बात वास्तविक इतिहास की नहीं है। वास्तविक इतिहास तो ‘मुगले आजम’ में भी नहीं था और न हाल में जबर्दस्त तौर पर सफल हुई तेलगु- हिंदी फिल्म ‘आरआरआर’ में था। ज्यादातर दर्शक असली इतिहास से अनजान होते हैं। बात होती है कि फिल्म वो जादू पैदा करने में सफल होती है या नहीं जो पर्द पर दिखती है। बस यहीं ‘सम्राट पृथवीराज’ असफल होती है। अक्षय कुमार ज्यादातर जगहों पर सम्राट लगते ही नहीं, वे खिलाड़ी कुमार लगते हैं।

दूसरी अहम बात ये कि पर्दे पर अगर किसी को वीर दिखाना है तो ये जरूरी है कि सामने वाले खलनायक को भी दमदार दिखाया जाए। पर मुहम्मद गोरी की भूमिका में मानव विज कुछ पिद्दी से लगते हैं। इसलिए इस फिल्मी पृथ्वीराज को अपनी बहादुरी साबित करने के लिए बहुत जोर लगाना पड़ता है।

फिल्म की शुरुआत में पृथ्वीराज को शेर से लड़ते हुए दिखाया गया है। किसी के बारे में ये दिखाने के लिए कि वो बचपन से ही दुस्साहसी थे, इस तरह का नुस्खा काफी पुराना है। बेहतर होता अगर निर्देशक द्विवेदी कोई और नया तरीका सोचते। ये किस्सा तो सदियों से चला आ रहा कि दुष्यंत और शकुंतला का पुत्र भरत, बचपने में ही शेर के दांत गिना करता था। ये भी कहानी फैलाई गई है कि फिल्म में शेर से लड़नेवाले दृश्य को असल की छाप देने के लिए शूटिंग अफ्रीका के शेरो के साथ की गई।

खैर, बहादुरी वाले पहलू की छोड़ दें तो पृथ्वीराज और संयोगिता का प्रेम प्रेम प्रसंग थोड़ा सा प्रभावशाली है और युद्ध दृश्य भी ग्राफिक्स की मदद से प्रभावशाली बनाए गए हैं। ये सब फिल्म का सकारात्मक पहलू कहा जा सकता है। फिल्म को चलाने के लिए कोई एक और मजबूत कंधा मिल जाए, इसके लिए संजय दत्त का इस्तेमाल किया गया है। जो काका कान्हा के रोल में है।


हालांकि उनकी भूमिका छोटी है इसलिए वो कंधा भी कारगर नहीं हो पाया है। जयचंद की भूमिका में आशुतोष राणा को कमजोर होना ही था। संयोगिता के रूप में मानुषी छिल्लर ठीक ठाक लगी हैं। फिल्म के गाने लबों पर नहीं टिकनेवाले हैं। हां, चंदबरदाई की भुमिका में सोनू सूद जमे हैं।