साहिर लुधियानवी सिनेमा और उर्दू अदब के वो मुकम्मल शायर थे, जिनके लफ्जों में गजब की रूमानियत है। इंसानी रिश्ते, जज्बात, मोहब्बत, ख्वाब और उससे बढ़कर हकीकत को दुनियादारी के हिसाब से शायरी के पैमाने में तौलकर कागज पर बिखेरने का नाम था साहिर। उनके काम और शख्सियत पर गौर से नजर डालें, तो एक बात तो पूरी तरीके से तयशुदा मालूम होती है कि अगर वो सिनेमा के लिए गीत नहीं लिखते तो उम्दा किस्म के किस्सागो होते। इसकी बानगी इस गीत से निखरकर आती है, जिसे साहिर ने 1957 की फिल्म ‘प्यासा’ में लिखा “जाने क्या तूने कही… जाने क्या मैने सुनी… बात कुछ बन ही गई”। इस गीत में फिल्म के नायक विजय (गुरुदत्त) और सह-नायिका गुलाबो (वहीदा रहमान) अपने प्रेम का इजहार करते हैं और इस पूरे गीत को समझे तो बिना किसी शक-ओ-शुब्हा ये किस्साकोई के सारे पैमाने को पूरा करता हुआ समझ में आता है।
साहिर लुधियानवी ने हिंदुस्तानी शायरी को न केवल इश्क के मरहबे के तौर पर रखा बल्कि अपने फलसफे में वो इश्क के साथ उसकी कड़वी हकीकत को भी बखूबी बयां करते हैं। वो उस टीस को भी सामने परोसते हैं, जो धन-दौलत के आगे बेबस है। फिल्म प्यासा में ही अमीर शख्स की मुलाजिमत करते नायक के होठ से जब साहिर कहते हैं “जाने वो कैसे लोग थे, जिनके प्यार को प्यार मिला… हमने तो जब कलियां मांगीं कांटों का हार मिला” तो लगता है कि उन्होंने उस हकीकत को बेपर्दा कर दिया, जो सदियों से जमाने पर नाजिल होती रही है।
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तो ये है साहिर का अंदाज-ए-बंया, जिसे चंद लफ्जों में बांध पाना बेहद मुश्किल है। वो इंसानी अहसास चाहत, शिद्दत और जज्बे को बेखौफ कलम से लिखा करते थे। इनकी शायरी में दो-टूक सच्चाई है, यही वजह है कि वो इंसान की बुनियादी सोच और समाज के रवायतों के खिलाफ बगावती परचम को भी लहराते हुए नजर आते हैं। उन्होंने खुद एक शेर में कहा है “तंग आ चुके हैं कशमकश-ए-ज़िंदगी से हम… ठुकरा न दें जहां को, कहीं बे-दिली से हम”
साहिर असल जिंदगी में अब्दुल हई हुआ करते थे। शायरों की रवायत को निभाने के लिए उन्हें तखल्लुस की जरूरत आन पड़ी तो वहां भी वो एक बेहद जहीन शायर की शायरी से मुतास्सिर हुए और अपना नाम साहिर रख लिया और चूंकि लुधियाना की पैदाइश थी तो अब्दुल हई ने खुद को उसका कर्जदार मानते हुए, उसे भी अपने नाम में शामिल किया और हो गए साहिर लुधियानवी।
साहिर का मतलब जादू होता है। और उन्होंने ये नाम ऊर्दू अदब के बेहद मकबूल शायर ‘इकबाल’ के इस शेर से लिया था, जो ‘दाग’ के मर्सिये के लिए लिखा गया था और वो शेर था “इस चमन में होंगे पैदा, बुलबुल-ऐ-शीराज़ भी… सैंकड़ों साहिर भी होंगे, साहिब-ऐ-एजाज़ भी”। इस पूरे मामले में एक और बात बेहद दिलचस्प है कि साहिर इकबाल के साथ नजरयाती इख्तेलाफ रखते थे लेकिन बावजूद वो उन्हें अपने जमाने का बेहद उम्दा शायर भी मानते थे। मौजूदा दौर में शायद ये मुमकिन नहीं जान पड़ता कि नजरिया न मिलने के बावजूद कोई किसी को किसी से पसंद करे। लेकिन शायद गुजरा जमाना कुछ और ही था।
साहिर ने खुद की जिंदगी में बहुत कुछ झेला, उनके अब्बा फजल मुहम्मद से बेहद तल्ख रिश्ते थे, वो अपनी मां सरदार बेगम पर अब्बा के किए जुल्म से इतने आहत थे कि मर्द कौम से बेहद नाराजगी रखते थे। साहिर मानते थे कि मर्दों ने हमेशा से औरतों पर जुल्म किया और उन्हें बराबरी का हक कभी नहीं दिया।अपनी इसी सोच को साहिर ने लफ्जों में कुछ यूं बयां किया “औरत ने जनम दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाज़ार दिया… जब जी चाहा मसला कुचला, जब जी चाहा धुत्कार दिया”
