सिंबा

निर्देशक- रोहित शेट्टी</strong>

कलाकार- रणवीर सिंह, सारा अली खान, सोनू सूद, आशुतोष राणा

सीधे-सीधे कहा जाए तो रोहित शेट्टी की नई फिल्म ‘सिंबा’ पुलिस एनकाउंटर की वकालत करने वाली फिल्म है। इसमें पुलिस इंस्पेक्टर सिंबा (रणवीर सिंह) थाने में उन दो लोगों को गोली मार देता है जिन पर एक लड़की के बलात्कार का आरोप है। सिंबा ऐसा अकेले नहीं करता बल्कि पूरा थाना और उसके सारे पुलिसकर्मी इसमें शामिल हैं। साथ ही कुछ महिलाओं और लड़कियों की रजामंदी भी इसमें शामिल है। और जो जांच अधिकारी (अजय देवगन) इस घटना की जांच करने आता है वो भी सिंबा की पीठ थपथपाता है और कहता है कि बिल्कुल सही किया। यानी सिंहम सिंबा को सर्टिफिकेट देता है- ‘शाबाश’। सिंबा यानी संग्राम भालेराव एक पुलिस अधिकारी है और पक्का घूसखोर है। उसकी छवि ऐसी बन गई है कि जब वो तबादले के बाद दूसरे थाने में जाता है तो वहां का एक पुलिसकर्मी मोहिले (आशुतोष राणा) उसे सैल्यूट नहीं करता, लेकिन सिंबा को उससे क्या? वो घूस लेकर अपराधियों का काम करता रहता है क्योंकि वो पुलिस में आया ही है पैसा कमाने के लिए। सिंबा अनाथ है और उसे बचपन में ही समझ में आ जाता है पैसा की ताकत बहुत बड़ी होती है। लेकिन एक दिन ऐसा भी आता है जब घूसखोर सिंबा का हृदय परिवर्तन होता है। उसकी मुंहबोली बहन के साथ एक दिन गोवा के माफिया डॉन (सोनू सूद) के भाई बलात्कार करते हैं और उसकी जान तक ले लेते हैं। इसके बाद सिंबा अपनी बहन के हत्यारों को सजा देने का फैसला करता है।

पहले वह कानूनी तरीके से अपराधियों को सजा दिलाने की कोशिश करता है, लेकिन डॉन में कानून को खरीदने की ताकत है। इसलिए कोई और रास्ता न मिलने पर सिंबा थाने में अपनी बहन के हत्यारों का एनकाउंटर कर देता है। ‘सिंबा’ अजय देवगन की फिल्म ‘सिंहम’ की ही ताजा कड़ी जैसी लगती है। फर्क बस इतना है कि इसमें अजय देवगन की जगह रणवीर सिंह है। वैसे एक फर्क और है, ‘सिंहम’ में अजय देवगन ने बेहद संजीदा किरदार निभाया था, लेकिन ‘सिंबा’ में रणवीर सिंह मध्यांतर के पहले तक मजाकिया नजर आते हैं और बाद में गंभीर होते हैं। शगुन (सारा अली खान) नाम की जिस लड़की से सिंबा प्यार करता है, उसके साथ भी हंसी-ठिठोली ज्यादा करता है और उसे ‘आई लव यू’ बोलने में भी झिझकता है। बात करें अभिनय की, तो रणवीर सिंह ने अपने किरदार को लाजवाब तरीके से निभाया है। सारा अली खान के लिए फिल्म में करने को तो कुछ खास नहीं था, फिर भी वे कुछ दृश्यों में अच्छी लगी हैं।

फिल्म के दो-तीन गाने अच्छे हैं और उन्हें बेहतर ढंग से फिल्माया भी गया है। हालांकि फिल्म वैचारिक स्तर पर यह सवाल भी खड़ा करती है कि एनकाउंटर जैसी चीजों को कैसे वाजिब ठहराया जा सकता है? यानी जब पुलिस को लगे कि कोई शख्स अपराधी है और कानून उसे सजा देने में देरी कर रहा है को उसे गोली मार दो। वैसे इस तरह की हत्या के लिए निर्भया कांड और देश में महिलाओं के साथ बढ़ते अपराध का भी तर्क दिया गया है। लेकिन अगर इन तर्कों से एनकाउंटर को न्यायोचित ठहराया जाएगा तो फिर अदालत और संविधान किसलिए बना है।