गिरिजाशंकर

आज के दौर में जब फिल्मों की सफलता का पैमाना करोड़ों के क्लब में ऊंचे पायदान तक पहुंचना बन गया है, तब छोटी बजट की फिल्मों का कोई बाजार नहीं रह गया है। कभी समांतर सिनेमा के नाम से कलात्मक फिल्मों का दौर चला था जो अब इतिहास बन गया है।

पिछले कुछ समय से बिना किसी तामझाम के छोटी बजट की बेहतरीन फिल्में नामचीन भी और नए निर्देशक भी बना रहे हैं। यह और बात है कि ये फिल्में प्रदर्शित तो होती हैं लेकिन चंद दिन भी स्क्रीन पर ठहर नहीं पाती। इसके लिए दर्शकों को दोष नहीं दिया जा सकता और न निर्देशक को यह बाजार का करिश्मा है जहां ऐसी फिल्मों के लिए कोई जगह नहीं है।

ऐसी ही एक फिल्म है द्वंद जो इन दिनों सिनेमा घरों में दिखाई जा रही है। रंग निर्देशिका अनामिका हक्सर की फिल्म घोड़े को जलेबी खिला रहा हूं से लेकर ‘द्वंद’ तक लगभग 12 फिल्में आईं जो हर पैमाने पर बेहतरीन होने के बाद भी सीमित दर्शकों तक पहुंच पाई। फिल्म ‘द्वंद’ एक नाटक के प्रस्तुत करने की कहानी है जिसमें न कोई हिंसा है, न रोमांस। यहां तक कि इसमें न कोई अभिनेता है और न ही अभिनेत्री।

अभिनेता है तो वह है रंगमंच और लोकजीवन। यह फिल्म दरअसल थियेटर की ताकत को दिखाता है, जहां सब बराबर हैं। धर्म, जाति, पद प्रतिष्ठा से ऊपर फिल्म की कहानी एक नाटक के मंचन की कहानी है। गांव वाले फिल्म बनाना चाहते हैं लेकिन लागत को देखते हुए नाटक करना तय होता है। ओंकारा फिल्म से प्रभावित ये लोग शेक्सपीयर का ओथेला नाटक करना तय करते हैं। मनचाही भूमिका नहीं मिलने से एक पात्र षडयंत्र पूर्वक नाटक होने में व्यवधान पैदा करने की कोशिश करता लेकिन नाटक करने के जज्बे के सामने वह असफल हो जाता है और नाटक का मंचन करने में गांव वाले सफल होते हैं।

इश्तियाक खान बुनियादी रूप से अभिनेता व रंग निर्देशक हैं। उन्होंने अपनी रंगयात्रा मध्यप्रदेश के छोटे से शहर पन्ना से शुरू कर भोपाल और एनएसडी होते हुए मुंबई पहुंचती। इश्तियाक के पीछे-पीछे उसका छोटा भाई फैज खान भी सतना, भोपाल, एनएसडी होते हुए मुंबई पहुंच जाता है और दोनों भाई का फिल्मों में संघर्ष शुरू हो जाता है। पिता के न रहते हुए दोनों भाइयों की रंगयात्रा में उनकी मां दिलारा बानों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही जिन्होंने पिता की तरह बेटों को इस मुकाम तक पहुंचाया।

इस फिल्म के लेखक व निर्देशक इश्तियाक खुद रंगकर्मी व रंग निदेशक है और फिल्म के लगभग सभी कलाकार भी रंगमंच से ही आते हैं। फिल्म की कहानी भी रंगमंच की है। इश्तियाक की यह पहली फिल्म है लेकिन उनकी परिपक्वता और कल्पनाशीलता से वे एक अनुभवी निर्देशक की छाप छोड़ते हैं। ग्रामीण परिवेश में बनाई गई इस फिल्म के कास्ट्यूम सेट से लेकर भाषा व संवाद अदायगी सभी में देशीपन है जो दर्शकों को भाता है।

नाटक तैयार करने में कितनी अप्रत्याशित बाधाएं आती हैं और उनका बेहद मानवीय और सकारात्मक समाधान द्वंद फिल्म को विशिष्ट बनाता है।तकनीकी तामझाम के बिना भी निदेशक ने फिल्म को इतना भव्य बनाया है कि एक क्षण के लिए भी फिल्म की गति मंथर नहीं होती। कहानी के पात्रों में इतनी विविधता है कि वे मानों वे पूरे गांव या समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं और सभी पात्रों को कहानी में ऐसा पिरोया गया है कि कोई भी अप्रासंगिक नहीं लगता।

फिल्म में दो कलाकार फिल्मी दुनिया के मंझे हुए सितारे हैं संजय मिश्रा और इशिता चक्रवर्ती। संजय मिश्रा भी रंगमंच से फिल्मों में आए और सैकड़ों फिल्मों में अलग-अलग किरदारों में उन्होंने अपने अभिनय की छाप छोड़ी है। फिल्म में संजय मिश्रा ने नाट्य गुरु की भूमिका में अपना सर्वश्रेष्ठ अभिनय किया है। इशिता कितनी कुशल अभिनेत्री हैं, उनकी सहज अभिनय में यह झलकता है। इश्तियाक बेहद शालीन निर्देशक के साथ कुशल अभिनेता हैं जो भोला की भूमिका में उसके मनोभावों को बखूबी दर्शाते हैं। रंगमंच की मूल भावना सामूहिकता में जीने को फिल्म ‘द्वंद’ जीवंत करता है।