सहिर ने कभी किसी सियासी दल से वाबस्तगी नहीं रखी। वो हमेशा आजाद हुए हिंदुस्तान में अच्छे पहलू की तलाश में रहे, वो आवाम के उस दर्द को समझते थे, जो नए मुल्क में अपनी नई तकदीर को लेकर हैरां और परेशां थी। साहिर उस आजादी के मुसव्विर थे, जिसमें उन्होंने सोथा था “वो सुबह कभी तो आयेगी, इन काली सदियों के सर से, जब रात का आंचल ढलकेगा, जब अम्बर झूम के नाचेगी, जब धरती नग़मे गाएगी, वो सुबह कभी तो आयेगी” लेकिन आजादी के बाद रोटी की लूट, दंगे का मंजर और पेशानी पर पड़े बल को देखकर साहिर ने लिखा “ये कूचे, ये नीलामघर दिलकशी के, ये लुटते हुए कारवां ज़िन्दगी के, कहां हैं… कहां है… मुहाफिज खुदी के, जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहां हैं”
साहिर ने समाज को, इंसान को राह दिखाने की भी कोशिश की। उनका धर्म से कोई खास लगाव नहीं था या वो किसी खास धर्म के पाबंद नहीं थे। वो तो इंसान को केवल इंसान की नजर से देखने की कोशिश करते थे। इसी नजरिये को साहिर ने शब्दों में कुछ यूं पिरोया “तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा इंसान की औलाद है इंसान बनेगा”। साहिर ने ईश्वर को पाने की बेहद आसान राह बताई है, वो सारे झूठ, आडंबर और अहंकार से दूर होकर इंसान को खुद के आईना में झांकने की सलाह कुछ इस तरह से देते हैं, “तोरा मन दर्पण कहलाये… भले बुरे सारे कर्मों को, देखे और दिखाये, मन ही देवता, मन ही ईश्वर, मन से बड़ा न कोय, मन उजियारा जब जब फैले, जग उजियारा होय, इस उजले दर्पण पे प्राणी, धूल न जमने पाये, तोरा मन दर्पण कहलाये”
साहिर ने जब भी शायरी की इंसानी रिश्तों, जहनियत गुबार को उड़ेलकर रख दिया। उन्होंने जब लिखना शुरू किया तब कई नामचीन मसलन इक़बाल, फ़ैज़, फ़िराक अपने अंदाज-ए-बयां से शायरी की दुनिया में बुलंदी पर थे, वहीं फिल्मी जगत की बात करें तो उनके सामने मजरूह, शैलेंद्र, कैफी, हसरत जैसे कई गीतकार थे, फिर भी साहिर की कलम ने वो लिखा, जो हिंदी सिनेमा के इतिहास में हमेशा के लिए मील का पत्थर है और उसे कलम के जरिए छू पाना या उसके करीब पहुंच पाना आज भी नामुमकिन सा लगता है।
ये साहिर का बागी तेवर ही था, जो उस जमाने में रेडियो पर गीतकारों का नाम भी बताया जाने लगा, वर्ना साहिर से पहले केवल गायक और संगीतकार का ही नाम लिया जाता था। साहिर ने इस चलन का विरोध किया और उन्हीं के कारण उस जमाने में ‘रेडियो सिलोन’ पर श्रोताओं के लिए पेश होने वाले गीतों के परिचय के तौर पर संगीतकार और गायक के साथ गीतकार भी नाम भी बताया जाने लगा।
साहिर ने सिनेमा के संगीतकारों और यहां तक की गायकों को भी खुली चुनौती दी कि गीत केवल उनके धुन और बोल से नहीं बल्कि उन लफ्जों के पिरोने से हिट होते हैं, जिसे गीतकार अपने जेहन से कागज पर उतारता है। साहिर ने फिल्मी दुनिया में मुनादी पिटवादी कि संगीतकारों और गायकों को मिलने वाले मेहनताने से एक रुपया ज्यादा लूंगा और तभी गीत लिखूंगा। ये साहिर का साहस था, जो अपने हक-हकूक के लिए फिल्मी बिरादरी के खिलाफ अकेले खड़े हो गए और मजबूरन फिल्म बनाने वालों को साहिर की शर्त के आगे झुकना पड़ा। उन्होंने लिखे गीते के लिए रॉयल्टी भी ली, जो उनके पहले गीतकारों के लिए चलन में नहीं थी।
25 अक्टूबर 1980 को साहिर इस दुनिया से रुखसत हो गए। एक लंबा अरसा गुजर गया। जमाना भी बहुत बदल गया। लोग भी बदल गए। लोगों की सोच भी बदल गई। आज के दौर या आज की नई पीढ़ी को तो शायद साहिर का नाम भी न पता हो। लेकिन जब तक ये कायनात रहेगी साहिर के गीत, उनके लिखे अल्फाज मुसलसल आबाद रहेंगे।
“हम ग़मज़दा हैं, लाएं कहां से खुशी के गीत, देंगे, वही जो पाएंगे इन जिदगी के गीत।”
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