सुप्रीम कोर्ट ने मध्य प्रदेश सरकार को ओबीसी आरक्षण के साथ चुनाव कराने की इजाजत दे दी है। लेकिन महाराष्ट्र के मामले में उसने एक अलग रुख अपनाया है। हालांकि पिछली सुनवाई में महाराष्ट्र सरीखे निर्देश मध्य प्रदेश को भी दिए गए थे। लेकिन अब शीर्ष अदालत का रुख दोनों सूबों के लिए अलग-अलग है। विपक्षी दलों का कहना है कि केंद्र इस मुद्दे पर राजनीति कर रहा है। महाराष्ट्र में ओबीसी समुदाय को आरक्षण के अधिकार से वंचित करना चाहती है। जबकि मप्र के मामले में उसने शिवराज सरकार की याचिका पर तत्काल फैसला दे दिया।  

सुप्रीम कोर्ट ने मप्र को लेकर दिया ये फैसला

मध्यप्रदेश में पंचायत और निकाय चुनाव ओबीसी आरक्षण के साथ होंगे। सुप्रीम कोर्ट ने इस हफ्ते आरक्षण नोटिफाई कराने तो अगले हफ्ते इलेक्शन कराने का नोटिफिकेशन जारी करने के लिए कहा है। हालांकि कोर्ट ने फैसले में कहा है कि आरक्षण किसी भी स्थिति में 50% से अधिक नहीं होगा। शीर्ष अदालत ने इससे पहले मध्यप्रदेश में 3 साल से अटके नगरीय निकाय और पंचायत चुनाव ओबीसी आरक्षण के बिना ही कराने के निर्देश दिए थे। शिवराज सरकार ने ओबीसी को आरक्षण देने के लिए 12 मई को सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की थी।

याचिका पर सुप्रीम कोर्ट में 17 मई को भी सुनवाई हुई थी। सरकार ने आरक्षण के पक्ष में दलील देते हुए 2011 की जनसंख्या के आंकड़े पेश किए थे। जनगणना में प्रदेश में ओबीसी की 51 फीसदी आबादी बताई गई। हालांकि कोर्ट ने जब बिना आरक्षण के पंचायत चुनाव कराने का फरमान सुनाया था, तब कहा था कि ट्रिपल टेस्ट की निकायवार रिपोर्ट का आकलन करने के बाद ही इस पर निर्णय दिया जाएगा। ताजा फैसले में कोर्ट ने कहा कि त्रिस्तरीय पंचायत और नगरीय निकाय चुनाव में ओबीसी वर्ग को कुल 50 प्रतिशत आरक्षण की सीमा में मिलेगा। आरक्षण 2022 के परिसीमन के आधार पर लागू होगा।

महाराष्ट्र में क्यों नहीं दी गई अनुमति

सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि जब तक राज्य सरकार ट्रिपल टेस्ट की औपचारिकता पूरी नहीं करती, तब तक अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण का प्रावधान नहीं किया जा सकता। यदि ये कार्य राज्य चुनाव आयोग द्वारा चुनाव कार्यक्रम जारी करने से पहले नहीं किया जाता तो अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए आरक्षित सीटों के अलावा सभी सीटें सामान्य श्रेणी में अधिसूचित की जाएं। हालांकि पहले शीर्ष अदालत का रुख मप्र व महाराष्ट्र के लिए एक जैसा था। लेकिन अब शिवराज सिंह चौहान की सरकार को कोर्ट से हरी झंडी मिल गई।

ट्रिपल टेस्ट सबसे अहम

ट्रिपल टेस्ट में एक आयोग देखता है कि जिस समुदाय के आरक्षण प्रतिशत में परिवर्तन किया जा रहा है, उस पर इसका क्या असर होगा। अगर किसी श्रेणी में आरक्षण बढ़ाया जाना है तो उसमें इसकी जरूरत है भी या नहीं। दूसरे स्टैप में आरक्षण का प्रतिशत सही तरीके से विभाजित करने की प्रक्रिया होती है। देखा जाता है कि किसी श्रेणी के साथ गलत न होने पाए। ये अलग-अलग स्थानीय निकायों के परिपेक्ष्य में किया जाता है। आखिर में देखा जाता है कि सभी श्रेणियों के कुल आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 प्रतिशत से अधिक न होने पाए।

महाराष्ट्र की उद्धव सरकार ने बीते साल जून में बैकवर्ड क्लास कमीशन का गठन किया था। हालांकि सरकार ने रिपोर्ट का इंतजार किए बगैर पंचायत एक्ट और जिला परिषद व पंचायत समिति में ओबीसी के लिए 27 फीसदी आरक्षण को मंजूरी दे दी। मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो स्टे लग गया। बीते साल 6 दिसंबर को कोर्ट ने कहा कि सरकार ने ट्रिपल टेस्ट की पालना नहीं की। 15 दिसंबर को कोर्ट ने स्टेट इलेक्शन कमीशन को लोकल बॉडीज के चुनाव नोटिफाई करने का आदेश दिया। खास बात थी कि ये चुनाव बगैर आरक्षण के होने थे।

चुनाव आयोग की रिपोर्ट से संतुष्ट नहीं SC

हालांकि, इसी साल जनवरी में कोर्ट ने महाराष्ट्र सरकार को आदेश दिया कि वो स्टेट इलेक्शन कमीशन को आरक्षण से जुड़ा सारा डेटा उपलब्ध कराए। लेकिन मार्च में शीर्ष अदालत ने कमीशन की रिपोर्ट को खारिज कर दिया। इसमें लोकल बॉडीज के चुनाव में ओबीसी को 27 फीसदी आरक्षण की बात कही गई थी। कोर्ट का कहना था कि कमीशन ने रिपोर्ट तैयार करने से पहले विस्तृत अध्ययन नहीं किया। हालांकि उसने कमीशन को अपनी कार्यवाही पूरी कर फाईनल रिपोर्ट दाखिल करने के लिए एक मौका दिया है।