वाकया 1936 का है। टाइपराइटर बेचने वाले सेल्समैन रहे और सिनेमा की दुनिया में नकली नाम सहगल कश्मीरी (1932 की ‘मोहब्बत के आंसू’, ‘सुबह का सितारा’, ‘जिंदा लाश’) से उतरे महान गायक-अभिनेता केएल सहगल अपने असली नाम केएल सहगल के जरिये परदे पर धूम मचा चुके थे। उनके गाने देश भर में गुनगुनाए जा रहे थे। वे नए ‘सिंगिंग स्टार’ थे। ‘पूरन भगत’ (1933) और ‘चंडीदास’ (1934) की सफलता ने उन्हें न्यू थियेटर्स का सबसे चमकदार सितारा बना दिया था। उनकी आवाज में इतनी कशिश थी कि उन्हें ‘पूरन भगत’ में देखकर एक नवोदित और बाद में अपार लोकप्रियता हासिल करने वाली गायिका ने कहा कि अगर उनका वश चले तो वह सहगल से शादी कर लें। सहगल को याद किया जाता है उनकी फिल्म ‘देवदास’ के कारण। ‘देवदास’ वह फिल्म थी जिसका बाद की पीढ़ियों पर असर रहा। मगर सहगल को सहगल बनाने वाले प्रमथेशचंद्र बरुआ उपेक्षित रह गए। सच यह है कि बोलती फिल्मों के दौर में अगर कोई पहला ‘देवदास’ परदे पर उतरा था, तो वह थे प्रमथेशचंद्र बरुआ। न्यू थियेटर्स की ‘देवदास’ पर बनाई गई (बांग्ला, हिंदी और असमिया में) जो तीन फिल्में मशहूर हुई उनमें 1934 में सबसे पहले परदे पर आई थी बांग्ला में बनी ‘देवदास’, फिर 1935 में हिंदी की और 1937 में असमिया भाषा की। इन तीनों ही फिल्मों का निर्देशन किया था प्रमथेशचंद्र बरुआ ने।

सहगल जम्मू कश्मीर के महाराजा के कोर्ट में तहसीलदार रहे अमरचंद सहगल के बेटे थे जबकि बरुआ गौरीपुर के जमींदार के घर पैदा हुए। जमींदार का बेटा सिनेमा में नाचे गाए, तब इस बारे में तो सोचा भी नहीं जा सकता था। परिवार ने 18 साल की उम्र में बरुआ का विवाह करवा दिया था। 23-24 साल की उम्र तक बरुआ सिनेमा की दुनिया से जुडेÞ और 1929 में पहली बार परदे पर उतरे ब्रिटिश डोमेनियन कंपनी की देबकी बोस निर्देशित फिल्म ‘पंचशार’ में।

बरुआ को 1930 में पथरी के इलाज के लिए इंग्लैंड जाना पड़ा। वहां सिनेमा की दुनिया में हो रही तरक्की देखने-समझने का मौका मिला। उन्होंने ब्रिटेन और फ्रांस में रहकर सिनेमा बनाने के गुर सीखे। लौटे तोपहली फिल्म बनाई ‘अपराधी’ (1931)। यह पहली फिल्म थी, जो कृत्रिम प्रकाश में बनाई गई थी। उन्होंने पेरिस के फॉक्स स्टूडियो में लाइटिंग के बारे में काफी कुछ सीखा था।

बरुआ ने 1934 में न्यू थियेटर्स की पहली बोलती फिल्म ‘रूपलेखा’ का निर्देशन किया। ‘देवदास’ में उन्होंने अपनी भूमिका जिस तरह जीवंत की उसने बरुआ को रातोरात स्टार बना दिया। ‘देवदास’ लिखने वाले शरतचंद्र ने यह फिल्म देखने के बाद कहा था, ‘ऐसा लगता है कि मेरा जन्म ‘देवदास’ लिखने के लिए और तुम्हारा देवदास को परदे पर उतारने के लिए ही हुआ।’

न्यू थियेटर्स में लगी आग में कई फिल्मों के प्रिंट जल गए। इनमें बांग्ला ‘देवदास’ भी शामिल थी। इसके बाद लगा कि बरुआ की ‘देवदास’ को अब सिनेमाप्रेमी कभी नहीं देख पाएंगे। पूरे देश में इसका कोई प्रिंट नहीं था। मगर 2002 में दिल्ली में हुए एक फिल्मोत्सव में बरुआ की ‘देवदास’ नजर आई। यह प्रिंट बांग्लादेश से बुलाया गया था। वहां बरुआ की ‘देवदास’ का एक प्रिंट उपलब्ध था, जो खराब हो चुका था। तब भारत ने पहलकदमी करते हुए बांग्लादेश से इसका एक प्रिंट उपलब्ध करवाने की मांग की ताकि भारतीय अभिलेखागार में भारतीय सिनेमा की इस धरोहर को सहेज कर रखा जा सके। इस तरह बरुआ की जो ‘देवदास’ न्यू थियेटर्स में लगी आग में भस्म हो गई थी, वह ग्रीक पौराणिक कथा के फीनिक्स पक्षी की तरह अपनी चिता की राख से फिर जी उठी।

हमारी याद आएगी: जब तक लोग न्यू थियेटर्स की ‘देवदास’ देखेंगे, तब तक केएल सहगल जिंदा रहेंगे। और जब तक केएल सहगल जिंदा रहेंगे, तब तक प्रमथेशचंद्र बरुआ भी जिंदा रहेंगे। हो सकता है यह पीढ़ी इस महान लेखक, अभिनेता, निर्देशक, संपादक को न जानती हो, मगर इससे बरुआ का सिनेमा की दुनिया को दिया गया योगदान कम नहीं होता है। वह कई नजर नहीं आने वाले नींव के पत्थरों की मानिंद हैं, जिन पर भारतीय सिनेमा का भव्य और आलीशान भवन आज भी टिका हुआ है। गुरुवार को उनकी 67वीं पुण्यतिथि थी।