सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने कहा है कि डिफॉल्ट बेल (Default Bail) का अधिकार संविधान के आर्टिकल 21 के तहत मूलभूत अधिकारों के दायरे में आता है और जांच एजेंसियां इससे खिलवाड़ नहीं कर सकती हैं। ‘रितु छाबड़िया बनाम यूनियन ऑफ इंडिया’ केस की सुनवाई करते हुए जस्टिस कृष्णा मुरारी और जस्टिस सी.टी. रवि कुमार की बेंच ने कहा कि जांच एजेंसियां यह तर्क देकर कि ‘अभी छानबीन जारी है’ या ‘आधी-अधूरी’ चार्जशीट फाइल कर आरोपी के डिफॉल्ट बेल के अधिकार के साथ खिलवाड़ नहीं कर सकती हैं।
क्या है पूरा मामला?
दरअसल, रियल स्टेट डेवलपर संजय छाबड़िया की पत्नी रितु छाबड़िया ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी। उन्होंने आरोप लगाया कि सीबीआई, बार-बार सप्लीमेंट्री चार्जशीट का हवाला देते हुए उनके पति को कानूनन 60 दिन की अवधि से ज्यादा रिमांड पर रखने की तैयारी में है। याचिकाकर्ता के वकील ने कहा कि इस मामले में अभी छानबीन चल रही है और आरोपी का नाम शिकायत में है भी नहीं। दलील सुनने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने आरोपी को बिना शर्त जमानत दे दी।
क्या है डिफॉल्ट बेल?
सीआरपीसी के सेक्शन 167 के तहत किसी मामले में आरोपी को चार्जशीट न फाइल होने पर डिफॉल्ट बेल का अधिकार है। सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट आदर्श कुमार तिवारी Jansatta.com से बताते हैं कि जब कोई मामला दर्ज होता है तो जांच एजेंसिया, चाहे वो पुलिस हो या सीबीआई, सीआरपीसी के सेक्शन 173 के तहत जांच करती हैं। सेक्शन 57 के तहत, अरेस्ट किए हुए व्यक्ति को 24 घंटे से ज़्यादा पुलिस कस्टडी में नहीं रखा जा सकता है। और यदि उस 24 घंटे में इन्वेस्टिगेशन कम्पलीट नहीं होती है तो सेक्शन 167 के तहत लोकल मजिस्ट्रेट के पास उस अरेस्ट किए हुए व्यक्ति को प्रोड्यूस करना होता है।
फिर मजिस्ट्रेट को यदि लगता है कि अरेस्ट प्राइमा फ़ेसी जस्टीफ़ाइड है तो 15 दिन से कम के समय के लिये ज्यूडिशियल कस्टडी में भेज दिया जाता है या यदि पुलिस, आरोपी की छानबीन के लिए कस्टडी मांगती है, तो पुलिस कस्टडी में भेज दिया जाता है। एडवोकेट आदर्श कहते हैं, यदि कोई ऐसा मामला है, जिसमें आरोपी को 10 साल की सजा मिल सकती है, तो इस केस में मजिस्ट्रेट 90 दिन से ज्यादा की रिमांड नहीं दे सकते। इसी तरह यदि किसी केस में आरोपी को 10 साल से कम की सजा हो सकती है, तो 60 दिन से ज्यादा की रिमांड नहीं दी जा सकती है।
ये 60 या 90 दिन पूरा होते ही, आरोपी को “डिफ़ॉल्ट बेल” का अधिकार प्राप्त हो जाता है। यदि जांच एजेंसी इस पीरियड के भीतर, प्रॉपर इन्वेस्टीगेशन के बाद, चार्जशीट दाखिल नहीं करती हैं, तो डिफ़ॉल्ट बेल नहीं मिलती है।
जांच एजेंसियां कैसे लटकाती हैं डिफॉल्ट बेल?
एडवोकेट आदर्श कहते हैं कि इसीलिए पुलिस 60 या 90 दिन के भीतर चार्जशीट दाखिल कर देती है, चाहे जांच पूरी हुई हो या नहीं, और तर्क देती है कि “फर्दर इन्वेस्टिगेशन” पेंडिंग है। इस स्थिति में कोर्ट आरोपी को डिफ़ॉल्ट बेल नहीं देता है। कई बार जांच एजेंसियां ऐसा, जानबूझकर करती हैं ताकि आरोपी को डिफ़ॉल्ट बेल का बेनिफिट न मिल पाए।
क्या है सुप्रीम कोर्ट के फैसले का मतलब?
एडवोकेट आदर्श तिवारी कहते हैं कि ‘रितु छाबड़िया बनाम यूनियन ऑफ इंडिया’ केस में सुप्रीम कोर्ट का फैसला बहुत महत्वपूर्ण है। इस जजमेंट में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि अगर आनन-फ़ानन में चार्जशीट सबमिट की जाती है और ये कहा जाता है कि ‘फर्दर इन्वेस्टिगेशन’ पेंडिंग है, तब भी यदि आरोपी एंटाइटल है तो कोर्ट को डिफ़ॉल्ट बेल देनी होगी। इस फैसला का असर यह होगा कि जांच एजेंसियां अपनी जांच अच्छे तरीके से और निर्धारित समय के अंदर पूरा करने को बाध्य होंगी।