगी। ऐसे में चित्त को एकाग्र करके संसार के कल्याण में लगाने के लिए महर्षि पतंजलि की शरण में जाना होगा। योग से सारे भ्रम टूटेंगे और संसार में शांति स्थापित होगी।