आरती सक्सेना

इसके पीछे जो वजहें खोजी गई हैं उनमें ओटीटी मंच का आगमन , टिकट के ऊंचे दाम, दक्षिण सिनेमा हिंदी में डब करना इत्यादि। अगर हिंदी फिल्मों की बात करें तो बालीवुड सितारों का दबदबा और सफल फिल्मों का दौर आज का नहीं है यह काफी सालों से चला आ रहा है। हिंदी सिनेमा की सफल फिल्मों ने ही सितारों को पैदा किया। फिर वह समय आया जब सितारों के दम पर ही फिल्में हिट होने लगीं। एक वक्त वह था, जब निर्माता निर्देशकों जैसे प्रकाश मेहरा, मनमोहन देसाई, ताराचंद बड़जात्या, सुभाष घई फिल्मों को कामयाब बनाते थे। लेकिन सितारों की फिल्में बाक्स आफिस पर धड़ाम हो रही हैैं। इसके विपरीत हालिया प्रदर्शित फिल्म कांतारा सफलता के झंडे गाड़ रही है । आखिर क्या वजहें हैं जिनसे मुंबई की हिंदी फिल्में विफल हो रही हैं।

अगर भावनाओं को व्यक्त करना है तो वह अपनी भाषा में ही व्यक्त कर सकते हैं क्योंकि वे हमारे दिल से निकलती हैं। लेकिन बालीवुड में ऐसा नहीं है। यहां के कलाकार अंग्रेजी में सोचते और बोलते हैं। हिंदी में बात करना उनकी शान के खिलाफ है। इसी चक्कर में पटकथा भी अंग्रेजी में लिखी जाती है। अमिताभ बच्चन के अनुसार हमें पटकथा अंग्रेजी में मिलती है। इसे हमें हिंदी में पढ़ना होता है जबकि पहले ऐसा नहीं था।

अमिताभ बच्चन की तरह नवाजुद्दीन सिद्दीकी को भी इस बात से नाराजगी है कि पटकथाएं अंग्रेजी में ही दी जाती हैं। इससे संवाद याद करना, समझना और फिर उसे पेश करना मुश्किल हो जाता है। वहीं, इसके विपरीत अगर दक्षिण की फिल्मों की बात करें तो वहां पर तेलुगु, तमिल, कन्नड़, मलयालम में ही कलाकार, निर्देशक और निर्माता बातचीत करते हैं। उनकी ही भाषा में पटकथा और संवाद मिलते हैं। लिहाजा कांतारा हो या केजीएफ या बाहुबली वे प्रभावी और सफल फिल्म इसलिए भी बन जाती हैंं। बालीवुड में फिल्मों के निर्माण में मेहनत कम होती है, पैसा कमाने पर ध्यान ज्यादा होता है। जिसके लिए फिल्म निर्माण में गुणवत्ता से ज्यादा प्रचार पर ध्यान दिया जाता है। यही वजह है की करोड़ों की लागत वाली और बड़े सितारों वाली फिल्में भी धड़ाम हो रही हैं।

बड़े सितारों का मेहनताना काफी ज्यादा होता है। इससे फिल्म का बजट भी बढ़ जाता है। इससे और भी कई जगह निर्माताओं को समझौता करना पड़ता है। इसी वजह से फिल्मों की गुणवत्ता प्रभावित होती है। फिर भी कोई फिल्म कुछ कमाई कर भी लेती है तो वह महंगे मेहनताने के कारण फायदे में नहीं रहती। इसके कारण फिल्म निर्माता-निर्देशक भी फिल्म निर्माण के दौरान कोई जोखिम नहीं लेना चाहते।

वे नई प्रतिभाओं को मौका देने से कतराते हैं और अपने ही लोगों को बार-बार मौका देते हैं। फिल्म इतिहास गवाह है कि जितने भी अभिनेता उद्योग के बाहर से आए हैं फिर चाहे वे शाहरुख खान हों, अमिताभ बच्चन हों, अक्षय कुमार हों या आयुष्मान खुराना हो सभी ने अपनी मेहनत और काबिलियत से जगह बनाई है। वहीं बालीवुड सितारों के बच्चे ना तो इतनी मेहनत करते हैं और ना ही वे अपने सितारा माता-पिता या भाई बहन के जितने प्रतिभाशाली होते हैं ।

बावजूद इसके उनको आसानी से फिल्म मिल जाती हैं। जबकि काबिल कलाकार संघर्ष करके भी अपनी जगह नहीं बना पाते। फिल्म उद्योग में गुटबाजी और भाई भतीजावाद के कारण प्रतिभाएं छोटे पर्दे या ओटीटी की तरफ बढ़ जाती हैं। फिल्मों में उनको अपनी जगह बनाने का मौका ही नहीं मिलता, इसके विपरीत सितारों के बेटे-बेटियों को फिल्मों में लिया भी गया है तो उन्हें अभिनय अच्छे से नहीं आता। फिल्म की विफलता का एक अहम कारण यह भी है।

इसके अलावा फिल्म की आत्मा कहानी होती है। लेकिन अफसोस कहानीकार को वह अहमियत नहीं दी जाती पारिश्रमिक नहीं दिया जाता जो उस को मिलना चाहिए। अगर देखने जाएं तो फिल्म का कहानीकार गुमनाम ही रहता है और फ़िल्म में मौजूद अन्य लोगों के मुकाबले कहानीकार को उसकी काबिलियत के अनुसार पारिश्रमिक नहीं दिया जाता। इतना ही नहीं निर्माता-निर्देशक नए कहानीकारों या लेखकों को ना के बराबर मौका देते हैं जिसकी वजह से फिल्म में कमजोर कहानी मिलती है और फिल्म की विफलता की सबसे बड़ी वजह वही होती है। बालीवुड के सफल निर्माता-निर्देशक नए लेखकों को मौका देने के बजाय दक्षिण और हालीवुड फिल्मों की नकल बनाना ज्यादा पसंद करते हैं। अगर दूसरे शब्दों में कहें तो निर्माता मेहनत नहीं करना चाहते। लिहाजा हिंदी फिल्मों से ठोस कहानी गायब है।